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प्रत्येक मास किसी एक विषय पर पाठकों/विचारकों/लेखकों से उनके
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जाता है। पुरस्कृत प्रविष्टि को 250 रु- का नकद पुरस्कार भेजा जाएगा।
जून 2023 अंक का विषय है:-हम प्रकृति का उपयोग करें, शोषण नहीं।

आप अपना मत अधिकतम 300 शब्दों तक लिख कर
15 मई 2023 तक जाह्नवी कार्यालय में डाक/कोरियर/ई-मेल से भेजें।
मई अंक का विषय है:-
पर्यटन और तीर्थयात्र में मौलिक अन्तर
है
भेजने की अंतिम तिथि-15 फरवरी 2023
जाह्नवी (मासिक) WZ-41, दसघरा, नई दिल्ली-110012
Email – jahnavi1966co@gmail.com

जनता का मंच-अप्रैल अंक का विषय

शिक्षा देती है संस्कार

पुरस्कृत

शिक्षा संस्कारों की जननी है
महान दार्शनिक एवं चिन्तक प्लेटो के अनुसार शिक्षा नए समाज की रचना का, समाज के नवनिर्माण का सर्वश्रेष्ठ साधन है। प्राचीन काल से हमारे देश की शिक्षा प्रणाली में मूल्यों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आज की शिक्षा प्रणाली बालकों को वह नहीं दे पा रही है, जिसके वे हकदार हैं। ‘सा विद्या या विमुक्तये’ विद्या वह है जो मुक्त करे, उदार बनाए। विद्या वह है जो विनम्र बनाए। स्वामी विवेकानन्द का कथन है कि हमें वह शिक्षा चाहिए, जिससे व्यक्ति चरित्रवान बनता है और उसकी प्रतिभा व मन की शक्ति विस्तार होता है। शिक्षा का सीधा संबंध व्यक्ति के विकास से है। ‘शिक्षा जीवन संस्कारमुच्यते।’ शिक्षा जीवन के संस्कार को ही कहा गया है। वस्तुतः संस्कारयुक्त जीवन ही शिक्षा का ध्येय है। शिक्षा सुसंस्कृत एवं विवेकशील बनाने का माध्यम है। उद्देश्य विहीन कार्य पतवार रहित नौका के समान है। शिक्षा बेहतर व्यक्ति, बेहतर समाज और राष्ट्र का निर्माण करती है।
मूल्य आधारित शिक्षा के द्वारा ही भविष्य की शिक्षा का सही स्वरूप निर्धारित किया जा सकता है। संस्कृत के विद्वानों ने शिक्षा से रहित व्यक्ति को पशु के समान बताया है। शिक्षा से तात्पर्य मात्र पुस्तकीय ज्ञान ही नहीं अपितु चरित्र निर्माण है। शिक्षा का उद्देश्य श्रद्धा, समर्पण व सेवा भाव जगाना हो। शिक्षा मानव को मानवता के उत्थान के लिए कार्य करने को प्रेरित करती है। महर्षि अरविन्द के अनुसार-‘शिक्षा जो केवल ज्ञान देने तक ही अपने आपको सीमित रखती है, कोई शिक्षा नहीं।’ शिक्षा का मूल उदेश्य बालक के बौद्धिक विकास के साथ-साथ उसका चारित्रिक एवं आत्मिक उन्नति में सहायक होना भी है। वस्तुतः शिक्षा पद्धति व्यक्ति को भौतिक दृष्टि से ‘सभ्य’ बनाने में अवश्य सफल रही है, परन्तु संस्कारित करने के उद्देश्य में पूर्ण सफलता अर्जित न कर सकी। भारतीय संस्कृति ज्ञान और अनुभव की नींव पर खड़ी है, जिस पर हमें सांस्कृतिक वैभव की इमारत खड़ी करनी है। जीवन निर्माण में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। भारतीय संस्कृति में समस्त मानवता के लिए प्रेरणा स्रोत बनने की क्षमता विद्यमान है। शिक्षा का उद्देश्य प्रमाण-पत्र या डिग्री प्राप्त कर जीविकोपार्जन करना नहीं है। शिक्षा का मुख्य लक्ष्य मानव को संवेदनशील बनाना है। शिक्षा जीवन निर्माण की प्रक्रिया है। शिक्षा चरित्र गढ़ती है तथा विद्यार्थी को मनुष्य बनाती है।
