‘श्वास किस घड़ी में किस गति से चलते हैं’ का लेखा-जोखा
लेख
डॉ. अ. कीर्तिवर्धन
जिस मनुष्य की प्रति श्वास प्रश्वास की गति जितनी कम होगी
उसकी आयु उतनी ही बढ़ेगी।
मनुष्य के शरीर में वायु की गति, अंग-अंग में वायु परीक्षण एवं प्रभाव का अन्वेषण ही श्वास विज्ञान में आता है।
श्वास विज्ञान क्या है? मनुष्य के शरीर में वायु की गति, अंग-अंग में वायु परीक्षण एवं प्रभाव का अन्वेषण ही श्वास विज्ञान में आता है। इसकी खोज हमारे ट्टषि मुनियों ने दीर्घकालिक अनुभवों के बाद की थी। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि आज भी भारत के अलावा दुनिया के किसी देश में श्वास विज्ञान पर कोई कार्य नहीं हो रहा है।
यहां हम श्वास विज्ञान को संक्षिप्त रूप से बताने का प्रयास करेंगे-इसके अनुसार मनुष्य के शरीर में वायु के पृथक-पृथक नाम और अर्थ हैं। मूलतः वायु को पांच प्रकार का माना जाता है।
1- प्राणवायु-यह नासिका के अग्रभाग से बहिर्गमनकारी है।
2- अपान वायु-यह अधोगमनशील है, वायु इसका स्थान है।
3- समान वायु-यह अन्नदि का समीकारक है। शरीर के मध्य भाग में इसका स्थान है।
4- उदान वायु-यह उत्क्रमणकारी है कंठ में इसका स्थान है।
5- व्यान वायु-यह शरीर के सब भागों में गमनकारी है।
इसके अतिरिक्त भी वायु को पांच अन्य प्रकार का होना बताया गया है।
1 नागवायु-यह उदगार के लिए है।
2- कर्मवायु-यह उन्मलिन के लिए है।
3- कृकच वायु-यह क्षुधा के लिए है।
4- देवदत्त वायु- यह जृम्मण के लिए है।
5- धनंजय वायु-शरीर पोषण के लिए हमारे शरीर में विद्यमान है।
श्वास का आना जाना ही जीवन्तता का प्रतीक है। जिसे प्राण भी कहा जाता है।
आखिर प्राण की महत्ता है क्या?
प्राचीन काल में ट्टषि मुनियों ने प्राण विद्या का विषद अध्ययन किया। दीर्घतमा ट्टषि ने स्वयं प्राण को देखा एवं साक्षात्कार किया है। उन्हें ही ट्टग्वेद के 1/64/31 तथा 10/177/31 मंत्र का दृष्टा माना जाता है।
अपश्यं गोपामनिपद्यमान,
मा च परा च पथिमिश्रवरन्तम्
स सध्रीचीः स विषूचीर्वसान
आवरी वर्ति भुवनेष्वनतः।।
दीर्घतमा ट्टषि के अनुसार प्राण ही सब इन्द्रियों का रक्षक है। यह अविनाशी है तथा भिन्न-भिन्न नाडि़याें के द्वारा आता जाता है। प्राण मुख और नासिका के द्वारा आता जाता है। प्राण ही शरीर में अध्यात्म रूप में वायु के रूप है, परन्तु अधिदैव रूप में सूर्य है।
प्रश्नोपनिषद 1/7 में कहा गया है-
आदित्यो वै ब्रा“म प्राण उदयत्येष “मनं चाक्षुषं प्राणमनुगृ“णते।
अर्थात् यह प्राण आदित्य रूप से मुख्य तथा अवान्तर दिशाओं को व्याप्त कर वर्तमान है और सब भुवनों के मध्य में बारम्बार आकर निवास करता है। वेद भगवान कहते हैं-
अपाड प्राडेति स्वधया गृभीतो{मर्त्यो मर्त्येना सयोनिः।
ता शश्र्वन्ता विषूचीना वियन्ता न्यन्यम चिक्यूर्ण निचिक्युरुयम।।
ट्टग्वेद 1/164/38
अर्थात् यह प्राण इस शरीर में स्वधा-अन्न के द्वारा ही स्थित है। यह मल मूत्र आदि निकालने के लिए अधोभाग में तथा श्वास के लिए उर्ध्वभाग में संचरण किया करता है। प्राण मृत्यु रहित है परन्तु यह मरणशील विपरीत धर्म वाले शरीर के साथ निवास करता है। मृत्यु उपरान्त शरीर नीचे गिरता है तथा प्राण ऊपर जाता है।
हमारे ट्टषि मुनियों ने प्राणायाम के लिए नाडिजय यानि श्वास जय सिद्धांत की खोज की। यम-नियम और आसन इन तीनों के सिद्ध होने पर नाडि़जय साधना की जाती है। इड़ा व पिंगला यानि बांई तथा दायीं नासिका के श्वास पर विजय को नाडिजय कहते हैं।
