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ग्राम सेविका सुमन बाई

नव स्वतंत्र देश में संसाधानों की कमी के बीच
भविष्य राह दिखाने वाली महिला

संस्मरण डा. सुमन चौरे

जाह्नवी फरवरी 2023 गण्तंत्र विशेषांक

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे गांव में जो नये-नये पद नाम के लोग आये
किन्तु शासकीय पद पर एक महिला हमारे गांव में ग्राम सहायिका के पद पर आई। यह पहली महिला थी जो नये पद नाम के साथ आई थी।
बड़ी जुझारू महिला थी।

मैं मुम्बई से भोपाल रेल द्वारा आ रही थी। रास्ते में किसी स्टेशन से बारह पन्द्रह युवक-युवती गाड़ी में चढ़े। उनकी चर्चा शुरू हुई। बड़े जोश खरोश, अपने अनुभव सुना रहे थे, उस वार्तालाप से मैं ऐसा अंदाजा लगा पायी कि शायद किसी स्वयं सेवी संस्था के लिए काम कर रहे हैं या कि एनजीओ के हिस्सेदार थे। एक ने कहा भाई मेरा अनुभव जरा खट्टा ही रहा-‘इन गांव के गंवारों के आगे तो वही कहावत सीधी सही उतरती है कि भैंस के आगे बीन बजाये, खल रेंक रेंक खाये।’
जब तक दूसरे ने अपना सामान टटोलते-टटोलते बिना किसी की ओर देखे कहा-‘नहीं भाई ऐसा नहीं है, उनको जरा देर लगती है, उनके माथे में जो गारा जमा है उसको निकालने में देर लगेगी।’ तब तक तीसरा बोला, ‘सो तो है, पर कब तक? लगता है जूते घिस जायेंगे, पर इन गांव वालों के दिमाग में कुछ घुसने का नहीं है। भाई दो महीने में चार चक्कर हो गये उस गांव में। अपनी योजना समझायें तो किसी को कभी दो आते हैं, दूसरी बार दो दूसरे आ जाते हैं, उन भले मानुसों को समझ ही नहीं आता कि हम उनके भले के लिये ये सब योजनाएं लेकर आये हैं। उनको तो बस यही लगता है कि यहां आकर हम कुछ थोड़ा बहुत करेंगे और उनको ढेरों पैसा मिलेगा।’ तब तक कोई आवाज आई, ‘जाने दे यार, भाई खूब माथा खा लिया, इस गांव में। इनको तो रहने ही दो, उनके हाल पर, कोई दूसरे गांव में देखेंगे।’
युवक-युवतियों की बातों से मुझे इतना तो अच्छे से समझ आ गया कि ये सभी पढ़े लिखे युवा किसी एनजीओ के लिए काम कर रहे हैं। इन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि ग्रामीण इनकी बातें क्यों नहीं समझ रहे हैं। मैं तो गांव की ही हूं, मुझे मालूम है कि गांव वाले कैसे किसी की बात मानते हैं, ऐसे आने जाने वालों को वे भी आना-जाना कर देते हैं। वे तो उनकी बात मानते हैं, जो उनके साथ उनके बीच में रहकर, उनका होकर कार्य करें। ग्रामीणों का दिल कैसे जीता जाता है, वह मुझे मालूम है। गांव का होकर, गांव में रमकर जो व्यक्ति रहता है, ग्रामीण उन्हीं की बात मानते हैं। ऐसे ही मुझे उन युवाओं के बीच कोई भी नहीं दिखाई दिया जिसे गांव की परवाह हो। ग्रामीण बहुत स्वाभिमानी होते हैं, जब तक उन्हें यह भरोसा न हो जाय कि जो आया हुआ व्यक्ति है, हमारे लिए ही आया है, हमारा हितैषी है तब तक वह उनकी बात नहीं मानते।