आज हम शिक्षा की गुणवत्ता से अत्यधिक चिन्तित हैं। वास्तव में आज की शिक्षा पूर्णतः व्यवसाय बनकर रह गई है, जिससे व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का पक्ष सर्वथा उपेक्षित पड़ा है। शिक्षा में गुणवत्ता का ”ास हुआ है। आज का युवा विद्यार्थी देश के भविष्य की धरोहर है। उसे वह सन्मार्ग दिखाना है, जो उसे आत्मनिर्भर बनने की क्षमता, शक्ति, योग्यता व कर्मठता उत्पन्न करें। शिक्षा की सार्थकता तो मनुष्य की स्वतंत्र चेतना को कुसंस्कारों की मूर्छना से विरत करने में है।
आज देश संकट में है-चरित्र का पतन, नैतिकता का ”ास, मूल्यों का अवमूल्यन, सुरक्षा का संकट आदि। संस्कार शिक्षा कोई पुस्तकीय विषय नहीं है। संस्कारों की शिक्षा का आधार तो शिक्षकवृन्द का आचरण एवं इनके द्वारा प्रस्तुत आदर्श ही है। मूल्यों को मौखिक रूप से याद करा देना बहुत आसान है किन्तु जब तक वे मूल्य शिक्षार्थी के जीवन के अभिन्न अंग नहीं बन जाते, तब तक उक्त शिक्षा देने की प्रक्रिया निरर्थक होगी। मूल्य सिखाये नहीं जाते, सीखे जाते हैं। उदाहरणार्थ-गुरु द्रोणाचार्य-‘सत्यं वद धर्मम् आचरः’ जैसे मूल्यों को पढ़ा सकते हैं, याद करा सकते हैं, किन्तु कोई बिरला ‘युधिष्ठिर’ ही कहने का साहस करेगा कि उसे यह पाठ भली-भांति याद नहीं हुआ। कारण स्पष्ट है कि जब तक वह इन मूल्यों को अपने जीवन में भली प्रकार से उतार न ले, तब तक वह शब्दों की आवृत्ति मात्र ही होगी। मूल्यों की शिक्षा का कोई पाठ्यक्रम नहीं होता। वे तो शाश्वत है। न ही उनकी कोई परीक्षा ली जा सकती है। यह कहीं बाजार में बिकने वाली व पेड़ों पर लगने वाली चीज नहीं है। आवश्यकता है कि हम तुच्छता को त्याग और महानता का वरण करें। व्यक्ति देश या समाज के लिए कितना मूल्यवान है इसका मूल्यांकन भी उसके जीवन मूल्यों, मानवीय मूल्यों पर ही किया जाता है। हमारी संस्कृति तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के भाव से परिपूर्ण है। प्रत्येक राष्ट्र की सामाजिक एवं सांस्कृतिक उन्नति वहां की शिक्षा पद्धति पर निर्भर करती है। हमारी संस्कृति मानव धर्म प्रधान रही है।
हमें भावी पीढ़ी को ऊर्जावान, कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार, उच्च चरित्रवान बनाना है। नैतिकता नर को नारायण बना देने में सफल है। शिक्षा में मूल्यों की पुनर्स्थापना अनिवार्य होगी। इसी से बनेगा आज का बच्चा, कल का सुयोग्य एवं संस्कारित मानव।
-शशिकान्त द्विवेदी, बांसवाड़ा (राज.)

