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तमाचे की गूंज

कहानी
कुमार लालकिशुन नागफनी

बेटे शादी के बाद शहर जाकर अपने माता-पिता को भूल बैठे तो
मां की मृत्यु पर आए बेटाें के मुंह पर ऐसा तमाचा मारा कि
उन्हें अपनी भूल पर प्रायश्चित करना पड़ा।

जुलाई, 2023
स्वास्थ्य विशेषांक

शिव कुमार और विभावरी पति-पत्नी हैं। दो बेटियां हैं, उनकी, पर एक बेटे की चाहत में मंदिरों में मत्था टेकना इनका दैनिक कार्य हो गया है। कई वर्षों के बीतने के बाद प्रभु की कृपा हुई और जुड़वा बेटे पैदा हुए विभावरी को।
विभा, प्रभु का भी कोई जवाब नहीं। एक की चाहत थी हमें, दो भेज दिये उन्होंने।
प्रभु का किया सब ठीक है। दोनों बच्चे प्रसाद हैं प्रभु के, इनका पालन पोषण कर लेंगे।
वह तो करेंगे ही।
बच्चे पलते रहे, बढ़ते रहे। स्कूल जाने की उम्र होने पर शिवकुमार ने बच्चों का नामांकन गांव की पाठशाला में करवा दिया। वर्ष गुजरते रहे और बच्चे वर्गोन्नत होते रहे। पाठशाला की पढ़ाई पूरी हो जाने पर शिवकुमार ने बच्चों का नामांकन ब्लॉक मुख्यालय के निजी स्कूल में करवाने की ठानी। वह जानता था कि निजी स्कूलों में नामांकन के लिए स्कूल द्वारा आयोजित जांच परीक्षा में बच्चों को अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होना पड़ता है।
शिव कुमार बच्चों को साथ लेकर उस शिक्षक से जा मिलता है जिन्हें इस कार्य में महारत हासिल था।
आपका नाम सुनकर आया हूं। अमुक निजी स्कूल के एडमिशन टेस्ट में मेरे बेटों को सम्मिलित होना है। इन्हें गाइड कर दें तो बड़ी कृपा होगी आपकी।
शिक्षक ने बच्चों से कई प्रश्न पूछे। बच्चों के उत्तर से खुश होकर कहा-बेटे अच्छे हैं आपके। समय कम है, पर आप निश्चित रहें।
अच्छे अंक लाकर बच्चे उत्तीर्ण हो गये। शिवकुमार खुशी से भर गया। मोटी रकम जमा करके उसने बेटों का नामांकन स्कूल में करवा दिया।
विभा, एडमिशन तो हो गया, पर ध्यान रहे निजी स्कूलों का खर्च घर में हाथी पालने जैसा है।
जो भी हो, पर जब ओखली में सिर दिया तो डर कैसा? हम दुगुनी मेहनत करेंगे, मोटा खायेंगे, मोटा पहनेंगे और अपनी आवश्यकताओं में कटौती भी करेंगे, पर स्कूल का खर्च हर हाल में जुटाते रहेंगे।
मैट्रिक बोर्ड की परीक्षा पहली सीढ़ी होती है विद्यार्थियों की। बेटों को छह वर्ष लगेंगे वहां तक पहुंचने में। चुनौती बड़ी है हमारे सामने। हमारे बेटे पढ़ने में तेज हैं, यह बड़ी बात है हमारे लिए। इनका परीक्षाफल हमारा हौसला बढ़ाता रहेगा।
प्रभु की कृपा है हम पर। सब सध जायेगा।
बिल्कुल सही कहती हो तुम।
बेटे इत्मीनान से अपनी पढ़ाई में रम गये। माता-पिता का परिश्रम रंग लाता रहा। स्कूल की वार्षिक परीक्षाओं के सुन्दर परीक्षा फल से माता-पिता उत्साहित होते रहे। और फिर देखते-देखते छह वर्षो का समय गुजर गया। मैट्रिक का परीक्षा फल जब सामने आया तब माता-पिता का मन मयूर खुशी से नाच उठा। जिला की मेघा सूची में सूचीबद्ध होकर स्कूल का नाम रोशन कर दिया दोनों ने।
माता-पिता ने हाथ जोड़कर प्रभु को धन्यवाद कहा और मंदिर मेें धूप दीप जलाकर देवी के चरणों में मिष्टान्न का भोग अर्पित किया।
