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जब युद्धिष्ठिर राज्य से विरक्त हो गए

लेख रघुनन्दन प्रसाद शर्मा

भीष्म ने उनकी अशान्ति दूर करने शान्ति पर्व के
14 हजार श्लोक उपदेश में दिए। परन्तु सब व्यर्थ।
अन्त में एक कहानी सुनाई।

मार्च, 2023
नवसंवत विशेषांक

कथाओं और कहानियों का मानव जीवन के साथ अनादि काल से ही बहुत निकट का संबंध रहा है। लोकोत्तर पात्रें के माध्यम से घटना प्रधान चित्रणों से युक्त कथाओं द्वारा मानव मन को मनोरंजन प्रदान करने के साथ-साथ जीवन-पथ को उन्नत, प्रशस्त और परिष्कृत बनाने के लिए प्राचीन काल से ही प्रयास होते आ रहे हैं। भारत में भी कहानियों का चलन बहुत ही प्राचीन है। परियों, भूत-प्रेतों, चिडि़यों आदि पक्षियों और पशुओं की काल्पनिक कहानियां यहां के जन-जीवन के मनोरंजन का एक प्रमुख अंग तो रही ही हैं साथ ही समय-समय पर अनेक गूढ़ और गम्भीर बातों को सरल और सहज ढंग से समझाने के लिए भी यहां कथाओं और कहानियों का आश्रय लिया जाता रहा है। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण मिल सकते हैं जब कहानियों के माध्यम से बड़ी से बड़ी और गहन समस्या का निदान सहज रूप से कर लिया गया है।
महाभारत युद्ध के पश्चात् जब धर्मराज युधिष्ठिर ने युद्ध में दोनों पक्षोें की मरी हुई 18 अक्षोहिणी सेना, नष्ट हुए अनगिनत अस्त्र-शस्त्र, रथ, हाथी, घोड़े आदि और विनाश को प्राप्त हुई अपार धन-राशि पर दृष्टिपात किया तो उन्हें उस राज्य को पाकर, जिसके लिए इतना सब कुछ किया गया था, जरा भी आनन्द नहीं हुआ। उनका विजय का सुख-दुख में बदल गया और उनमें राज-गद्दी के प्रति घोर विरक्ति और अरुचि हो गई। वे स्वयं को महात्मा भीष्म, गुरुवर द्रोण, महारथी कर्ण आदि की मृत्यु के लिए ही नहीं, लाखों-लाखों नारियों को विधवा बना देने तथा ज्ञान-विज्ञान, अकूत धन-सम्पत्ति के विनाश के लिए दोषी मानने लगे। युद्ध से पूर्व अर्जुन के हृदय में उत्पन्न मोह जनित क्लीवता तथा अनासक्ति की भांति ही युधिष्ठिर के मन में युद्ध के बाद राज्य के लिए विरत्तिफ़ की भावना उत्पन्न हो गई। उनके दुख को दूर करने के लिए उस समय के सभी प्रमुख ऋषियों, मुनियों, चारों भाइयों आदि ने ही नहीं, महर्षि व्यास, धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती ने भी हर प्रकार से समझाया किन्तु उन्हें शांति नहीं मिली। तब श्रीकृष्ण के परामर्श पर वे शरशैया पर पड़े भीष्म पितामह के पास शान्ति का उपदेश प्राप्त करने के लिए गए।
वहां पहुंचकर भीष्म की दुखद स्थिति को देखकर तो उन्हें और भी अशान्ति हुई। दुःख से कातर होकर वे पितामह से कहने लगे कि आपके पवित्र जीवन का अन्त करने वाला मैं ही हूँ। मैं ही अनेक सुहृदयों के विनाश का कारण हूँ। थोड़े से अपमान के कारण हुए इस विश्व विनाशक युद्ध के लिए उत्तरदायी मैं ही हूँ। युधिष्ठिर के कथन की गम्भीरता को समझते हुए भीष्म ने राजनीति, धर्मनीति, समाजनीति, अर्थनीति आदि के गूढ़, रहस्यों को समझाने के लिए भांति-भांति के उपदेश दिए। उनके द्वारा दिए गए गूढ़-गम्भीर उपदेशों से महाभारत का पूरा शान्ति पर्व भरा हुआ है। किन्तु युधिष्ठिर के मन में व्याप्त दुख और अशान्ति को शान्तिपर्व के 14 हजार श्लोक भी शान्ति प्रदान न कर सके। तब भीष्म ने कहा कहानी
‘हे युधिष्ठिर! व्यक्ति तो सदा से ही काल, अदृश्य और ईश्वर के अधीन ही रहता आया है और जो परतन्त्र होता है वह किसी भी कर्म के लिए स्वयं उत्तरदायी नहीं होता। तुम भी काल के अधीन हो अतः तुम्हें अपने आपको किसी भी शुभाशुभ कार्य का कारण नहीं मानना चाहिए। कर्मों का कर्त्ता और कारण कौन है, यह विषय अत्यन्त ही सूक्ष्म और इन्द्रियों की पहुंच के बाहर है। इसे एक प्राचीन इतिहास से अच्छी तरह से समझा जा सकता है।
