यह पानी, पानी ही नहीं अमृत है।
काश! हमने समय रहते जल संरक्षण के समुचित
उपाय किये होते तो हमें बाढ़ की विभीषिकाओं से बहुत
कुछ मुक्ति मिल गयी होती।
सितम्बर, 2023
राष्ट्रभाषा विशेषांक
लेख
डॉ. रामशंकर भारती
सृष्टि का विकास जल की बूँदों से हुआ है। जल इस सृष्टि का आदितत्व है। प्राचीन ग्रंथ ट्टग्वेद में जल को माँ के रूप में निरूपित किया गया है-आपः मातरम् कहने के पीछे यही भाव है। वस्तुतः नदियाँ जल माताएँ और जल देवियाँ हैं। रक्षतिः रक्षितः, नद्य हन्ति हन्तः। अर्थात् नदी की रक्षा होगी तो वह भी रक्षा करेगी। नदी का जल स्वच्छ होगा और वह सतत प्रवाहित होगी तो प्राणदायिनी बनकर प्रकृति के समस्त चराचर जीवों का पोषण एवं पालन करेगी। अगर नदी मर गई तो चराचर जगत भी मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा और संसार में मानव सभ्यता नष्ट हो जाएगी।
भारतीय संस्कृति में वर्षा ट्टतु अत्यंत आहलादित करने वाली ट्टतु है। यह जलवर्णा भी है और सुवर्णा भी। यह सुखदा पावसी ट्टतु चराचर को भिगोकर उसके हृदय की तपन को बुझाती है। उसके अंतःकरण में आद्रता की संवेदनाआें को जन्म देकर विस्तार देने का दायित्व भी इसी वर्षा ट्टतु पर ही है। माटी पर बारिश की कुछ बूंदों के गिरते ही जो सौंधी सौंधी सुगंध फूट पड़ती है, उसे दुनिया का कोई भी वैज्ञानिक नहीं बना सकता। सच में माटी जैसा कोई रूपवान नहीं हो सकता। माटी की हर ट्टतु में हर छटा मनमोहक ही होती है। फिर बारिश का सान्निध्य पाकर यह माटी मक्खन हो जाती है।
वर्षा जहां हमारे जीवन में उल्लास भरती है वहीं जमीन के अंदर पहुंचकर भूमिगत जल का विशाल भंडारण भी करती है। वह हमेंं ही नहीं प्रकृति को भी नया करती है। नूतन रूप में उपस्थित करती है। समस्त वनस्पतियाँ और जैविक प्रजातियाँ पानी से ही अपना अस्तित्व प्राप्त करती रहती हैं।
प्राचीन काल से ही नदियाँ माँ की तरह हमारा भरण-पोषण करती आ रही हैं। नदियों की वजह से सभ्यताएँ पनपती है, बस्तियां बसती हैं और कहानियाँ बनती हैं। ये नदियों का कल-कल निनाद करता हुआ जल ही है जो मनुष्य और धरती की प्यास बुझाता है। इसके अलावा, हम जब भी समस्याओं से उलझे होते हैं तो इन नदी रूपी माताओं के पास जाकर ही सुकून और शांति की तलाश करते हैं। नदियाँ सकारात्मकता में वृद्धि करती हैं, हमारे ट्टषि-मुनि नदियों के किनारे एकांत में बैठकर सालों तक तपस्या करते थे।
आज भी हम कई उत्सव और त्यौहार अपने विशाल हृदय में सबको समेटने वाली, सभी को अपनी धन संपदा का समान रूप से वितरण करने वाली जीवनदायिनी नदियों के साथ मनाते हैं। हिन्दू धर्म में तो मनुष्य के जीवन की अंतिम यात्र भी इनकी गोद में खत्म होती है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि निःस्वार्थ भाव से मानव जाति को अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाली इन नदियों को बदले में हम प्लास्टिक कचरा और गंदगी दे रहे हैं। शायद ईश्वर के इस अनमोल खजाने को सहेजने के लिए हम गंभीर इसलिए नहीं हैं क्योंकि हमें इसकी महत्ता का अंदाजा नहीं है। जिस दिन हम पूरी तरह से इनके महत्व को समझ जाएंगे उस दिन खुद से नदियों को स्वच्छ और संरक्षित रखना शुरू कर देंगे।
आज अनेक नदियाँ सूखकर अस्तित्व विहीन हो गयी हैं। हमारे देश की वैदिक नदी सरस्वती जो कभी सतत प्रवाहमान थी। अब विलुप्तप्राय है। आज अनेक नदियाँ समाप्त होती जा रही हैं। हमारे बुंदेलखण्ड की वेतवा, पहूज, धसान और यमुना नदियाँ भी मरणासन्न हैं। देश की अन्य नदियों की स्थिति भी चिंताजनक है। यदि नदियों के संरक्षण के गंभीर और ठोस उपाय नहीं हुए तो यह नदियाँ भी एक दिन परी कथाओं की तरह दोहरायी जाएँगी।
मध्य प्रदेश से चलकर बहने वाली प्रसिद्ध ऐतिहासिक नदी वेतवा है, आज पथराई जा रही है। यह नदी मध्य प्रदेश राज्य की एक मुख्य नदी है। जिसका प्राचीन नाम वेत्रवती था। यह मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश राज्य में बहने वाली वेतवा नदी यमुना नदी की सहायक नदी है। जो मध्यप्रदेश के भोपाल, गंजबासौदा, विदिशा, ओरछा जैसे जिलों से बहते हुए उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश की सीमा में बहती है और उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले के पास यमुना नदी से मिल जाती है।