कालेज की पढ़ाई का खर्च वहन करना और शहर में रखना माता-पिता के सामर्थ्य से सर्वथा बाहर था। बेटों के आगे माता पिता ने अपनी असमर्थता जताई।
बेटों ने कहा पिताश्री, आप चिन्ता न करें। हम शहर में छोटे बड़े बच्चों को ट्यूशन देंगे और उस आय से कालेज की पढ़ाई पूरी करेंगे। अपने ही गांव के कई लड़के यही करते हुए कालेज की पढ़ाई में लगे हुए हैं। आपने हमें यहां तक पहुंचाया, यह बहुत बड़ी बात है पापा। यह एक मिसाल है पापा। समाज को आपका यह काम अनुप्राणित करता रहेगा।
समय गुजरता रहा। देखते दो वर्ष गुजर गये। इंटर की परीक्षा में दोनों प्रथम श्रेणी में उत्तीर्णता प्राप्त करके माता-पिता का आशीर्वाद लेने के लिए घर आये और फिर शहर लौट गये।
पढ़ते-पढ़ते समय गुजरता रहा और वह दिन भी आ गया जब दोनों स्नातक प्रतिष्ठा की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर घर पहुंचे।
बहनें गांव आयीं और भाइयों को गले लगाकर माथा चूम लिये उनके। फिर कहा-इस बार बधाई संदेश से काम नहीं चलता इसलिए हम भागे-भागे आ गये हैं। हमें बहुत गर्व हो रहा है तुम दोनों पर।
गांव के स्कूली सहपाठी भी इन्हें बधाई देने के लिए आते रहे। खुशी से घर आंगन भरता रहा।
संध्या समय सभी एक साथ बैठकर आपस में बातें कर रहे हैं। दुख सुख बतिया रहे हैं।
अचानक बहनें पूछती हैं-भाई, आगे की क्या सोचा है तुमने। जीवन का कोई न कोई उद्देश्य तो होगा ही।
दोनों एक दूसरे को देखते हैं और कहते हैं, एम-ए की पढ़ाई पूरी करके ही हम दम लेना चाहते हैं दीदी।
‘पर हम सहमत नहीं हैं इस पर, हम तो कहेंगे कि पढ़ाई को यहीं विराम देकर नौकरी की तलाश करो। फिर शादी करके घर गृहस्थी संभालो। माता-पिता ने बहुत मेहनत की है तुम दोनों के लिए। अब माता-पिता को आराम चाहिए। इन्हें आराम दो। तुम दोनों मेधावी भी हो और कर्मठ भी। प्राइवेट से परीक्षा देकर कभी भी एम-ए कर ले सकते हो।’
भाइयों को दीदी की बात जंची। आगे की पढ़ाई पर विराम लगाकर नौकरी की तलाश में लग गये दोनों। बहुत अच्छा समय चल रहा था इनका। वर्ष पूरा होते-होते शहर के अलग अलग प्रतिष्ठानों में नौकरी मिल गयी दोनों को।
विवाह योग्य अपनी पुत्रियों के लिए अच्छे कमाऊ लड़कों की तलाश करते लोगों को पता चला तो शादी का प्रस्ताव लेकर शिवकुमार के घर पहुंचने लगे लोग शिवकुमार से बातें करते और अपनी पुत्रियों की तस्वीरें थमाकर कहते घर आकर लड़की देख लेने की कृपा करें।
माता-पिता पुत्रें से कहते कि तुम अब बच्चे तो नहीं हो इसलिए खुद अपनी पसंद की लड़की का चुनाव कर लो और विवाह की मंजूरी दे दो। जब तक कहीं हां नहीं कर दोगे लोगों का आना जाना चलता रहेगा।
मां कहती जीवन में विवाह की बहुत बड़ी भूमिका है बेटा। लड़की देखना, घर परिवार देखना और सोचने समझने में थोडा समय लेकर ही किसी को अपनी स्वीकृति देना। चुक गये अगर तो जीवन तबाह हो जायेगा। होश से काम लेना पछताना नहीं पड़ेगा।
‘ध्यान रहेगा मां आपकी बातों का। खूब ध्यान रखेंगे हम।’ बेटे मां को भरोसा देते।