इन लोगों की बातें सुनते-सुनते मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे कान में भी कोई कुछ कह रहा है, मैंने कान में ऊंगली डाली, कान खुजाया पर हंसी आ गई। यह क्या हुआ, यह तो मेरी स्मृतियां मेरे कान में कुछ कह रही थीं कान के पास मुंह लाकर कह रही हैं-‘काना माना कुर्रर्र{{{।
ऐसे ही रोते बच्चों को मनाती थी, सुमन बाई। बच्चे के कान के पास मुंह लगाकर जोर से बोलती थी-‘काना माना कुर्रर्र{{{।’ बालवाड़ी में आने वाले बच्चे घर से भले ही रोते हुए आते थे किन्तु बालवाड़ी में सुमन बाई के साथ खेलते कूदते हुये दो घंटा बिताकर हंसते उछलते घर लौट जाते थे।
गाड़ी में बैठे आधुनिक परिधान पहने इन युवाओं में मैं खोज रही थी एक खादी की नीली किनार की सफेद साड़ी। उल्टा मराठी पल्ला। उल्टी मांग, ढीली छोटी, ढीला पोलका, कलाइयों में एक-एक चूड़ी, माथे पर दरबार गंध की बिन्दी, गले में काली पोत का लम्बा दोहरा तार, जिसमें सोने की वाटकी (मंगलसूत्र) बस और कड़ी पर (गोद में) साल सवा साल का बालक, एक हाथ में झोला, झोले में एक छोटा सा ‘फूलपात्र’ बाल को पानी पिलाने के लिये और सरकारी कागज। ऐसा तो कोई नहीं था उनमें। ऐसी तो थीं हमारे गांव में आने वाली पहली ग्राम सहायिका सुमन बाई हेगड़े।
सुमन बाई ने हमारे गांव का ऐसा मन जीता कि क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या महिलाएं सभी उसके हो कर रह गये। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे गांव में जो नये-नये पद नाम के लोग आये उनमें ग्राम सेवक तो पहले आ गये थे, किन्तु शासकीय पद पर महिला हमारे गांव में ग्राम सहायिका के पद पर आई। इसके पहले हमारे गांव में सरकारी पद पर पुरुष डॉक्टर, कम्पाउण्डर, ढोर डाक्टर, मलेरिया उन्मूलन बाबू, मास्टर, ग्राम सेवक, पटवारी आदि थे। पर यह पहली महिला थी जो नये पद नाम के साथ हमारे गांव में आई थी। उसकी जितनी तारीफ करें कम ही होगी। बड़ी जुझारू महिला थी। यूं तो उसका काम ही था गांव के लोगों की सहायता करना। उसके झोले में एक रजिस्टर, एक पेंसिल जो आधी नीली और आधी लाल रहती थी। तब पेन का चलन भी कम था, स्याही होल्डर से ही लिखा पढ़ी होती थी।
हमारे गांव में लोगों के घरों के बाहर की गोबर माटी की दीवाल पर वह खड़ी को गीली करके लिखती थी, ‘साक्षर बनें हम’। मुझे सुमन बाई और सुमन बाई के कामों में बड़ी दिलचस्पी रहती थी। सब कुछ नया ही था हमारे गांव में। जब वह दीवाल पर लिखती थी, तो मैं कहती थी, ‘सुमन बाई मैं क्या मदद कर सकती हूं आपकी। आप तो हमारे गांव की मदद करते हो।’ तब वह कहती ‘ले पानी में खड़ी डुबा दे, नहीं तो बाल को ओटले से उठा ले।’ हम पूछते थे, ‘सुमन बाई आपने लिखा तो सही, पर किसको पढ़ते आयेगा?’ तब उन्होंने बताया ‘अरे बावली, ऐसा लिखा देखकर ही तो सब पूछेंगे कि क्या माँड दिया। तब उन्हें समझाएंगे। फिर एक-एक घर जाकर महिलाओं को बताना कि ‘मैं तुम सबको लिखना पढ़ना सिखांऊंगी।’
