यह कहानी हर इन्सान को सोचने
को मजबूर करती है कि उसकी नौकरी/करोबार
देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी को पूरा कर रहे हैं।
सितम्बर, 2023
राष्ट्रभाषा विशेषांक
कहानी
सावित्री रानी
रिया दिल्ली और हरियाणा के टिकरी बॉर्डर पर धरने पर बैठे किसानों को एक प्रसिद्ध टीवी चैनल की ओर से कवर करने पहुंची। सत्ताईस साल की रिया को यह काम करते हुए करीब चार साल हो चुके थे और हर तरह की राजनीतिक गतिविधियों को कवर करने में वह माहिर हो चुकी थी। लोकेशन पर पहुंचते ही उसे यह तय करने में ज्यादा वक्त नहीं लगता था कि भीड़ में बैठे लोगों में से माइक किसके सामने करना है और कौन सा चेहरा उसके चैनल के लिए टी आर पी बटोर पाएगा।
जनवरी का महीना था और रिया की अनुभवी आंखें सर्दी में ठिठुरती किसानों की भीड़ पर तैर रही थी। उसने एक गहरी नजर वहां बैठे हर चेहरे पर डाली। कुछ चुलबुले जवान चेहरे, तो कुछ अधेड़ और अनुभव से पके चेहरे, कुछ मौसम की मार से अपने-अपने कंबलों में दुबके, तफरीह मनाते से चेहरे। लेकिन इन चेहरों से उसके चैनल को क्या नया मिलेगा? यही सोचते हुए उसकी नजर कुछ ऐसा ढूंढने लगी जो अब तक बाकी चैनलों से छुपा रहा हो, कुछ नया, कुछ अलग, जिस पर किसी चैनल की नजर न पड़ी हो, पर वोक्या है, या कौन है?
इसी क्या और क्यूं की तलाश में भटकती रिया की नजर, एक बुुजुर्ग महिला पर जा टिकी। पका हुआ गेंहुआं रंग, एक सूती धोती में लिपटी, मेहनतकश दुबली काया और वक्त की मार के निशानों से भरी परेशानी, उसकी उम्र का अंदाजा लगाना मुश्किल था क्योंकि गरीबी जब अपने पंख फैलाती है तो उनके नीचे सबसे पहले उम्र का आंकड़ा ही दबता है।
तो बस उस महिला की ओर बढ़ते हुए रिया ने अपना कमरा मैन राकेश को इशारा किया और माइक उस महिला के मुंह के सामने करते हुए पहला सवाल पूछा-‘अम्मा जी आपको यहां कैसा लग रहा है?’ अम्मा जी ने उसकी तरफ कुछ ऐसी लानत मलानात भरी नजरों से देखा कि उसे खुद पर ही ग्लानि हो आई और वह सवाल बदलकर बोली, ‘म—-मेरा मतलब अम्मा जी, आप यहां कब से हैं?’
‘अरे बेटा, हमें तो घनेई दिन है गए’-महिला ने मन ही मन गिनती सी करते हुए कहा।
‘फिर भी कितने दिन हुए होंगे?’ रिया ने माइक उसके और करीब करते हुए पूछा।
‘बस यों देख ले बेटा के हम गर्मीन में आए हैं। जेठ का महीना था, अर अब देख ले। जाडे़ आ गए अब तू ही हिसाब लगा ले कितने दिन है गए।’
‘पर अम्मा जी अब आप यहां क्यों बैठी हैं? अब तो सरकार ने कानून भी वापस ले लिया।
‘देख बेटा, मैं तेरी तरह पढ़ी लिखी तो हूं न, इस करके ज्यादा तो न जानू के सरकार ने कौन से कानून में के लिखा और के वापस लिया। पर जो बात म्हारी समझ में आवे वह यों के किसान ने अपनी मेहनत का फल मिलेगा, तो वह खेती करेगा, यहां धरना क्यूं धरेगा।’
‘हां, ये तो है’-उसके जवाब से लाजवाब होती रिया के मुंह से इतना ही निकला।