सितारे जब अनुकूल होते हैं, तब कार्य में देर नहीं लगती। कुछ ही महीनों में बात बन गयी और शादी भी हो गयी दोनों की। पत्नियां शहर से थीं और थोड़ा पढ़ी लिखी भी थी। और दूर के रिश्ते में दोनों में बहन का रिश्ता था। सभी खुश थे।
‘मां, अब हमें विदा करो। आज शाम को ही हम वापस लौट जाना चाहते हैं।’
‘हां बेटा, वापस तो जाना ही है। घर परिवार तो देखना होगा न। विवाह के कार्यक्रम में पूरा सप्ताह बीत गया और समय का पता भी न चला।’
घर से निकलते समय बेटियों ने मां पिता से कहा-अब चिन्ता की कोई बात नहीं है। बेटे नौकरी में हैं। घर परिवार संभाल लेंगे। बहुत परिश्रम किया है आप दोनों ने बेटों के लिए। अब आराम कीजिए।
माता-पिता की आंखें छलकती रहीं। बेटियां उनके गले लगकर अपने आंचल से उनके आंसू पोंछती रही। माता-पिता ने बेटियों के सिर चूमे और उन्हें घर से विदा किये।
समय अपनी गति से बढ़ता रहा और बेटों की शादी के दो वर्ष पूरे हो गये। इधर समय बीता और उधर बहुओं के मिजाज बदले। पतियों से कहने लगी-इस देहात में हम लोगों का मन उबने लगा है। अब हम शहर में रहकर समय बिताना चाहते हैं। पर माता-पिता को शहर रास तो आयेगा नहीं इसलिए इन्हें गांव में ही रहने दिया जाए।
पत्नियों की इच्छा पर पति मुहर लगाता रहा, पत्नियों का मन बढ़ता रहा और वह दिन आ गया। माता-पिता से कहा बेटों ने, गांव से प्रतिदिन सवारी गाड़ी से काम पर जाने में हमें बहुत कठिनाई होती है, इसलिए हमने आफिस के नजदीक ही किराये के मकान ढूंढ लिये हैं। अब हम शहर में रहकर ही अपनी ड्यूटी करेंगे।
पिता ने शांत स्वर में कहा-जैसी मर्जी तुम्हारी हम क्या कहें इस पर।
दूसरे दिन घर से निकलते समय सबने माता-पिता के चरण स्पर्श किये। मां ने उनके सिर पर हाथ रखते हुए कहा भगवान तुम सबको सद्बुद्धि दें।
आप लोग चिन्ता न करें। हमारा आना जाना होता रहेगा। सब तरह का ख्याल रखेंगे हम आपने माता-पिता का।
दोनों नियति के इस खेल को चुपचाप देखते रहे। शिवकुमार के मुंंह से बस इतना ही निकला-विभा, क्या सोचा था और यह क्या हो गया। बेटे बहुओं के रहते इस ढलती उम्र में अब हमें खुद खाना बनाकर खाना पड़ेगा।
पता नहीं हमारी तकदीर में प्रभु ने और क्या लिखा है?
कुछ दिनों तक बेटे घर आते रहे, पर धीरे-धीरे उनका आना जाना कम होने लगा और फिर वह दिन आ गया जब बेटे माता-पिता को भूल गये। बेटे बहू शहर क्या गये, शहर के होकर रह गये सभी।
बेटियां मर्मांहत हुईं भाइयों के आचरण से। माता पिता से कहा-अप्रत्याशित और अमानुषिक हुआ यह सब, चिन्ता न करें आप। हम बेटियां तो हैं न आपकी। शीघ्र आ रहे हैं हम, अपने माता-पिता को अपने साथ शहर ले आने के लिए।
पिता ने उन्हें मना करते हुए खबर भेजी, हमारी प्यारी बेटियां, हमें अपनी बेटियों के घर जाकर रहना स्वीकार नहीं। मायके आओ, पर हमें ले जाने के लिए नहीं आना कभी।
पत्नी से कहा है-तुम्हारे बेटे जोरू का गुलाम हो गये, हम उन्हें भूल ही जायें तो अच्छा होगा।
सही कहते हैं आप।
पर जीवन यापन के लिए हमें तो कुछ करना होगा न।
अपनी इस ढलती उम्र में हम करें तो क्या करें? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आता है।
एक हल्का काम मेरे दिमाग में आ रहा है।
कैसा काम?
