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खुशियों वाली नदी

कहानी

गोवर्धन यादव

शारदा सुशील, उच्च शिक्षा प्राप्त शिक्षिका है परन्तु बिना मोटे दहेज उसके लिए वर खोजने में उसके पिता को दिन में तारे दिखा दिये। समाधान कैसे निकला पढ़िए, एक भावपूर्ण कहानी।

पोर-पोर में आलस रेंग रहा था और मन था कि लाख कोशिशों के बावजूद भी काम से जुड़ नहीं पा रहा था। आज पहली बार उन्होंने सिद्दत के साथ शैथिल्यता का अनुभव किया था वरना जोशी जी का जोश देखने लायक होता था। चीते की सी चपलता, कागा की सी पैनी दृष्टि और गिद्ध की सी एकाग्रता के कारण ही उनके अधीनस्थ कर्मचारी सदा चौकस और सजग बने रहते थे।
पत्रें की प्रत्येक लाईन पर उनकी नजरें दौड़ती थीं। वे सभी पत्र बड़ी तन्मयता के साथ पढ़ते। आवश्यक टीप देते और संबंधित शाखाओं में भिजवा देते। उन्हें यह भी ध्यान बना रहता था कि किस टेबल से जवाब आना बाकी है और कौन सा पेपर पेंडिंग में डाल दिया गया है। वे संबंधित लिपिक को बुलाते। जवाब प्रस्तुत करने को कहते। इसके लिये उन्होंने कभी कोई डायरी फायरी मेंटेन नहीं की। सारी चीजें दिमाग के कम्प्यूटर में अंकित रहती थी। शायद यही कारण था कोई भी कर्मचारी किसी को धोखा नहीं दे पाता था। और न ही ऊपरी आय की आशा ही संजोकर रख पाता था। ऐसा भी नहीं कि वे दरख्त की तरह तने रहते थे। उनकी बिल्लौरी आंखें सदा हंसती दिखती और ओठों पर स्निग्ध मुस्कान हमेशा दौड़ती ही रहती थीं। वे सहृदय और मिलनसार भी थे। अपनी स्पष्टवादिता, साफ सुथरी छवि और कड़कपन के लिए वे सदैव याद किए जाते थे। रिश्वत की आंधी उनकी कदम को कभी भी झुका नहीं पायी थी।
लगभग पूरा ही दिन वे अपने चेंबर में अपनी कुर्सी से चिपके बैठे रहे। कुर्सी के बेक से पीठ टिकाते हुए उन्होंने अपने हाथों की उंगलियों को आपस में कस लिया था और सिर के पीछे रखते हुए निर्मिशेष नजरों से छत को घूर रहे थे। आकाश की तरह ही आफिस की छत भी सपाट व भावशून्य थी। एक ख्याल आता तो दूसरा तिरोहित हो जाता था।
उन्हें एक ही चिंता खाये जा रही थी। वे चाहते थे कि किसी तरह शारदा का विवाह हो जाए। उसके हाथ पीले हो जाए और वह अपनी घर गृहस्थी में रम जाए। अब तक शारदा को तीन लड़के देख चुके थे। हर बार आशा बंधती। फिर सूखी रेत की तरह हथेली से झर जाया करती थी। वे सोचते क्या कमी है शारदा में। पढ़ी लिखी है। हिस्ट्री में एम-ए किया है। वह भी फर्स्ट क्लास में। अब अंग्रेजी में एम-ए करने वाली है। लिटरेचर लेकर। तीखे नाक नक्श हैं। झील सी गहरी आंखें हैं। केश-राशि लम्बी है। छरहरी देह है। मीठा बोलती है। मिलनसार है। व्यावहारिक है। गुणों की खान होने के बावजूद केवल एक कमी है उसमें, उसका रंग थोड़ा सांवला है। सांवला होने के बावजूद वह सलोनी है। चेहरा फोटोजेनिक है। फिर भी वह किसी न किसी बहाने रिजेक्ट कर दी जाती है। पता नहीं, बेचारी के भाग्य में क्या लिखा-बदा है। अनायास ही उनकी आंखें छलछला आयी थी। चश्में की फ्रेम ऊंचा उठाते हुए उन्होंने रुमाल से आंखें पोंछ डाली थीं ।
यंत्रवत उनके हाथ टेबल से लगी कालबेल की बटन पर जा पहुंचे। कालबेल बजते ही चपरासी ने अंदर प्रवेश किया। सलाम ठोंका और अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। उन्होंने चपरासी को कड़क मीठी चाय लाने को कहा। आदेश लेकर चपरासी जा चुका था। उन्होंने टेबल पर पड़े सिगरेट केस को उठाया। सिगरेट निकाली। माचिस की तीली चमकायी और गहरा कश लेते हुए ढेरों सारा धुंआ छत की ओर उछाल दिया। छत अब भी निर्विकार भाव से टंगा था। ऊपर पंखा स्पीड से चक्कर घिन्नी काट रहा था। अब तक वे चार बार चाय पी चुके थे। आने वाली पांचवीं थीं। वैसे उनकी आदत में शुमार था कि वे एक चाय सीट पर बैठने के साथ ही सुड़कते थे और शाम को सीट छोड़ने के पहले दूसरी चाय। उनका मानना था कि सीट पर बैठते ही चाय इसलिए ली जानी चाहिए कि काम की शुरूआत के पहले मुंह एक हल्की सी मिठास के साथ मीठा हो जाए।