विश्व में अकेले भारत में ‘शिव स्वरोदय ग्रन्थ’ पाया जाता है। यह स्वर शास्त्र का स्वतंत्र ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में भिन्न-भिन्न कार्यो के लिए भिन्न-भिन्न नाडि़यों का चलना आवश्यक बताया गया है। योग सिद्ध लोग निरंतर अभ्यास कर 12 घंटेे एक ही नाडि़ चलना सिद्ध करते हैं। सामान्यतः इड़ा और पिंगला नासारन्ध्रों से ढाई घड़ी प्रत्येक नाड़ी चलती है। जबकि प्रातःकाल 4 घंटे 48 मिनट आकाश तत्व स्थिर रहता है। इसे संधिकाल कहते हैं। आकाश तत्व व पृथ्वी तत्व के उदय के समय 2-3 मिनट समस्वर रहते हैं, यह सुषुम्ना नाड़ी है।
योग शास्त्र के ग्रंथों में योग के चार भाग बताये गए हैं-1- मंत्र योग 2- लय योग 3- हठ योग 4- राज योग
लय योग तथा हठ योग में नाडि़यों इला, पिंगला तथा सुषम्ना का वर्णन आता है। जिस समय श्वास सुषम्ना नाड़ी में चलती है उसी समय सुषम्ना नाड़ी में कुण्डलिनी प्रवेश करती है। सुषम्ना नाड़ी को काल भक्षक कहा जाता है। सुषम्ना नाड़ी में कुण्डलिनी प्रवेश की चरम स्थिति समाधि कहलाती है। इस अवस्था में शरीर विकार रहित हो जाता है। नख, केश नहीं बढ़ते तथा हृदय की गति स्थिर हो जाती है। इस अवस्था को प्राप्त योगी कालभक्षक कहलाते हैं।
हमारे शास्त्रें में एक दिन और रात को साठ घड़ी में बांटा है। प्रातःकाल सूर्योदय के समय से ढाई घड़ी के हिसाब से बारह बार दायीं तथा बारह बार बायीं नासिका से श्वास चलता है। पवन विजय स्वरोदय शास्त्र में इसका विस्तृत वर्णन करते हुए कहा गया है-
आदौ चद्रः सिते पक्षे,
भास्करस्तु सितेतरे।
प्रतिपत्तो दिनान्याहुस्त्रिणी
त्रीणि क्रमोदये।
अर्थात शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (प्रथम) तिथि से तीन-तीन दिन को बारी से चन्द्र अर्थात बायीं नासिका से तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से तीन-तीन दिन की बारी से सूर्य अर्थात दायीं नासिका से पहले श्वास प्रवाहित होता है। इस प्रकार शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा (नौ दिन) में प्रातःकाल सूर्योदय के समय सबसे पहले बायीं नासिका से तथा चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, दशमी, एकादशी, द्वादशी (छः दिन) में प्रातः काल सूर्योदय के समय सबसे पहले दायीं नासिका से श्वास चलना प्रारंभ होता है। यह क्रम ढाई घड़ी के हिसाब से बाएं से दायें और दायें से बाएं बदलता है। श्वास लेने व छोड़ने की गति को श्वास व प्रश्वास कहते हैं। इसको समझ कर कार्य करने से शरीर स्वस्थ रहता है और मनुष्य दीर्घायु होता है।
सामान्यतः मनुष्य प्रति मिनट 13 से 15 श्वास प्रश्वास लेता है यानि 24 घंटे में 21600 तक। जिस मनुष्य की प्रति श्वास प्रश्वास की गति जीतनी कम होगी उसकी आयु उतनी ही बढ़ेगी। हमारे शास्त्रें में इडा पिंगला यानी बांयी और दायीं श्वास चलते समय किन कार्यो को किया जाए इसका भी वर्णन किया गया है। कहा गया है कि जिस समय इडा नाड़ी अर्थात बायीं श्वास चलता हो उस समय आभूषण धारण करना, यात्र प्रारंभ करना, मंदिर या मकान तालाब, कुआं निर्माण प्रारंभ करना, शांति कर्म, औषधि सेवन करने से लाभ मिलता है। इसी प्रकार पिंगला नाड़ी यानी दायीं नासिका से श्वास चलते समय क्रूट विद्याध्यन अध्यापन, स्त्री संसर्ग, तांत्रिक उपासना, संगीत अभ्यास आदि कार्य प्रारंभ करने चाहिये। सुषम्ना के समय ध्यान योगाभ्यास ही उचित माना गया है। श्वास विज्ञान विश्व में एकमात्र भारत की खोज है तथा आज भी हमारे ट्टषि मुनियों द्वारा इसका प्रयोग किया जाता है। कहा जाता है कि हिमालय में अवस्थित अनेकानेक महात्मा हजारों वर्ष की आयु वाले सिद्ध पुरुष हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि इस श्वास विज्ञान को पोषित प्रचारित किया जाए। राष्ट्र हित में शोध किये जाएं तथा विश्व पटल पर इसका प्रचार प्रसार करके भारत को पुनः विश्व गुरु पद पर स्थापित किया जाए।