रस्सियां बेचेंगे हम गांव के सब्जी बाजार में। बहुत बड़ा बाजार है सब्जी मार्केट हमारे गांव का। सुबह से शाम तक लगा ही रहता है। आस-पास के गांव के लोग कई तरह के काम लेकर प्रतिदिन बाजार आते हैं और घर गृहस्थी के कामों में रस्सियों की जरूरत सबको रहती है। किसी को नायलान की मोटी पतली रस्सियों की जरूरत रहती है तो किसी को खटिया मचिया की बुनाई के लिए नायलान और सबई की पतली रस्सियां चाहिए। यही नहीं भरी बोरियों को सिलने बुनने के लिए पटसन और प्लास्टिक की पतली रस्सियों की जरूरत तो बाजार में सबसे अधिक रहती है। यह काम हम आसानी से कर लेंगे विभा।
सब ठीक है, पर रस्सियां हमारे पास आयेंगी कैसे?
एक रास्ता है इसका भी। बचपन का एक दोस्त बड़ा व्यापारी है पड़ोसी शहर में। अच्छा इंसान है वह। मेरी सुनकर वह मेरी मदद जरूर करेगा। ईश्वर सभी रास्ते एक साथ बंद नहीं करते हैं विभा, यह तो तुम्हें भी पता होगा। और शिवकुमार मित्र के पास पहुंच गया। मित्र की व्यथा कथा सुनकर महाजन मित्र ने कहा-मेरे मित्र मेरी इस दुकान को अपनी ही दुकान समझो तुम। तुम्हारे गांव का सब्जी बाजार बहुत बड़ा है। हजारों लोगों का प्रतिदिन आना जाना होता है वहां। जरूरत के अनुसार रस्सियां ले जाकर इत्मीनान से बेचो। पैसों की चिन्ता भी नहीं करनी है तुम्हें। रस्सियां बेचते जाना और धीरे-धीरे पैसा चुकाते रहना और एक अहम बात सुनो रस्सियां ले जाने के लिए तुम दुबारा मत आना। खबर भेजोगे और हमारा स्टाफ रस्सियां पहुंचा देगा तुम तक।
‘धन्यवाद मित्र, बहुत-बहुत धन्यवाद।’
‘लो, मित्रता में यह धन्यवाद कहां से आ गया भाई।’
और शिवकुमार सब्जी बाजार में रस्सियां बेचने लगा। अपना काम करते हुए बहुत खुश है पति पत्नी। चिन्ता मुक्त हो रहे हैं दोनों। बेटे बहुओं ने इन्हें भुला दिया और इन्होंने भुला दिया उन सबको।
समय गुजरता रहा। देखते-देखते साल गुजर गया। जाड़े की ठंडी रात। एक ही बेड पर कम्बल ओढ़े लेटे हैं दोनों। घंटा बीत गया, पर नींद का दूर दूर तक कोई पता नहीं।
आज रात जगा ही करनी पड़ेगी हमें। पत्नी कहती है।
‘लगता तो ऐसा ही है। आखिर निद्रा देवी आज हमसे रूठ क्यों गयी है यह तो बताओ।’
‘इस पर मैं क्या कहूं आपसे?’
‘कोई कहानी सुनाओ हो सकता है कहानी सुनते-सुनते नींद आ जाये हमें।’
‘आज आप कहानी सुनावें। मैं कल सुनाऊंगी।’
‘फिर आज छोड़ ही दो।’ कोई नहीं। न तुम न मैं।
‘तब इस रात का क्या होगा?’
‘ऐसे ही गप शप करते हैं हम।’
‘तो फिर शुरू कीजिए।’
‘कुछ दिन पूर्व एक कहानी तुम्हें सुनायी थी मैंने। क्या वह कहानी याद है तुम्हें?’