चाय की चुस्की लेते हुए वे एक लंबा कश लें ही पाये थे कि दरवाजे पर हल्की सी दस्तक सुनाई दी। वे कुछ कह पाते। होंठ बोलने के पूर्व फड़फड़ाये भी थे। शब्द होठों तक आ पाते इसके पूर्व ही पाटिल अंदर प्रवेश कर चुके थे। चाय की चुस्की पूरी तरह से हलक के नीचे उतर नहीं पायी थी। मुंह में भरा सिगरेट का धुंआ भी वे पूरी तरह उगल नहीं पाए थे। पाटिल को देखते ही जैसे पूरे शरीर में बिजली कौंध गई। वे पूरे जोश के साथ अपनी सीट से उठ खड़े हुए और अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाते हुए बोले, ‘‘आओ पाटिल आओ, बहुत दिन बाद आना हुआ, अब तक कहां गायब रहे?’’
पाटिल भी पूरे जोश से भरे हुए थे। थुलथुला शरीर होने के बावजूद भी उनमें चपलता-चंचलता थी। पल भर में दो मित्र जोश के साथ-साथ हाथ मिला रहे थे। बड़ी देर तक वे पाटिल के हाथ अपने हाथ में थामे रहे। फिर होठों पर स्निग्ध मुस्कान बिखेरते हुए उन्हें बैठने का इशारा कर स्वयं अपनी सीट पर बैठ गए। उनके हाथ कालबेल की स्विच पर जा पहुंची। घंटी बजते ही चपरासी फिर हाजिर हुआ। उन्होंने चाय-नाश्ता लाने को कहा। फिर पाटिल की आंखों में आंखें डालते हुए कहने लगे, ‘‘कहां गायब हो जाते हो पाटिल! तुम्हें देखने को जैसे आंखें तरस गईं।’’ वे कुछ आगे बोल पाते कि पाटिल ने चहकते हुए कहना शुरू कर दिया, ‘‘देख यार जोशी, मैं तेरे जैसा तो हूं नहीं कि दिन भर कुर्सी से चिपका पड़ा रहूं। तू जानता है। अपनी यायावरी जिन्दगी है। एक आजाद पंछी की तरह घूमता रहता हूं। एक बड़ी खुशखबरी है—-सुनेगा तो सिर के बल खड़ा हो जायेगा। बोल सुनाऊं।’’
‘‘एक तू ही तो मेरा जिगरी यार है——तू न होता तो मैं जिंदा रह पाता! बोल क्या खबर है।’’ पाटिल बोल पाये इसके पूर्व ही न जाने कितनी ही मीठी-मीठी कल्पनाएं, जोशी के अंदर बनती मिटती चलीं गई थीं।
पाटिल एक हाथ से बिस्कुट खाता जाता और दूसरे हाथ से चाय सुड़कते जा रहा था। वे सोचने लगे थे, बुढ़ापा आ गया पाटिल को लेकिन अब तक बचपना नहीं गया और वह है कि समय से पहले ही बूढ़ा हो गया है। उनकी नजरें अब भी पाटिल के चेहरे से चिपकी थीं।