मुझे याद है, रात को बीस-पच्चीस महिलाएं सुमन बाई के घर जाकर अक्षर और गिनती लिखना, वाचना सीखती थीं। एक कंदिल और इतने लोग तब गोला बनाकर वे सबको पट्टी एवं पेम (पट्टी पर लिखने की कलम) देती थी। इस प्रकार रात में दो घंटे सबको अक्षर सिखाती थीं। फिर छोटे-छोटे शब्दों वाक्यों की पुस्तक भी सरकारी मिलती थी, अतः अक्षर पहचान के बाद पढ़ना वाक्य बनाना तक सिखाया करती थी। सुमनबाई के आने से हमारे गांव में, शिक्षा के प्रति ऐसी जागृति हुई कि साल दो साल में ही महिलाओं का एक मण्डल बन गया। जिसमें हर गुरुवार को दोपहर में एकत्रित हो सब महिलाएं श्री रामचरित मानस का वाचन सस्वर करने लगी।
महिलाओं में गृहकार्य के अलावा अन्य गतिविधियों में रुचि जागृत हुई। दोपहर के समय महिलाएं समय निकालकर सिलाई, कढ़ाई और बुनाई का काम सीखती थी। धागे और क्रोशिये से सुन्दर लेस पेटीकोट में लगाने की क्रोशिये से थैली झोला बनाना एवं पूजा की थाली, प्रसाद की थाली पर ढांकने के गोल एवं चौकोन रुमाल बनाना।
सुमन बाई के साथ महिलाओं ने भी सहयोग की। उसका परिणाम कि कालमुखी गांव के घरों के दरवाजों पर सुन्दर तोरण टंगा मिलता था। जो रंगीन धागे से कभी मोर, कभी मिट्ठू, फूलदार पौधे तो तभी सातिये की आकृति होते थे।
साथ ही छोटे-छोटे बच्चों के लिए बनियान, ठंड हो तो स्वेटर। वैसे हमारे गांव में यह सब सामान तो उपलब्ध नहीं था, ऐसी स्थिति में जब भी वे खण्डवा जातीं, तो सबकी मांग के अनुसार सामान लाती थी।
साथ ही बुधवार हाट में जाकर दुकानदार को बताती थीं कि अगले बाजार फलां-फलां सामान लेकर आना। तांबे के छेद वाले धेले को काले सफेद धागे से गूंथकर बने रुमाल एवं थैलियां तो बड़ी संख्या में देखने को मिल जाती थीं। सभी सीखने वाली महिलाओं ने बड़ी रुचि से इन्हें बनाया था।
सुई धागे की बड़ी आकर्षक कढ़ाई सुमनबाई ने महिलाओं को सिखाई। इन कढ़ाइयों के कुछ-कुछ नाम मुझे याद हैं-गेहुआं टांका, लॉग-शॉर्ट, क्रास स्टीज, कश्मीर स्टीज, बुलियन स्टीज, चेन स्टीज और भी कुछ-कुछ। फूल, मिट्ठू, मोर, कैरी आदि के छापे। सुमन बाई स्वयं छापा बनाती थी और सबको छाप कर देती थी। किस कढ़ाई में सुई को कहां से पकड़ना, यह भी कला होती है, वे सिखाती थीं। उन दिनों कागज जैसी दूसरी सामग्री दुर्लभ ही रहती थी। वे अपने पास के कागज पर सुन्दर छापा बनाती थीं। फिर उस छापे को रुई वाले तकिये पर दो एक और कागज के साथ रखकर सुई से उसकी रेखाओं पर पास-पास छेद कर देती थीं। जब पूरा छापा छेद-छेद हो जाता था तो कटोरी में घासलेट के तेल में हल्दी डालकर रूई डुबोकर जिस कपड़े पर कढ़ाई करना रहता था, उस कपड़े पर वह छापा रखकर, हल्दी डुबाया तेल उस छापे पर रूई से रगड़े देते थे। हर छेद में से हल्दी वाला तेल निकालकर उड़ जाता था और कपड़े पर वैसे की वैसी आकृति उछलकर बन जाती थी। हल्दी के छापे पर सुई धागे से रंगीन कढ़ाई कर दी जाती थी। कपड़े में कसावट