बेतवा नदी मध्यप्रदेश में रायसेन जिले के कुम्हारागांव से निकलती है। इसके उद्गम से लेकर यमुना के संगम तक की कुल लंबाई 590 कि-मी- (370 मील) है, जिसमें से 232 कि-मी- (144 मील) मध्यप्रदेश में और 358 कि-मी- (222 मील) उत्तरप्रदेश में है। बेतवा नदी की मुख्य सहायक नदियाँ धसान और जामनी नदियाँ हैं।
बेतवा नदी की बात महाभारत में चर्मणवती नदी के साथ की गयी है, जिसे अब चंबल नदी के नाम से जाना जाता है। यह दोनों यमुना नदी की सहायक नदियाँ हैं। यह नदी मध्यप्रदेश की पूजनीय नदी हैं। इसके किनारे अनेक धार्मिक और तीर्थ स्थल मौजूद हैं। बुंदेलखंड की अयोध्या कहे जाने वाली ऐतिहासिक ओरछा नगरी इसी नदी के किनारे बसी है। राजाराम की नगरी ओरछा अपनी ऐतिहासिकता, अपनी वास्तुकला और आध्यात्मिकता के लिए प्रसिद्ध है। यह शहर बेतवा नदी से घिरा हुआ है। बेतवा नदी पर बहुत सारे बांध बने हुए हैं। इन बांधों में प्रमुख बांध है-राजघाट बांध, माताटीला बांध, सुकमा दुकमा बांध, पारीक्षा बांध, धुरवारा बांध। यह बांध बहुत प्रसिद्ध है। यह बांध मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा पर बने हुए हैं। यह बांध बहुत सुंदर है और बरसात के समय में यह पर्यटन का मुख्य आकर्षण होते हैं।
आज देश के अधिकांश हिस्से बाढ़ से प्रभावित हैं। आदमी नर से नारायण बना हुआ है। घर-मकान, दुकान, सामान, पशुधन सब बाढ़ बहा ले जा रही है। अनेक जानें भी जा रही हैं। आज जो पानी बाढ़ के रूप में बर्बाद हो रहा है। यह पानी, पानी ही नहीं अमृत है। काश! हमने समय रहते जल संरक्षण के समुचित उपाय किये होते तो हमें बाढ़ की विभीषिकाओं से बहुत कुछ मुक्ति मिल गयी होती। जंगल, जमीन की चिंता की होती तो पर्यावरण संतुलन भी नहीं बिगड़ता। प्राकृतिक संसाधनों से छेड़छाड़ का ही दुष्प्रभाव है कि आज मौसम बेईमान हो गया है। चारों ओर हाहाकार और चीत्कार है।
किसान कभी सूखे की मार से सूखकर ठूंठ हो जाता है, तो कभी अतिवृष्टि की विभीषिका बाढ़ में डूब जाता है। तो कभी ओलावृष्टि उसे तबाह कर देती है।
आज की सभ्यता नदियों, तालाबों और बावड़ियां को निगल गई है। जो नदियाँ बची हैं उनका पानी प्रदूषित है। जब विकास नहीं हुआ था तब हमारे पुरखे नदियों के किनारे रहते थे। नदी ही उनके जीवन की देवी थी, जल उनका देवता था। वही आश्रयदात्री थी। ट्टषियों ने नदियों के तट पर वेद, उपनिषद, ट्टचाओं तथा रामायण, महाभारत जैसे जगसिरमौर ग्रंथों की आहलादिनी सर्जना की। पुरखों ने नदियों के किनारे लोक साहित्य रचा, संगीत सिरजा। प्रेम के लोकमंगलकारी महाख्यानों को जन्म दिया और एक जीवंत समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर हमको दे गए।
किंतु हम बड़े बेपरवाह निकले। हम न अपने तालाबों को बचा पाए न कुँओं को सुरक्षित रख पाए और न ही नदियों की शुद्धता कायम रख पाए। हमने जल संरक्षण के क्षेत्र में कुछ नहीं किया और जो किया वह बहुत खतरनाक है। हमने नदियों को अपने मैल से मलिन कर दिया, अपने फैलों से अपवित्र कर दिया। उन्हें विषैली बना डाला। कुँओं को कूड़ाघर बना दिया, तालाबों को पाट डाला। स्थानीय नदियों को मार डाला। गांवों की सदानीरा नदियाँ पथरा गयी हैं। पानी के प्राकृतिक स्त्रेत सुखा डाले हैं—-।
आज अनेक नदियाँ सूखकर अस्तित्व विहीन हो गयीं हैं। हमारे देश की वैदिक नदी सरस्वती जो कभी सतत प्रवाहमान थी। अब विलुप्तप्राय है। आज अनेक नदियाँ समाप्त होती जा रही हैं। देश की अन्य नदियों की स्थिति भी चिंताजनक हैं। भूविज्ञानी बताते हैं कि सागरों और महासागरों में पृथ्वी का 96-5 प्रतिशत पानी है। इसमें 3-5 प्रतिशत जल ही ऐसा है जो शुद्ध है। जल संसाधनों के भीषण दोहन के कारण यह जल धीरे-धीरे समाप्ति की कगार पर है। एक दिन वह आएगा जब हमें पानी के लिए तरसना पड़ेगा। भटकना पड़ेगा। शायद युद्ध की विभीषिका का सामना न करना पड़े।