‘अर वही किसान, अगर खून पसीना बहा के भी, पेड़ पै लटकन को मजबूर सै, तो फिर यो किसका दोस है? कोई अपनी खुसी से तो पेड़ पै न लटके न-‘अत्ता ने सीधे हाथ से गले में फांसी के फंदे का इशारा करते हुए कहा।
‘जी’ रिया ने झुकी नजरों से इतना ही कहा।
‘तो बस बेटा मनै तो योही लागे है के, कहीं किसानों की गरीबी और भुखमरी उनहै उनकी जमीन से तोड़कै, इन सहरों की भीड़ मैं खो ना दे, अपनी जमीनों पै इज्जत से बने रहने का हक मांगण खात्तरही हम यहां बैठे हैं-‘अम्मा के अपने दुखते हुए घुटने को सहलाते हुए कहा।
‘पर अम्मा जी आपकी जमीन आपसे कौन छीन रहा है?’ रिया का सीधा सवाल आया।
‘गरीबी, बेटा गरीबी ये गरीबी छीन री है, म्हारा मान सम्मान, म्हारी जमीन, म्हारा सब कुछ और अब तो यो मजबूरी हर किसान की तकदीर बन गई सै। सारे साल खून पसीना बहाकैं भी अगर देस का अन्नदाता भूखा रहेगा, तो तू ही बता, वह कित जावेगा? कौन सुनेगा म्हारी पुकार? कौन समझेगा म्हारा दरद। बस बेटा अपनी यो ही पुकार अपनी बहरी सरकार नै सुनाण खात्तर ही हम यहां बैठे हैं।’
‘पर अम्मा जी आपकी उम्र और ये कड़कती सर्दी कैसे बर्दाश्त कर पायेंगी आप?’ रिया की आंखों में अचानक चिंता की एक्टिंग उतर आई।
‘देख बेटा, जो म्हारी पहचाण बचाते-बचाते म्हारी जान भी चली गई न, तो भी परवाह कोनी जमीन बचणी चाइहै, वह म्हारी जी, जान, मां सब कुछ सै।’
‘जी बिल्कुल’, रिया फिर एक बार निरुत्तर थी।
‘और फिर म्हारी हालत तो ऐसी सै के जैसे कोई टपकती छत ने ठीक कारण को छत पै चढ़े और नीचे सुरक्सा को खड़ा सिपाही ही घर में सैंध लगा देवै। असहायता का आक्रोश अम्मा की आंखों से टपक रहा था।
‘जी’ ‘रिया की माइक के सामने गूंजने वाली बुलंद आवाज आज खुद उसे भी सुनाई नहीं दे रही थी।’
‘तो बेटा अब अपणा मान सम्मान, तो बचाणा ही है। दुश्मन तो घर पै ही चढ़ आए मैं। अब तो चाहे जाण ही क्यूं न चली जाए।’
यह शब्द बोलते-बोलते पैंसठ सत्तर साल की राजवती जैसे खुद ही चौंक पड़ी। अपने ही शब्द उसे कुछ सुने-सुने से लगे। जैसे ये उसके अपने शब्द नहीं है। जैसे वह किसी और के शब्द दोहरा रही हो।
अपने मुंह से निकले शब्दों की थाह पाती राजवती पचास साल पहले की अपनी उस दुनिया में पहुंच गई जब वह खुद एक अठठारह साल की अल्हड़ सी नवयुवती थी और नई-नई ब्याहकर अपनी ससुराल आई थी। सास-ससुर, ननद देवर से परिपूर्ण परिवार घर और इस भरे पूरे घर का बड़ा बेटा, उसका पति राजवीर।
पचास बीघे की खेती थी उसकी ससुराल में, ससुर और देवर दोनों खेती संभालते और राजवीर फौज में काम करता। अच्छा खाता-पीता परिवार था उनका। जब राजवती ने शादी के कुछ ही दिनों बाद राजवीर को वापस जाने की तैयारी करते देखा तो वह रूंआसी होकर बोली।
‘क्यूं जा रहे हो जी? म्हारा मन क्यूं कर लागेगा थारे बगैर?’
‘अरी बावड़ी, मन तो म्हारा भी न लागे, पर नौकरी तो करनी पड़ेगी न?’