अन्य चुनींदा प्रविष्टियाँ

सुसंस्कारी बनाए, वही है शिक्षा
महात्मा गांधी ने कहा था-‘अच्छे चरित्र का आधार सुसंस्कारयुक्त शिक्षा है शिक्षा संस्कारों की संवाहिका है। सुसंस्कारों में ज्ञान, विज्ञान, कला, नैतिकता, जीवन मूल्य, धर्म, सामाजिक प्रथाएं, क्षमताएं, कानून और आचार-व्यवहार आदि सद्गुण सम्मिलित हैं। शिक्षा बच्चों को सुदृढ़, सबल और सक्षम बनाती है तथा नव्य संस्कार देती है। धार्मिक सहिष्णुता, मानवता, समन्वय, सामंजस्य, परोपकार आदि सुसंस्कारों की प्रसूता शिक्षा ही है।
आज वैश्वीकरण, आधुनिकीकरण, उपभोक्तावादी संस्कृति के तीव्रगामी प्रभाव से शिक्षा व्यवस्था त्रस्त है। आनलाइन शिक्षा, कंप्यूटर, मोबाइल, फेसबुक, वाट्सएप आदि की आक्रामकता से बच्चों की शिक्षा पर गहरा प्रभाव पड़ा है। पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध, वैज्ञानिक प्रगति की होड़ में, संस्कारों का क्षरण हुआ है। यांत्रिक सुविधाओं की अधिकता ने शिक्षा का स्वरूप बदल दिया है। गुरु शिष्य के पवित्र संबंध कंप्यूटर में समाहित हो गए हैं। पाठ्यक्रम में नैतिक एवं मूल्यपरक शिक्षा तिरोहित हो गई है।
अद्यतन परिवेश में शिक्षा में जीवन मूल्यों का समन्वय अपरिहार्य है। यद्यपि सर्व शिक्षा अभियान एवं नई शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत भारतीय संस्कृति से संबंधित पाठ्यक्रम समाविष्ट हुए हैं किन्तु शिक्षण संस्थाओं में सांस्कृतिक चेतना जाग्रत करने की नितांत आवश्यकता है। वस्तुतः जो बच्चा संस्कारित नहीं होता, वह चरित्रवान नहीं हो सकता। संस्कारवान बच्चे ही देश व समाज की पूंजी होते हैं। वर्तमान परिवेश में शिक्षा के माध्यम से ही संस्कारों का संचयन और संरक्षण वांछनीय है।
आज शिक्षा में सुधार की आवश्यकता है। पाठ्यक्रम में आध्यात्मिक, नैतिक शिक्षा का समावेश करना, कदाचारिता पर रोक लगाना तथा छात्रें को डांट-डपट या आवश्यकतानुसार मारपीट कर शिक्षकों को पढ़ाने की स्वतंत्रता प्रदान करनी चाहिए, तभी छात्र-संपूर्ण रूप से सुशिक्षित और अनुशासित होंगे और वे सुसंस्कारित होकर अपना नैतिक स्तर ऊंचा उठा पाएंगे।
-गौरी शंकर वैश्य ‘विनम्र’, लखनऊ

