कविता डॉ. अ. कीर्तिवर्धन
जाह्नवी फरवरी 2023 गणतंत्र विशेषांक
जिसमें तर्पण करते ही,
पुरखे भी तिर जाते हैं,
मानव की तो बात है क्या,
देव भी शीश झुकाते हैं।
जिसमें अर्पण करते ही,
सारे पाप धुल जाते हैं,
जिसके शीतल जल में,
सारे अहंकार घुल जाते हैं।
मैं गंगा हूं
मेरा अस्तित्व
कोई नहीं मिटा सकता है।
मैं ब्रह्मा के आदेश से
सृष्टि के कल्याण के लिए उत्पन्न हुई।
ब्रह्मा के कमंडल में ठहरी
भागीरथ की प्रार्थना पर
आकाश से उतरी।
शिव ने अपनी जटाओं में
मेरे वेग को थामा।
गौ मुख से निकली तो
जन-जन ने जाना।
मैं बनी हिमालय पुत्री
मैं ही शिव प्रिया बनी
धरती पर आकर मैं ही
मोक्ष दायिनी गंगा बनी।
मेरे स्पर्श से ही
भागीरथ के पुरखे तर गए
और भगीरथ के प्रयास
मुझे भागीरथी कर गए।
मैं मचलती हिरनी सी
अलकनंदा भी हूं।
मैं अल्हड़ यौवना सी
मन्दाकिनी भी हूं।
यौवन के क्षितिज पर
मैं ही भागीरथी गंगा बनी हूं।
मैं कल-कल करती
निर्मल जलधार बनकर बहती
गंगा
हां मैं गंगा हूं।
दुनिया की विशालतम नदियां
खो देती हैं
अपना वजूद
सागर में समाकर।
और मैं गंगा
सागर में समाकर
सागर को भी देती हूं नई पहचान
गंगा सागर बनाकर।
फिर भला
ऐ पगले मानव
तुम क्यूं मिटाना चाहते हो
मेरा अस्तित्व
मेरी पवित्रता में
प्रदूषित जल मिलाकर?