‘उस किसान वाली कहानी की बात कर रहे हैं क्या, जो जाड़े की ठंढी रात में खुले आकाश के नीचे अपने कुम्बे में लेटे-लेटे अपनी फसल की रखवाली कर रहा था।
‘हां-हां, उसी कहानी की बात कर रहा हूं मैं।’
‘उसका फटा कम्बल ठंड से उसे बचा नहीं पा रहा था। ठंड से बचने के लिए बहुत कोशिशें करता रहा वह, पर जब सब बेकार हो गया तो पास की अमराई में जाकर सूखे पत्तों को जमा करके आग जलायी थी उसने। आग की लपटों से जब उसका शरीर गर्म हुआ तब कस्बे में आकर लेट गया था वह।’
वाह! क्या बात है। तुम्हें तो सब याद है।
‘अपने जानते वह जागता रहा, पर धीरे-धीरे वह गहरी नींद में चला गया। सवेरा हो गया, पर नींद नहीं खुली उसकी। देर तक सोया रह गया वह। देर देखकर पत्नी ने आकर यह कहते हुए जगाया कि इस तरह भी कोई सोता है क्या, इधर तुम सोयेे रह गये और उधर जंगली जानवर सारी फसल चर गये, तब कहीं किसान उठ बैठा।’
‘बिल्कुल दुरूस्त। तुम्हारे जेहन में कहानी ज्यों की त्यों विद्यमान है। मुझे तो लगता था कि तुम भूल गयी होगी।
‘कहानी है ही ऐसी जिसे भुलाया नहीं जा सकता है। सुना है मैंने की कहानियां काल्पनिक होती हैं, पर यह कहानी तो काल्पनिक नहीं लगती है मुझे।’
‘कहानी पूरी तरह काल्पनिक नहीं होती है। सच तो यह है कि किसी सच्ची घटना में कल्पना की थोड़ी कूंची घुमायी जाती है कहानी में।
‘यह आप ही जान सकते हैं। मुझे इतनी दूर की बात का कोई पता नहीं है, पर शायद किसान को बेटे नहीं थे। है न?’
‘नहीं थे बेटे। दो ही प्राणी थे वे। और अगर बेटे होते भी तो क्या फर्क पड़ता किसान को। हमारे भी बेटे नहीं होते तो अच्छा होता न। बेटों की चाहत में कितने पापड़ बेले हमने, सब याद है न। न ढंग का खाये और न ढंग का पहने ही।’ दोस्त का सहारा नहीं मिला होता तो बर्फ बारी ही तो हो जाती न जिन्दगी में।’
छोडि़ए इन बातों को जितना याद करेंगे, हमारी पीड़ा और भी घनी होती जायेगी। अपनी बात को दूसरी ओर मोड़ते हुए पत्नी कहती है-आज यह रात इतनी लम्बी क्यों हो रही है?’
‘रात लम्बी नहीं हो रही है। नींद नहीं आ रही है न, इसलिए ऐसा लगता है।’
‘नींद तो आने से रही। रात बीत ही जाती तो अच्छा होता।’
‘हम चाहें या न चाहें, रात अपने समय पर बीत ही जायेगी।’
‘समय कितना हो रहा होगा?’
‘टॉर्च के प्रकाश में दीवाल घड़ी को देखकर शिवकुमार ने बताया अभी तो एक ही बज रहा है।
‘ओह! अभी तक एक ही बजा है। चलिए आंखें बंद करके हम सोने का प्रयास करें।’
‘नहीं। जब हम जग ही रहे हैं तो मेरे मन की एक बात सुन लो।’
‘सुना ही डालिए आप।’
‘हम दोनों जीवन के अंतिम पड़ाव में हैं। कभी भी प्रभु के द्वार से हमारा बुलावा आ सकता है।’
‘बिल्कुल ठीक। ऐसा तो होना ही है।’
‘पर अगर मेरा बुलावा पहले आवे तो मेरी अंतिम क्रिया तुम करना और अगर तुम्हारा बुलावा पहले आवे तो तुम्हारी अंतिम क्रिया मैं करूंगा।
‘पर अगर दोनों का बुलावा एक साथ आ जाये तो? क्योंकि ऐसा भी तो देखा सुना जाता है।’
‘हां, ऐसा होता है, पर मेरा मन कहता है हमारे साथ ऐसा नहीं होगा।’
‘मेरे और आपके कहने से तो कुछ होगा नहीं। होगा तो वही जो प्रभु चाहेंगे। वैसे मेरी आन्तरिक इच्छा है कि प्रभु के दरबार से मेरा बुलावा पहले आ जाये ताकि सुहागन के रूप में मैं इस दुनिया से विदा हो जाऊं।
ईश्वर तुम्हारी इच्छा जरूरी पूरी करेंगे।
‘बेटियों के घर में शेष जीवन बिताना स्वीकार न करके अच्छा ही किया था न मैंने।’
‘पर हमारी मनाही से बेटियां बहुत दुखी हो गयी थीं।’
‘मुझे मालूम है, पर हां कहना शोभा तो नहीं देता न।’
इसी तरह की बातें करते-करते धीरे-धीरे निद्रा देवी की गोद में चले गये दोनों।