लाने के लिये रिंग होते थे। जिसके भीतर कपड़ा फंसाकर, सुन्दर कढ़ाई की जाती थी। एक दूसरे में बड़ी स्पर्धा रहती थी कि कौन कितनी कुशलता से कढ़ाई करेगा या कर रहा है। फिर सबकी बनाई हुई कढ़ाई, बुनाई, सिलाई के कपड़ों, वस्तुओं को इकट्ठा कर गांव की शाला में प्रदर्शनी लगाकर सबको दिखाया जाता था। यह एक तरह से गांव की महिलाओं की प्रतिभा प्रदर्शन का बड़ा अवसर था कि महिलाओं में कार्य करने की कितनी क्षमता है, कितनी रुचि है और कितने कम समय में इतना अधिक कार्य किया है। सभी को यह बताया जाता था कि गृहस्थी के नियमित कार्यो के साथ ये सब किया गया है। फिर प्रदर्शनी में भागीदारी करने वाली महिलाओं को प्रोत्साहन भी मिलता था।
आज से साठ-पैंसठ साल पहले ही सुमन बाई ने महिलाओं को सिखाया था समय और ईंधन की बचत। सब महिलाओं को वे इकट्ठा कर उन्हें समझाती थी कि आपके घर खेती बाड़ी के बहुत काम रहते हैं अतः आप एक साथ कितनी सारी सामग्री पका सकती हैं। जिससे लकड़ी और समय दोनों की बचत होगी। गांव की महिलाओं को उन्होंने मगन चूल्हा बनाना सिखाया। प्रमुख भाग चूल्हे का जिसमें लकड़ी जलाते थे तेज आंच वाला। इसके बगल का दूसरा, थोड़ी कम आंच वाला फिर तीसरा उससे थोड़ी दूर और चौथा और पांचवा उसके बगल में। ऐसे एक साथ पांच तरह की सामग्री तैयार करने का प्रावधान था मगन चूल्हा में। कोई मजाक में कहता था-‘सुमन बाई बड़े चोचले (अनावश्यक दिखावटी कार्य) करवाते हो?’ तो वह कहती थी, ‘जब आपको इस चीज का फायदा मालूम हो जायेगा तो समझ आयेगा कि कोई सुमन बाई भी थी।’
सबके प्रश्नों या शंकाओं का भी वह समाधान करती थी। किसी ने पूछा, हमको खेती बाड़ी में जाना है, पांच चीज सुबह तो नहीं बनाते हैं, तब वे समझाती थीं। देखो रोटा (जुवार की हथेली पर बनी मोटी रोटी) तवा पर सेंकते हो, दूसरी दाल भाजी तुम उल चूल के चूल्हे पर रखते हो। तुम्हारे यहां चूल्हे के दो भाग तो सभी के घर हैं, तीसरा मानो तो कोई चीज गरम करना हो, चौथा मंदी आंच में दूध तपाना हो, पांचवा जिसमें सबसे कम आंच पहुंचती हो, उस पर चीजों को गरम रख सकते हैं। वे मगन चूल्हा जलाकर उसका प्रयोग भी, अपने या जो उत्सुक होता था उसके घर चूल्हा बनाकर करती थी। बड़े सफल रहे ऐसे मगन चूल्हे। बड़े परिवारों के लिए वे बड़े वरदान साबित हुए। हमारे घर भी मगन चूल्हा जलता था।
अगर देखा जाय तो सुमन बाई का पूरा समय ग्राम सेवा में लगा रहता था। सुबह से उठकर वे घर का काम निपटाकर बालवाड़ी के बच्चों को दो घंटे खेल- गीत-कविता-कहानी सिखाती थी। बच्चों को गुडि़यां-गुड्डे, कपड़ों के टुकड़ों से बनाना सिखाती तो कभी आम के मौसम में आम की गुठलियों की सुन्दर आकृतियां बनाना, हल्का काम सिखाती थी। माटी के खिलौने, जुवार के टोटे के खिलौने जाने क्या-क्या सिखाती थी।