प्राचीन काल में गौतमी नाम की एक ब्राह्मणी, जिसके एक ही पुत्र था, अपना जीवन परम शान्ति से व्यतीत कर रही थी। एक दिन उसके पुत्र की सर्प के डस लेने से मृत्यु हो गई। पुत्र की मृत्यु देखकर ब्राह्मणी की चेतना शक्ति लुप्त हो गई। काटने के बाद तेजी से भागते हुए सर्प को अर्जुनक नाम के एक व्याध ने अपने जाल में फंसा कर ब्राह्मणी के सामने लाकर धर दिया और ब्राह्मणी से पूछने लगा कि वह अपने पुत्र के हत्यारे का वध किस प्रकार से कराना चाहती है। इस ब्राह्मणी ने कहा कि वह नहीं चाहती कि सर्प को मारा जाए क्योंकि सर्प को मारने से भी उसका पुत्र तो जीवित नहीं हो सकेगा। अतः सर्प को छोड़ दिया जाए।
ब्राह्मणी के बार-बार मना करने पर भी व्याध सर्प को छोड़ने को तैयार नहीं हुआ। उसका कहना था कि यदि सर्प को छोड़ दिया गया तो वह और भी न जाने कितने लोगों को डसेगा तथा वे भी उसी प्रकार से मृत्यु का ग्रास बनेगें अतः वह इसको मारकर अन्य व्यक्तियों के जीवन को बचा लेना चाहता था। उसने अपनी बात के पक्ष में तरह-तरह के तर्क दिए किन्तु वृद्धा ब्राह्मणी सर्प को मार देने के पक्ष में तैयार नहीं हुई।
इस चर्चा को सुनकर बंधन में जकड़े सर्प ने मनुष्य की वाणी में व्याध से कहाµहे अर्जुनक! इस बालक की मृत्यु का कारण मैं नहीं हूँ। मैं तो पराधीन हूँ। मुझे तो ऐसा करने के लिए मृत्यु ने कहा था और मैंने उसके कहे अनुसार ही कार्य किया।
अतः इसकी मृत्यु का अपराधी यदि कोई है तो वह मृत्यु ही है, मैं नहीं। इसलिए इस बालक की मृत्यु के कारण मुझे मारना व्यर्थ है। इस पर व्याध ने कहा कि यद्यपि तूने दूसरे के अधीन होकर यह कार्य किया है तथापि काटने की क्रिया के कारण तू ही इसकी मृत्यु का कारण बना है। अतः तेरा मारा जाना सर्वथा उचित है। सर्प और व्याध में अनेक तर्क-वितर्क हुए। जब सर्प बार-बार अपने को निर्दोष और मृत्यु को दोषी बताने लगा तो मृत्यु-देवता स्वयं वहां पहुंच गए। मृत्यु-देवता का कहना था कि मैंने तो काल की आज्ञा पाकर ही इस सर्प को बालक को काटने की प्रेरणा दी थी। अतः इस बालक के विनाश का कारण न तो मैं हूँ और न ही यह सर्प। हम दोनों ही काल के अधीन होने के कारण इस कार्य को करने के लिए विवश थे। जगत् में जो भी चेष्टा होती है। वह सब काल की प्रेरणा से ही होती है। हम तो पराधीन होकर केवल आदेश का पालन करने वाले हैं। अतः हम दोषी नहीं है। दोषी यदि कोई है तो काल है।
काल को दोषी बताने पर स्वयं काल भी वहां आ गया और कहने लगा, हे अर्जुनक! इस बालक की मृत्यु के लिए न तो मैं, न यह और न ही यह सर्प अपराधी है। हम लोग किसी की भी मृत्यु में न प्रेरक होते हैं न प्रयोजन। वास्तविक प्रेरक या प्रयोजन तो प्राणी के अपने कर्म होते हैं। जीवन अपने कर्मों से ही मरता है और पैदा होता है। संसार में कर्म ही प्रधान हैं। कर्म ही मनुष्य का अनुगमन करने वाले होते हैं। हम सभी तो कर्म के अधीन होकर ही कार्य करते हैं। अतः इस बालक की मृत्यु में भी इसके कर्म ही प्रधान हैं। इसने ऐसे ही कर्म किए हैं। तदनुसार ही फल पाया है। अर्थात्् बालक भी अपने कर्मों से प्रेरित होकर ही काल के द्वारा विनाश को प्राप्त हुआ है।
यह सम्पूर्ण चर्चा सुनकर ब्राह्मणी व्याध से कहने लगी, ‘हे अर्जुनक! जब सब कुछ कर्म के ही अधीन है तो मैंने भी वैसे ही कर्म किए होंगे और उनके कारण ही मुझे यह पुत्र की मृत्यु का दुःख भोगना पड़ रहा है। अतः काल और मृत्यु अपने-अपने स्थान को पधारें और तू इस सर्प को छोड़ दे।’
यह कथा सुनाकर भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा कि, ‘हे युधिष्ठिर! सब प्राणी अपने-अपने कर्मों के अनुरूप ही गति पाते हैं। अतः मेरी इस स्थिति के लिए तुम या दुर्योधन अपने को व्यर्थ में दोष न दो, ऐसा तो होना ही था। यह जानकर तुम शोक को त्याग कर शान्ति धारण करो।’
इस कहानी को सुनकर युधिष्ठिर का शोक दूर हो गया और वे राजगद्दी संभालने को तैयार हो गए। ऋषियों-महर्षियों के उपदेश, भीष्म की गढ़-गम्भीर शब्दावली के शान्तिपर्व वाला ज्ञान और परिजनों की सलाह जो न कर सकी, वह इस सरल से, सहज से और सुगम से कथानक ने कर दिया।

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