रात बीती। पूर्वी क्षितिज पर जब सूर्य देव निकल आये तब कहीं इनकी निद्रा टूटी। जल्दी से उठ बैठे दोनों और धरती को छूकर प्रणाम किया दोनों ने एक साथ। फिर आंगन में खड़े होकर सूर्य देव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और दिनचर्या शुरू हुई इनकी।
समय अपनी गति से अपनी राह चलता रहा। धरती पर कई तरह की शुभ अशुभ घटनाएं घटित होती रही। बंधी-बधाई रुटीन पर शिवकुमार की जिन्दगी की गाड़ी चलती रही।
और वह रात आ गयी। आकाश तारों से जगमगा रहा था। चन्द्रमा की शुभ्र किरणों से धरा नहायी सी लग रही थी। पति-पत्नी दोनों घोर निद्रा में थे। पर विभावरी अचानक सोये से जाग उठी। पति को जगाकर कहा उसने-‘स्वामी, नींद में मैंने देखा कि मैं एक अनजानी ऐसी गुफा में प्रवेश करती जा रही हूं जहां एक दिव्य प्रकाश फैला हुआ है। मेरे आगे पीछे दो व्यक्ति गदा लिये चल रहे हैं। स्वामी, मुझे तो लगता है जैसे प्रभु का बुलावा आ गया है मेरे लिए।
तुमने जैसा सोचा था, शायद वही घटित होने जा रहा है।
स्वामी मेरे सिर पर हाथ रखिये और मुझे विदा कीजिए बहुत अच्छा समय चल रहा है।
न कोई छटपट, न कोई बेचैनी। पहुंचे हुए संत महात्माआें की तरह विभावरी ने आंखें बंद करके दोनों हाथ जोड़ लिये और प्रभु के ध्यान में लीन हो गयी वह। शिवकुमार आंखें गड़ाये अपनी विभा को देखता रहा। थोड़ी ही देर बाद विभावरी के प्राण पखेरू अपनी अनन्त यात्र में निकल गये।
सवेरा होने पर यह खबर गली मुहल्ले में फैल गयी। पड़ोस के स्त्री पुरुष आंगन में जमा होने लगे। भीड़ से कई तरह की आवाजें निकलती रहीं।
‘अच्छा हुआ। बहुत अच्छा अच्छा हुआ। बोलते बतियाते संसार से विदा हो गयी।
‘दो-दो कमाऊ बेटों का क्या फायदा मिला वृद्धा को कुछ भी तो नहीं।’
‘क्या इसी दिन के लिए बेटा-बेटा की रट लगाते रहते हैं हम संसारी?
‘संतान अगर ऐसी हो तो फिर नहीं चाहिए हमें संतान।’
कुछ बुजुर्ग शिवकुमार के साथ बैठकर बातें कर रहे हैं। शिबू दा आपकी बेटियां तो बहुत दूर बसी हैं खबर भेजना तो जरूरी है, पर आज उनका यहां पहुंचना तो बहुत मुश्किल है उनके लिए।
मां ने सप्ताह पूर्व खबर भेजी थी बेटियाें को कि जितना जल्द हो सके मां से मिलने के लिए आ जाओ। हम तो पके फल हैं समय के वृक्ष पर। कभी भी टपक जा सकते हैं। मेरा मन कह रहा है कि हमारी बेटियां बस आ पहुंची।
इधर बातें खत्म हुई और उधर बेटी दामाद रोते-बिलखते पहुंच गये।
लोग चकित रह गयेे उन्हें देखकर।
शिबूदा, यह सब तो योगी, संन्यासी और फकीरों की दुनिया में देखा जाता है, पर तुम तो गृहस्थ हो। फिर तुम्हीं बताओ तुम्हारी गृहस्थी में कैसे हो रहा है यह सब? क्या भाभी जी को दुनिया से विदाई का पूर्वाभास हो गया था? वह जिस तरह दुनिया छोड़ गयी, वह भी तो सवाल बनकर खड़ा है हमारे सामने। कुछ कहो और हमारी जिज्ञासा शांत करो शिबूदा।
यह तो प्रभु जानें और तुम्हारी भाभी जाने। मैं कुछ भी नहीं कह सकता।
बेटियां मां के पार्थिव शरीर से लिपटकर रो रही है और पुकारती हुई कह रही है हम अभागन हैं मां। तुमसे अंतिम मुलाकात भी न हो सकी।
बेटे बहुएं भी रोते बिलखते आ पहुंचते हैं और मां के पार्थिव शरीर की ओर बढ़ते हैं।
‘रूक जाओ। तुम सभी जहां के तहां। तुममें से किसी को हक नहीं है उन्हें छूने का।’ शिबू भाई की कड़कती आवाज से सभी चौंक उठे।
‘बाबूजी आप हमें मना क्यों करते हैं? मां है हमारी और हम—।’
—-कब की मां और कैसी मां तुम्हारी? मेरी पत्नी किसी की मां नहीं और मैं किसी का पिता नहीं।
बाबूजी—–।
खबरदार जो मुझे बाबूजी पुकारा तो। न तो मैं पहचानता हूं तुम सबको और न यहां के लोग ही पहचानते हैं। किसी से भी पूछ कर देखो।
‘नहीं भाई, नहीं। वर्षो नजर नहीं आये हैं आप। पहचान है पर उस पहचान का क्या?’