सुमन बाई हमारे गांव में बहुत सालाें तक रहीं फिर बाद में बदली होकर दूसरी जगह चली गई। और भी ग्राम सहायिका आई किन्तु जो सुमन बाई ने गांव के साथ आत्मीय भाव जगाया तो वही अन्य में नहीं पाया। उसी बात को कहते मुझे एक घटना जब भी याद आती है, मैं स्मृति से रोमांचित हो जाती हूं। मैं तब सात-आठ साल की रही होंगी। हमारे गांव में श्री कृष्ण जन्माष्टमी का पर्व शाला में भी मनाया जाता था। मंदिर में तो भव्य आयोजन होता ही था, किन्तु हमारे बड़े गुरुजी मांगरोले जी ने कहा कि, सुमन बाई आपकी बालवाड़ी के बच्चे और हमारी शाला के बच्चों को मिलाकर जन्माष्टमी का एक सांस्कृतिक कार्यक्रम करते हैं। इन लड़कियों से गरबा नृत्य और राधाकृष्ण का नृत्य आप करवाइये। सुमन बाई ने अपने बालवाड़ी के बच्चों से भी एक नृत्यनाटिका करवाई और राधाकृष्ण की एक नृत्यनाटिका साला की लड़कियों से तैयार करवाई।
छोटे-छोटे बच्चों को रंग-बिरंगी वेशभूषा क्षेत्रवार पहनाई और एक बालक को चूड़ीदार पायजामा व कुर्ता पहनाकर सबके बीच खड़ा कर गा-गाकर नाचना था। गोले में सबको बैठाया।
बालक, मराठी वेशभूषा वाली जोड़ी के पास जाकर गाता था।
मैं तो कौन-कौन देश जाकर वापस आया भैया।
मैं तो महाराष्ट्र गया, वहां तो कष्टा धोती देखा।
मैं तो इकड़े-तिकडे़ सुनकर वापस आया भैया।
मैं तो गुजरात गया, वहां धोती घाघरा देखा
मैं तो सुछे——-केमछे—- सुनकर वापस आया भैया।
मैं तो पंजाब देश गया, वहां सलवार कुर्ता देखा
मैं तो कि गल कुड़ी, कि गल मुंडें सुनकर वापस आया भैया।
इस प्रकार सात प्रांतों का पहनाना व बोली एक नया प्रयोग था हमारे गांव के लोेगों का नया प्रयोग था।
सबने खूब तालियां बजाई। इसके बाद शाला के बच्चों का कार्यक्रम शुरु हुआ। नृत्यनाटिका थी, जिसमें राधा रूठ गई तो भगवान कृष्ण उन्हें मना रहे थे। मैं उसमें कृष्ण बनी और मेरे बड़े ताऊजी की बेटी बिन्दु राधा बनी। रात में सुमनबाई के घर चार छह दिन खूब अभ्यास हुआ। जिस दिन कार्यक्रम होना था, उसी रात अभ्यास के पहले हम बहनों में कुछ तकरार हो गई। बिन्दु ने कहा-‘सुमन बाई हम कल का खेल नहीं करेंगे, हमारी सुमन से लड़ाई हो गई है और कोई दूसरा कृष्ण बनेगा तो हम राधा बनेंगे, नहीं तो हम सुमन की राधा नहीं बनेंगे।’
सुमन बाई ने मुझसे पूछा कि ‘बिन्दु ऐसा कह रही है, क्या बात है?’ मैंने कहा ‘नहीं सुमन बाई मैं तो आपकी बात मानती हूं मैं क्यों लडूंगी बिन्दु से। और लड़ाई है भी हमारी घर और शाला की है, राधा कृष्ण के नाच की थोड़ी है। मुझे तो रूठे को मनाना है बिन्दु को मनाऊं या कृष्ण को।’
पर बिन्दु फिर भी नहीं मानी। सुमन बाई ने कहा सुनो बिन्दु कल हम नाच नहीं करेंगे। सबसे कह देंगे कि राधा सच में रूठ गई क्योंकि इतनी जल्दी हम किसको राधा बनायें? सुमन बाई की बात सुनकर बिन्दु राजी हो गई। किन्तु रात को जब हेगड़ेजी (सुमन बाई के पति) हमें कंदील लेकर हमारे घर छोड़ने आये तो मैं पहले अपने दरवाजे में घुसी, तो जो जाते-जाते बिन्दु ने कहा सुमन बाई के कहने पर राधा तो बन जाऊंगी किन्तु ऐसी रूठूंगी कि देखना मानूंगी ही नहीं।