‘पर नौकरी क्यूं करनी पड़ेगी जी? म्हारी इतनी जमीन से ससुर जी देवरजी सभी तो किसानों करें सै, फिर तमनै क्यूं जाणा सै इतनी दूर?’ राजवती पैर पटककर, बच्चों सी जिद करने लगी।
‘अरी बावड़ी, तू न जानै, पर म्हारे खानदान की यो हे रीत सै, के घर का बड़ा बेटा फौज मैं जावे है–राजवीर ने अपनी नई नवेली दुल्हन को प्यार से समझाते हुए कहा।
‘पर क्यूं?-राजवती ने झुंझलाकर पूछा।
‘अरी भागवान, अगर सब ही घर में बैठे रहेंगे तो फेर देश की रक्सा बाहर के दुश्मन से कौण करेगा?’ राजवीर ने बड़े प्यार से उसे अपने पास बिठाते हुए समझाया।
‘मैं समझी न, के मतलब सै इस बात का?’ भोली-भाली राजवती ने अपनी बड़ी-बड़ी आंखें राजवीर के चेहरे पर जमाते हुए पूछा।
‘मतलब योम्हारी भोली रज्जो, के अपनी जमीन ने दुश्मनों से बचाने खात्तर, अपने वजूद ने कायम और बुलंद रखने खात्तर, किसी नै तो जाना पड़ेगा न?’ राजवीर ने अपनी नई नवेली दुल्हन को समझाने की एक और कोशिश की।
‘तो?’ राजवती सिर खुजलाते हुए बोली।
‘तो यो, के बापू और भाई यहां घर संभालते हैं और मैं वहां अपनी धरती की दुश्मनों से रक्सा करके इस घर नै मजबूत बुनियाद देता हूं।’
ये बात उस दिन राजवती को बड़ी जटिल और उलझी हुई सी लगी थी। पूरी तरह समझ भी नहीं पाई थी।
लेकिन धीरे-धीरे जब उसकी जमीन उसके हाथों से निकलने लगी, तब ये बात कुछ-कुछ उसकी समझ में आने लगी थी। पचास बीघे जमीन कट-कटाकर बीस बीघे भी नहीं बची थी।
एक ओर किसान की गाढ़ी मेहनत के फल की घटती हुई मिठास तो दूसरी ओर बीज, खाद और डीजल आदि के बढ़ते भाव उनकी फसल कबे हर साल पहले से कम मिलते दाम और खेती पर होने वाले निरंतर बढ़ते खर्चो से ताल-मेल बिठाने में हर साल उनकी जमीन का एक टुकड़ा उनके हाथों से निकल जाता। ये ताल-मेल ही तो दुश्मन था जो उनकी जमीन को धीरे-धीरे लील रहा था और उसके फैलते जबड़े अब उसके घर तक बढ़ आए थे।
उसे एक बार फिर वैसा ही महसूस हो रहा था जैसा कारगिल युद्ध के समय महसूस हुआ था। जब उसके पति राजवीर की छुट्टियां अचानक रद्द कर दी गई थी। राजवती ने इसका कारण पूछा था तो राजवीर ने बताया था-
‘ये साले दुश्मन तो घर पै ही चढ़ आए सै अब तो इन्हें सबक सीखाणा ही पड़ेगा।’
फिर तो, एक बार जो जंग शुरू हुई तो सारे परिवार के क्या, सारे गांव के भी दिन-रात, पल छिन टीवी के सामने ही बीतने लगे। एक दिन वह खबर भी आई, जिसे मनहूस खबर कहे या खुशखबर, वह आज तक नहीं समझ पाई थीएक ओर उसके पति को वीरगति प्राप्त हुई और दूसरी ओर उसी दिन कारगिल पर तिरंगा फहराया गया।
उस दिन राजवती को अपने पति की बात पूरी तरह समझ में आई थी। सुरक्षित सीमाओं के अंदर ही सुदृढ़ देश पनप सकता है। उसके पति ने अपना फर्ज बखूबी निभाया और देश की सीमाओं की रक्षा करते हुए अपनी जान न्यौछावर कर दी, इस बात पर आज भी राजवती को नाज था।
अतीत के गलियारों में घूमती राजवती को रिपोर्टेर रिया ने चेताया और पूछा।
‘अम्मा जी आप कहां खो गई?’
‘कहीं न बेटा,’ ‘हां के कह री थी तू?’
‘मैं पूछ रही थी कि कानून तो वापस ले लिया गया है फिर आप वापस अपने घर क्यूं नहीं चल जाती?’
‘हां बेटा कानून तो वापस ले लिया, पर अभी अपनी जमीन और घर नै बचाणा बाकी सै’
‘क्या मतलब?’
मतलब यो के, जब सवाल देस की जमीन का था तो म्हारे पति ने जाण दे दी पर जमीन न छोड़ी।’ राजवती गर्व से अपना सीना तान कर बोली।
‘हूं’-खुद ही खुद से नजरें न मिलाती रिया के पास न कुछ कहने को था न पूछने को राजवती ने आगे कहा।
‘और म्हारे पति ने कहा था, के घर की जिम्मेदारी म्हारी से’
‘तो?’
