लेख सीताराम गुप्ता
मार्च, 2023 अंक
नवसंवत विशेषांक
ये हजारों-लाखों मांएं ही हैं जो करोड़ों मांओं पर अत्याचार कर रही हैं। जो अपनी नकारात्मकता व क्षुद्रता के कारण न तो बेटों की गृहस्थी चलने दे रही हैं और न अपनी बेटियों का घर आबाद होने दे रही हैं।
एक हिन्दी फिल्म का अत्यंत चर्चित डायलॉग है और वह ये कि मेरे पास मां है। इससे सिद्ध होता है कि इस संसार में मां से बढ़कर न तो कोई रिश्ता है और न कोई अन्य चीज ही। मां की महिमा अनंत है। मां सर्जक और पालक ही नहीं प्रथम गुरु भी मां ही होती है। मां है तो ममता है, प्यार है। मां से ही सृष्टि का विकास और विस्तार है। मां नहीं तो दुनिया नहीं। मां के इसी महत्व को रेखांकित करते हुए कवियों ने मां की प्रशंसा में कविताएं और गीत लिखे। लेखकों ने कहानियां और उपन्यास रचे। रूसी लेखक माक्सिम गोर्की के उपन्यास मां के केन्द्र में एक क्रांतिकारी मां ही है। पंजाबी कवि प्रोफेसर मोहन सिंह कहते हैं-मां वरगा घण छावां बूटा मैनूं नजर न आए। लै के जिस तों छां उधारी रब्ब ने सुरग बणाए। अर्थात् मां जैसा घनी छांव वाला वृक्ष मुझे कहीं नहीं दिखलाई पड़ता जिससे छाया उधार लेकर ईश्वर ने स्वर्ग की रचना की। इस्लाम में कहा गया है कि मां के कदमों के नीचे ही जन्नत होती है।
मां त्याग, तपस्या और बलिदान की मूर्ति होती है इसमें संदेह नहीं। अपने अंश से अपने शरीर में संतान को उत्पन्न करती है। शिशु को सूखे में सुलाती है चाहे उसे स्वयं गीले में ही क्यों न सोना पड़े। खुद भूखी रहने पर भी किसी तरह से संतान का पोषण करती है। मां से बढ़कर अन्य कोई प्रेरणास्रोत नहीं बच्चे के लिए। उसकी गोदी से बढ़कर कोई सुरक्षित स्थान नहीं उसके लिए। कोई भी बात क्यों न हो सबसे पहले वह बतलाता है अपनी मां को ही। हिन्दी फिल्मों का नायक प्रायः सबसे पहले अपनी मां से ये कहता है कि मां मेरी नौकरी लग गई है। दुख हो, सुख हो, सफलता हो, असफलता हो वह अपने मनोभाव प्रकट करता है तो सबसे पहले मां के सामने। किसी से प्यार हो जाता है तो उसे मां से मिलवाने के लिए बेचैन हो उठता है। अपनी गलती को बताने के लिए अवसर की तलाश में रहता है। हर बात उससे पूछकर करता है। यह है मां और उसकी संतान का अटूट व अन्योन्याश्रित संबंध।
वे कौन सी बातें हैं, कौन से तत्व हैं जो एक मां को महिमामयी व पूजनीय बनाने में सक्षम है? संतान को जन्म देना, उसकी हर हाल में परवरिश करना, विषम परिस्थितियों में उसका मनोबल बनाए रखना, जिंदगी के ऊंच-नीच समझाना, जिंदगी के दोराहों पर उसका उचित मार्गदर्शन करना, उसका पसीना व आंसू पोंछना सब कुछ एक मां द्वारा ही तो किया जाता है। मां शिष्टाचार सिखाती है, उसे सुसंस्कृत बनाती है, इतना सब करती है तभी वह मां है। मां कहलवाने की अधिकारी है। उसका संतान के प्रति त्याग व वात्सल्य उसे महान बना देता है। हर बच्चे की मां प्यारी होती है। वह उसके लिए देवी, दुर्गा सरस्वती और लक्ष्मी सब कुछ है। वह उसके लिए सुरक्षा कवच है, ढाल है। प्रश्न उठता है कि एक व्यक्ति अथवा एक नारी के लिए अपेक्षित सद्गुणों के अभाव में मात्र अपनी संतान के प्रति ममतामयी हो जाने से ही क्या एक मां पूजनीय व प्रशंसनीय हो जाती है? एक आज्ञाकारी मातृभक्त युवक जो हर बात अपनी मां से पूछकर करता है क्या सचमुच वह एक आज्ञाकारी व महान युवक है?