शिक्षा संस्कारों की जननी है
शिक्षा का एकमात्र उद्देेश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करना है। शिक्षक राष्ट्र मंदिर के कुशल शिल्पी है। शिक्षार्थी कच्ची मिट्टी के समान है। विद्यालय इनको मजबूत ईंटों में ढालने वाली कार्यशाला है। शिक्षा वह विद्या है, जिससे इनको किसी भी रूप में ढाला जा सकता है और राष्ट्रमंदिर को गढ़ा जाता है। नैतिकता और मानवीय मूल्य ही कच्ची ईंटों अर्थात बचपन को मजबूती व सौन्दर्य प्रदान करते हैं। आज का बालक कल का संस्कारवान नागरिक बनकर मानवीय मूल्यों का उत्थान कर राष्ट्र को सर्वोच्च स्थान पर स्थापित कर सकेगा।
सही शिक्षा चरित्र निर्माण तथा व्यक्तित्व का विकास है। दया, ममता, स्नेह उदारता, क्षमा, प्यार और सेवा की भावना ही संस्कार है जो कि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि शिक्षा से मन की शान्ति बढ़ती है, प्रतिभा का विस्तार होता है, आत्मनिर्भरता बढ़ती है। शिक्षा हमारी बुद्धि को प्रखर एवं सद्भावों से भरपूर करती है। शिक्षा एक अच्छा इंसान गढ़ने का साधन है।
शिक्षा चरित्र निर्माण तथा जीवन को रचनात्मक दिशा देने में सहायक है। आध्यात्मिक शिक्षा के अभाव में बच्चे स्वार्थी बन जाते हैं। दूसरों के प्रति करुणा और सहानुभूति का उसमें भाव पैदा नहीं होता। वे लूट खसोट, चोरी, डकैती, आतंक और उग्रवाद की दुनिया में खो जाते हैं। भ्रष्टाचार व्यभिचार में लिप्त हो जाते हैं। मानवीय संवेदनाओं की कमी के कारण प्रकृति के प्रति भी कठोर व्यवहार करते हैं।
शिक्षा ही एक मात्र साधन है जो जीवन को पवित्र यानि व्यक्तित्व का सही विकास कर नैतिकता का पाठ पढ़ाती है। उचित आचरण, ज्ञान, सदाचार के द्वारा ही व्यक्ति के विकास की प्रक्रिया निर्धारित होती है। शिक्षा ही सही और गलत की चेतना का विकास करती है। फलदार वृक्ष की तरह शिक्षा प्राप्त कर बच्चे संस्कारी बनते हैं।
किताबी ज्ञान से शिक्षा का अर्थ पूर्ण नहीं होता। व्यवहारिक ज्ञान ही संस्कारों को जन्म देता है। ऐसी शिक्षा बच्चे के मन, शरीर व आत्मा का विकास करती है। जिससे एक स्वस्थ समाज का निर्माण होता है। महापुरुषों की उच्च चरित्र एवं साहस की कहानियां सुनाकर सच्चरित्र व्यक्ति के रूप में ढाला जा सकता है। विपरीत परिस्थितियों में धैर्य रखना, आत्मविश्वास न खोना हमारे संस्कार हैं जो जीवन में शिक्षा के माध्यम से ही संभव है।
मानसिक शक्ति को स्थिर रखने, भाईचारे की भावना को बढ़ाने में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान है। चिन्तन का विकास, व्यापक दृष्टिकोण, सहिष्णुता और अनुशासन शिक्षा द्वारा ही संस्कारों के रूप में रोपित हो हमें मानव होने का गौरव प्रदान करते हैं। वास्तव में शिक्षा ही संस्कारों की जननी है।
-रेखा सिंघल, शिवालिक नगर, हरिद्वार (उ-प्र-)

शिक्षा में मानवीय मूल्यों का समावेश हो
शिक्षा का अर्थ है सीखना और सिखाना। शिक्षा दी भी जाती है और ली भी जाती है। शिक्षा व्यक्ति की तार्किक शक्ति को बढ़ाकर विवेक जाग्रत करती है। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति को सुसंस्कारित बनाना है। शिक्षा संस्कारों को तभी पैदा कर सकती है जब उसमें नैतिकता और मानवीय मूल्यों का समावेश किया जाए। अच्छी शिक्षा जानकारियाँ प्रदान करने के साथ ही माननीय मूल्यों का पाठ पढ़ाती है। वह बुद्धि के विकास के साथ ही हृदय में सद्गुणों का संचार कर श्रम का महत्व प्रतिपादित करती है।
आज की शिक्षा का अर्थ पुस्तकों को रटकर परीक्षा उत्तीर्ण करना है। अतः संस्कारों का उद्देश्य गौण हो गया है। यह शिक्षा विद्यार्थी के चरित्र निर्माण पर नहीं अपितु उसके व्यवसाय प्राप्ति पर बल देती है। यह छात्रें को पैसा कमाने वाली मशीन बनाती है जिसमें मानवीय संवेदनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। आजकल विद्यार्थी की सफलता इसमें मानी जाती है कि वह लाखों रुपये कमाकर जीवन को भौतिक सुखों से सम्पन्न करे। पश्चिम जीवन पद्धति का बिना सोचे अंधानुकरण ने हमारे जीवन मूल्यों को नष्ट कर दिया है।
व्यापक अर्थ में शिक्षा, शिक्षण संस्थानों तक ही सीमित नहीं है वरन जीवन के सभी क्षेत्रें से संबंधित आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। विद्यालयी शिक्षा के साथ ही हमें सामाजिक वातावरण को भी सुन्दर बनाने की आवश्यकता है। यदि समाज में अनाचार, अत्याचार, आतंक और अनैतिकता व्याप्त है तो पुस्तकीय शिक्षा जीवन में अधिक प्रभावशाली सिद्ध नहीं होगी। बच्चों को प्रारंभ से ही ऐसा वातावरण मिलना चाहिए जहां उनके कोमल भावों की रक्षा हो सके, उन्हें सामाजिक सुरक्षा का आश्वासन मिल सके और प्रगति के लिए समान अवसरों की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके। शिक्षा बच्चों को संस्कारित करने का सबसे सशक्त माध्यम है, अतः हमें गंभीरता पूर्वक ऐसी शिक्षा प्रणाली पर ध्यान देना होगा जो देश के भावी कर्णधारों के लिए सच्चे अर्थो में संस्कारों की जननी सिद्ध हो सके।
-सुरेश चन्द्र ‘सर्वहारा’, विज्ञान नगर, कोटा (राज-)