यह सुनकर बेटे जहां थे। वहीं खड़े रह गये।
‘शिबू भाई, आप जो कह रहे हैं और कर रहे हैं, एकदम सही है, पर अब तो कहेें कि भाभी जी की अग्नि क्रिया कौन करेगा?
‘हम बेटे तो हैं न मां की अग्नि क्रिया करने के लिए।’
‘कौन होते हो तुम मेरी पत्नी की अग्नि क्रिया करने वाले। तुम जैसे नालायकों को अंतिम संस्कार तो क्या, चिता पर लकड़ी देने का भी कोई अधिकार नहीं है।
‘पिता की बात का बेटियों ने समर्थन किया और कहां मां की अग्नि क्रिया हम बेटियां करेंगी।’
‘नहीं बेटा। तुमसे से कोई भी नहीं। पत्नी का कठिन संस्कार मैं करूंगा क्योंकि हम दोनों के बीच यह तय हुआ था कि एक दूसरे का अंतिम संस्कार हम ही करेंगे।’
शिवकुमार की यह बात घर आंगन से निकलकर गली मुहल्ले में फैली और धीरे-धीरे पूरे गांव में फैलती रही। लोग शिवकुमार की सराहना करते हुए कहते शिबू भाई ने अच्छी सजा दी है बेटों को। समाज के कर्तव्य विमुख युवकों को यह सजा सचेत करती रहेगी।
शिव कुमार ने पुत्रियों और महिलाओं से कहा कि पार्थिक शरीर को एक सुहागन की तरह सजाइए और अर्थी को फूल मालाओं से सजाकर एक सुन्दर रूप दीजिए। मेरी पत्नी सुहागन के रूप में इस दुनिया से विदा होना चाहती थी। भगवान ने उनकी इच्छा पूरी कर दी है। उनकी स्वर्गीया आत्मा को सुकून मिलेगा। बहुत सुकून मिलेगा।
शिवकुमार की बातें अभी समाप्त हुई ही थीं कि बिरादरी के अध्यक्ष और सचिव अपने सहयोगियों के साथ आंगन में बैठे शिव कुमार के सामने पहुंचकर कहते हैं-शिबू भाई, आपने बेटों को जो सजा दी है, उसका कोई जवाब नहीं है। गांव में यह चर्चा का िवषय बना हुआ है। पर आपसे एक बात हम कहना चाहते है। बेटों को मां की चिता पर लकड़ी देने से मना मत कीजिए, क्योंकि यह समय लौटकर आने वाला नहीं है। मां तो मां होती है शिबूदा। बेटों का हर अपराध मां क्षमा कर देती है और शायद इसीलिए मां का स्थान ईश्वर से भी ऊपर है।
‘ठीक है। आपकी बात हम कैसे उठा दें।’
पुत्र हाथ जोड़कर कहते हैं-आप सबके सारे फैसले सर आंखों पर, परन्तु हमारी एक विनती स्वीकार करें तो बड़ी कृपा होगी आपकी।
‘मां के श्राद्ध कर्म और श्राद्ध भोज के सारे खर्च की जिम्मेदारी हमें देने की कृपा करें।’
नहीं, यह खर्च तो समाज वहन करेगा क्यों शिबू भाई की आर्थिक स्थिति से समाज अच्छी तरह अवगत है।
बेटे, उदास होकर सिर झुका लिये और एक किनारे खड़े हो गयेे।
अर्थी सज चुकी थी। ‘हरिबोल, राम-नाम सत्य है’ का समवेत स्वर उठा और अर्थी को उठाकर आंगन से निकल पड़े लोग। अर्थी के साथ एक बड़ी भीड़ गाजे बाजे के साथ मुक्तिधाम के लिए चल पड़ी।
विधिवत सभी कार्य संपन्न करके लोग घर लौट गये। चंद दिनों में श्राद्ध कर्म और श्राद्ध भोग के कार्य भी निपट गये।
शिव कुमार की जिन्दगी पटरी पर लौटी जरूर, पर अब वह उमंग न था उसके जीवन में। जीने के लिए। एक मशीन की तरह अपने काम में वह लगा रहा।