आज के समाज की वास्तविक स्थिति और उसमें मां का रोल भी देखिए। समाज में बहू और बेटी में पक्षपात करना सामान्य सी बात है। हमारे घरों में दान-दहेज के लिए बहुओं को प्रताड़ित करने, उन्हें अपमानित कर घर से निकाल बाहर करने अथवा उन्हें जिंदा आग की भेंट चढ़ाने में मां रूपी पवित्र रिश्ते का सबसे बड़ा रोल होता है। यदि पुत्र अपनी पत्नी की ठीक से देखभाल नहीं करता, उसकी उपेक्षा करता है, उस पर अत्याचार करता है अथवा उस पर हो रहे अत्याचारों का विरोध नहीं करता, उसे तटस्थ रहकर देखता है, उसे मौन स्वीकृति देता है तो ऐसे मेें न केवल पुत्र दोषी है अपितु वह ममतामयी मां भी दोषी है क्योंकि उसकी शिक्षा-दीक्षा व उसके संस्कारों ने ही पुत्र को ऐसा बना दिया है। ऐसी मां अपने पुत्र को कितना ही प्रेम क्यों न करें और पुत्र भी कितना ही मातृभक्त क्यों न हो ऐसे में न तो मां ही महत्व और प्रशंसा की अधिकारी है और न पुत्र ही और न उनका ये तथाकथित पवित्र रिश्ता ही।
पुत्र यदि गलती करता है तो मां तटस्थ रहकर उसे मौन स्वीकृति प्रदान कर देती है। पुत्र अपराध करता है तो उसके बचाव में कूद पड़ती है। मेरा बेटा कभी गलत हो ही नहीं सकता व सारी दुनिया मेरे बेटे के पीछे हाथ धोकर पड़ी है उसकी ये रट कभी समाप्त नहीं होती। देश-दुनिया में जितने भी चोर, उचक्के, ठग, डाकू, कातिल, बलात्कारी अथवा अपराधी व असामाजिक तत्व है उन सबकी एक मां जरूर होती है। इनमें से अधिकांश मांएं कभी भी अपने बेटों को अपराधी अथवा असामाजिक नहीं मानती जबकि वास्तविकता ये है कि इन सबको अपराधी व असामाजिक बनाने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में कहीं न कहीं इन मांओं का ही हाथ होता है। उनका पाशविक प्रेम और तटस्थता उनके पुत्रें को गलत दिशा दे देता है। मां को भी कटघरे में खड़ा किया जाना जरूरी है। कहीं मां की ममता व उसके प्रति आज्ञाकारिता अथवा अंधभक्ति के कारण हम गलत मार्ग पर तो नहीं चल रहे? किसी का अहित तो नहीं कर रहे?
ये हजारों-लाखों मांएं ही हैं जो करोड़ों मांओं पर अत्याचार कर रही हैं। जो अपनी नकारात्मकता व क्षुद्रता के कारण न तो बेटों की गृहस्थी ही सुचारू रूप से चलने दे रही हैं और न अपनी बेटियों का घर ही पूरी तरह से आबाद होने दे रही हैं। प्रायः कहते हैं कि जैसी भी हो मां तो मां होती है। हम जननी के रूप में मां के अस्तित्व व महत्व को स्वीकार कर उसका यथोचित स्वागत सत्कार करें, उसकी आज्ञा का पालन व उसकी सेवा शुश्रूषा करें लेकिन साथ ही उसकी घातक नकारात्मकता के आगे किसी भी सूरत में घुटने न टेकें। मां को भी सही रास्ता दिखलाने व अपनाने के लिए मनाएं, मजबूर करें। रिश्ते वही कहलाते हैं जो समाज में परस्पर प्रेम व सौहार्द को बढ़ाने में सहायक होते हैं अन्यथा उनको रिश्ते नहीं आपराधिक सांठ-गांठ कहना अधिक उपयुक्त होगा। ऐसी मांएं स्तुुत्य हैं जो अपनी संतानों को अपनी जीवन साथी का सम्मान व उससे सहयोग करना सिखाती हैं और जो अपनी पुत्रवधुओं को बेटियों से बढ़कर मानती हैं तथा उनको भरपूर प्यार व सहयोग देती हैं। इन गुणों के अभाव में एक स्त्री मां जैसे पवित्र व गरिमापूर्ण रिश्ते का ठीक प्रकार से निर्वहन कर ही नहीं सकती।