जन्माष्टमी की सुबह ही छोटे बच्चों के बाद हमारी नृत्यनाटिका शुरु हुई। राधा रुठी है, कृष्ण मना रहे हैं—-।
राधा ना बोले न बोले न बोले रे—
घुंघट के पट ना{{ खोले रे–
सुमन बाई गा रही थी राधा मुंह बनाये खड़ी थी, कृष्ण मनुहार कर मना रहे थे। उसके चारों ओर घूम यह सच का रूठना मनाना था।
रूठी राधा को कैसे मनाऊं
चरणों में राधा के रख दूं मुरलिया
बात बन जायेगी, हौल-हौले रे
राधा न बोले न बोले न बोले रे
राधा फिर भी रुठी है। कृष्ण द्वारा राधा को मनाने का प्रभावी अभिनय पर सबने तालियां बजाई। रात की घटना की राधा (बिन्दु) मान ही रही थी और कृष्ण यानि कि मैंने ऐसे भावमय जतन किया कि दर्शक विस्मित हो गये। कृष्ण द्वारा राधा को मनाने का अभिनय तो यथार्थ में सुमन द्वारा बिन्दु को मनाने का शाश्वत भाव था। यह अभिनय ऐसा प्राणवान हो निकला कि क्या तो कृष्ण ने मनाया होगा राधा को? जैसे मैंने मनाया बिन्दु को। कृष्ण का कंठ रूंध गया। बिन्दु रूठी ही रही। राधा का अभिनय भी रूठना भी, बिन्दु का सही में रूठना था। मान ही नहीं रही थी। तब ही सुमन बाई ने ऊंगली से कुछ इशारा बिन्दु (राधा) को किया, तो राधा ने अपना हाथ हौले से कृष्ण के कंधे पर रख दिया। एक फीकी सी मुस्कान दी। किन्तु मैं यानि कृष्ण को इतना आत्मिक आनन्द हुआ कि आंखों से आंसू छलक पड़े। गीत समाप्त होते ही सुमन बाई ने राधा कृष्ण दोनों के अपने दोनों हाथों से हृदय से लगा लिया। मेरे अभिनय से वह इतनी खुश हुई कि बहुत देर मुझे अपने से चिपकाए रही।
सुमन बाई के गले लगना, हृदय से चिपकना, वह स्पर्श मुझे कई दिनों तक नहीं भूला। वह समर्पण, वह आत्मीय भाव मैं भूल नहीं सकती। भले ही मैं छोटी थी, कि मेरा बालमन उस प्रेम आनन्द से तरंगित, आनन्दित होता रहता था।
गांव के भादव मास में गणेशोत्सव मनाते थे। झांकी बनाकर आनन्दोत्सव मनाने की जिम्मेदारी हेगड़ेजी ने ले ली थी।
सुमन बाई का याद हो आई। हम छोटे किन्तु सभी लोग उन्हें सुमन बाई ही कहते थे। उन्हें अपना नाम कहलाना पसंद था। हमारे गांव में वे ऐसी रही कि मराठी भाषी सुमन बाई फर्राटे से निमाड़ी बोलती थी। और गांव के हर सुख-दुख में साथ रहती थी। सच्ची ग्राम सेविका थी वह। उन्होंने पूरी निष्ठा के साथ सरकारी नौकरी की। स्वतंत्रता प्राप्ति के एकदम बाद संसाधनों की कमी थी। प्रशासनिक तंत्र भी आकार ले रहा था। कभी भी सुमन बाई ने झलकने नहीं दिया कि संसाधनों की कमी से काम नहीं हो सकेगा। उनमें ईमानदारी से काम करने का जज्बा था, सब को आगे बढ़ने में मदद करने की दृढ़ इच्छाशक्ति थी, हर कार्य का पूरा नियोजन करने की क्षमता थी।
इसी बीच गाड़ी में कुछ हो हल्ला हुआ। वे युवा-युवती उतर रहे थे। उनका स्टेशन आ गया। खूब ढूंढने पर भी मुझे कोई सुमन बाई जैसा नहीं दिखाई दिया जो गांव का होकर रह जाय।

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