चार महीने बीत गये। शिवकुमार के बेटों के निवेदन पर आज दुर्गा क्लब के प्रांगण में जाति बिरादरी की एक सामाजिक बैठक हो रही है।
बेटे विनीत स्वर में समाज से निवेदन करते हुए कह रहे हैं कि अपने जर्जर हो चुके पैतृक मकान के स्थान पर हम एक नया मकान बनाना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि मकान निर्माण की अवधि में हमारे पिताश्री हमारे साथ शहर में रहें और जब मकान बनकर पूरी तरह तैयार हो जाये तो पिताश्री नये मकान में वास करें। ऐसा इसीलिए कि पिताश्री को यहां जो सुकून मिलेगा वह अन्यत्र संभव नहीं है, क्योंकि हमारी मां की यादें यहां के कण-कण में विद्यमान हैं। पिताश्री टूट जायेंगे, पर हमारी बात वे नहीं मानेंगे, इसलिए समाज से हमारा निवेदन है कि पिताश्री को इस बात पर राजी करने की कृपा करें। पिताश्री की सेवा करना हमारा प्रथम कर्तव्य होगा।
शिबू भाई के लड़कों का निवेदन सुनकर समाज के सचिव ने उपस्थित लोगों से राय मांगी।
‘सभी ने एक स्वर में कहा कि इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। शिबू भाई समाज की उपेक्षा नहीं कर सकते वे मानेंगे। समाज की बात जरूर मानेंगे।’
‘आप दोनों की बात यही समाप्त हो गयी या और कुछ कहना है।’ सचिव ने पूछा।
एक छोटा सा निवेदन और है। पिताश्री जब भगवान के लोक में चले जायेंगे तब यह मकान पूर्णतया जाति बिरादरी का हो जायेगा। इस पर न तो हमारा कोई व्यक्तिगत अधिकार रहेगा और न ही हमारी संतानों का।
अरे, वाह भाई वाह! कहते हुए सभी चिल्ला उठे। भाई, आपकी बातें सुन-सुन कर हम हैरानी में डूबे जा रहे हैं। आप हमारी हैरानी दूर करें और हमें यह बता दें कि इतने ऊंचे ख्याल आपके दिमाग में कहां से आये।
‘बिरादरी के हमारे बड़े भाइयों और बुजुर्गों, नींवो की ईंटों को भुलाकर हम हवा में उड़ रहे थे, पर उस दिन जब पिताश्री का झन्नाटेदार तमाचा हमारे गालों पर लगा तो घुम गया सिर और धरती पर आ गिरे हम। नशा उतर गया हमारा। तमाचे की चोट हमारे मन मस्तिक में अनवरत प्रति ध्वनित होती रहती है। भारी अफसोस में हम भीगे से रह रहे हैं। सोचते हैं हम, काश! यह तमाचा हमें पहले मिल गया होता, पर——————। कहते-कहते आंखें छलकने लगती हैं।
वाह भाई? वाह! की आवाजों से सभा कक्ष भर जाता है।
आंखें पोंछते हुए सबको हाथ जोड़कर प्रणाम करके अपनी जगह पर बैठ जाते हैं दोनों।
बैठक के अन्त में समाज के अध्यक्ष ने अपने संक्षिप्त संबोधन में शिवकुमार भाई के दोनों पुत्रें के सुन्दर विचारों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा-शिव कुमार भाई के तमाचे की आवाज सदा गूंजती रहे और इस घटना को हमेशा ताजा बनाये रखे ताकि अपने माता-पिता और बड़े बुजुर्गो की सेवा से हम मुंह न मोड़े। धन्यवाद

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