शिक्षा संस्कारों की जननी है
शिक्षा-लगातार सीखने व सिखाने वाली प्रक्रिया है। शिक्षक-गुरु अपने शिष्य में ज्ञान का दीप जलाता है।
पूर्व में शिक्षण संस्थाओं व विद्यार्थियों का उद्देश्य मूलतः ज्ञान सृजन और उसे अगली पीढ़ी तक पहुंचाना था। गुरु की गुरुता उसके श्रेष्ठ आचरण में थी। इनका दायित्व अच्छे मनुष्य का निर्माण था, जिसमें सद्गुण हो, जो देश व समाज के प्रति सद्भाव रखता हो। दूसरे शब्दों में शिक्षा मूल्यों पर आधारित थी और अध्यापक उन मूल्यों का वाहक व संरक्षक होता था। समय बदला और अध्यापन, शिक्षक, विद्यालय सभी की दृष्टि बदलने लगी। इस सबके बीच शिक्षा ने व्यवसाय का रूप ले लिया। ट्यूशन और कोचिंग का धंधा प्रमुख होता गया। शिक्षा संस्थान इस तरह की शिक्षा दे रहे हैं। इनमें नब्बे प्रतिशत निजी है जिसकी गुणवत्ता को लेकर हर तरह का संशय बना हुआ है।
इन सबके बीच मूल्य व चरित्र निर्माण के सरोकार धूमिल होते जा रहे हैं। ‘वास्तविक शिक्षक वह है, जो बच्चों को आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करे न कि उसके दिमाग को सिर्फ किताबी ज्ञान से भरें।’-डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
बालक के सर्वांगीण विकास के लिए शिक्षा अति आवश्यक है। शिक्षा हर व्यक्ति का अधिकार है। शिक्षक विद्यार्थी की शंकाओं को दूर करता है। वहीं वह उनमें अनुशासन, त्याग, सेवा, चरित्र, एकता के गुण एवं संस्कारों का बीजारोपण करता है।
बेहतर भविष्य के लिए शिक्षा के साथ संस्कार भी जरूरी है। नई शिक्षा नीति मूल्य बोध को विकसित करने के संकल्प के साथ प्रस्तुत हुई है।
इसमें शिक्षक-शिक्षा को व्यवस्थित करने और उसके व्यावसायिक स्वरूप को लेकर भी विचार किया गया है। शिक्षक ही शिक्षा की धुरी होता है और इसकी उपेक्षा करना देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ करना होगा। गुरु अपने अध्यापन का कार्य बिना किसी बाधा के करता रहे इसकी व्यवस्था करना समाज का दाियत्व है।
-गजानन पाण्डेय, हैदराबाद

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