‘तो मैं भी उसी की लुगाई सूं, अपने हाथा सो अपनी जमीन, अपना मान न जाणे दूंगी, जान का के है, वह तो आज न तो कल जाणी ही सै।’
तभी अम्मा का फोन बजा और अम्मा फोन उठाकर बोली।
‘हां बेटा, कैसा सै तू? और घर में सब कैसे सै?’ फोन अम्मा के बेटे का था।
‘यहां तो सब ठीक हैं मां पर तेरी बहुत चिंता हो रही है। मुझे तेरी जगह वहां होना चाहिए था। अगर तेरी बहू बीमार न होती और फसल की कटाई सिर पर न होती तो मैं तुझे कभी न जाने देता। पर अब बस मां, अब तू वापस आजा मैं बस कल तुझे लेने आ रहा हूं हमारी समस्या का समाधान मैं मां की कीमत पर नहीं कर सकता, बच्चे भी तुझे बहुत याद कर रहे हैं’-उसके बेटे की चिंता जैसे फोन में से छलकी पड़ रही थी।
‘हां बेटा, बच्चे तो याद करें ही हैं’-राजवती जैसे कहीं गहरे से बोली।
‘पर जो मैं अपनी पहचान, अपनी जमीन ने बचाते हुए मर गई न, तो वह मनै सर उठकै याद करेंगे और मैं भी सान सै मर सकूँगी पर जो मैं यूं ही खाली हाथ वापस आ गई न, तो अपने आप से ही नजर न मिला सकूँगी। तो बेटा मनै लेने न आइयों-फिर ऊपर की ओर देखकर जैसे किसी से मिलन की आस लिए बोली।
‘फिर मन्नै तेरे बापू का बताया काम पूरा करके ही जाना सै। न तो मैं उसके सामने सिर न उठा सकूँगी।’
कुछ महीनों बाद किसानों ने सरकार का आश्वासन पाकर अपने घरों का रूख किया, आश्वासन पूरा न होने की दशा में फिर से धरना धरने का संकल्प लेकर वे लौट गए, लेकिन रिया की आंखों में उस बुजुर्ग महिला का चेहरा और कानों में उसकी बातें अभी भी गूंज रही थीं।
क्या वह अम्मा खुशी से घर लौटी होगी? सर पर कफन बांधकर निकलने वालों के लिए एक आश्वासन कितने मायने रखता है? और कितने दिन वह उन्हें बहला पाएगा।
रिया इन्हीं विचारों में खोई थी कि तभी उसके फोन पर कोई मैसीज आया। उसने देखा कि वह एक वीडियो क्लिप थी जो उसके एक सहकर्मी ने भेजी थी। क्लिप में उसी अम्मा जी को देखकर रिया हैरान रह गई। अम्मा जी कह रही थी-‘ये आश्वासन का झुनझूना तो हमने पहले भी बजाया सै, तो एक बार और सही, पर जो म्हारी बात पूरी न हुई, तो हम फेर आवेंगे, वह के कहवै है के पिच्चर अभी बाकी है।
लेकिन अम्मा जी का झुकता शरीर और टूटती साँस कुछ और ही कहानी कह रही थी। जीवन की साँझ और कितने दिन इस पिच्चर को बाकी रख पायेगी। क्या वे आँखें मँूदने से पहले वह सवेरा देख पायेंगी जिसका अरमान उनकी आँखों में बसा था।
अम्मा जी इस दृढ़ संकल्प के सामने रिया को अपना आप कहीं बौना सा लगा।
अम्मा की बातें सुनकर रिया की आँख शर्म से झुक गई। आज तक अपनी जिस शिक्षा पर उसे नाज था, जिसकी वजह से वह सिर उठाकर चलती थी, वह एक अनपढ़ महिला के सामने मुंह के बल पड़ी थी।
क्या दे रही है उसकी डिग्री, इस समाज को, मानवता को और क्या दे जाएगी वह खुद इस संसार को? क्या उसकी वफादारी की दिशा और दशा सही है? अनेकों सवालों से घिरी रिया अपने को कटघरे में खड़ा महसूस कर रही थी। सारी उम्र दूसरों से सवाल पूछती रिया के पास आज अपने ही सवालों का कोई जवाब नहीं था।
आखिर वह अपना काम जिम्मेदारी और समाज के प्रति वफादारी से करने के लिए किस आश्वासन का इंतजार कर रही है? स्वतंत्र प्रेस ही समाज के हित में काम कर सकती है। टी आर पी की गुलामी करते चैनल भला समाज की क्या और कैसे सेवा कर पायेंगे। भरी हुई जेबों के गुलाम, भला गरीबों के गांव में फटी बिवाई का दर्द क्या समझेंगे।