चाय के घूंट के साथ बिस्कुट हलक से नीचे उतारते हुए पाटिल ने बताया कि वह अभी-अभी शोलापुर से लौटा है और आते ही सीधे यहां चला आया है। उसनेे एक लड़का देख रखा है शारदा बेटी के लिए। लड़का बड़ा होनहार है। पोस्ट ग्रेजुएट है। हैण्डसम है और वह कल दस बजे तेरे यहां पहुंच जाएगा। फिर चाय की घूंट हलक से नीचे उतारते हुए कहने लगा, ‘‘जोशी, भगवान दत्तात्रय की कृपा से सब ठीक हो जायेगा। मैं सब कुछ बता चुका हूं तेरे बारे में। उसे केवल लड़की चाहिए और कुछ नहीं। भगवान की दया से सब कुछ है उसके पास। पाटिल ने बहुत कुछ कहा पर वे सुन नहीं पाये थे। उनके कान में अब भी वे शब्द बार-बार गूंज रहे थे। लड़का ठीक दस बजे पहुंच जायेगा। बस इतना सुनते ही वे किसी तीसरे लोक में उड़ान भरने लगे थे। सुनते ही उनके शरीर में रोमांच आ गया था। आंखें सजल हो उठी थी। उन्हें ऐसा लगने लगा था कि सारे मनोरथ एक साथ पूरे होने वाले हैं। वे यंत्रवत कुर्सी से उठ खड़े हुए और अपनी विशाल बांहों में पाटिल को भर लिया था। वे अब और अपने आप को रोक नहीं पाए थे। उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली थी, जो पाटिल के कुरते को भिगो देने के लिए पर्याप्त थी।
पाटिल को छोड़ने के लिए वे तीसरी मंजिल से सीढ़ियां उतरते हुए गेट तक चले आए थे। वे चाहते तो लिफ्रट से सीधे उतर सकते थे। चाहकर भी वे वैसा नहीं कर पाये थे कि पाटिल से जितनी भी बातें की जा सकती थी, की जानी चाहिए। क्योंकि एक तो वे उनके जिगरी दोस्त थे और एक शुभ समाचार भी लेकर आए थे।
अपने चेंबर में लौटकर उन्होंने इंटरकाम पर अपने सचिव को सूचित किया कि वे जरूरी काम से चार घंटे पूर्व ही अपना कार्यालय छोड़ रहे हैं।
उनकी चाल में गेंद की सी उछाल थी। मन प्रसन्नता से लबरेज था। आशाओं के बुझते दीप फिर एक बार टिमटिमाने लगे थे। उन्होंने पाटिल से लड़के के बारे में बारिक से बारिक जानकारियां प्राप्त कर ली थीं। उसे क्या पसंद है? नाश्ते में वह क्या लेगा? खाने में क्या-क्या लेगा? काहे से आयेगा? कितनी देर तक रुकेगा? लड़का देखने के बाद स्वयं फैसला करेगा या फिर अपने आई-बाबा के कंधों पर जवाबदारी डाल देगा?
उन्होंने जेब में हाथ डाला। पर्स निकाला। पांच-सात सौ रुपये भरे पड़े थे जेब में। इतने से रुपयों में क्या होगा। मन ही मन बुदबुदाते हुए उन्होंने अपने आप से कहा था। रिस्टवॉच पर नजर डाली। तीन बज चुके थे। बैंक अथवा पोस्ट आफिस से रकम अब निकाल नहीं जा सकते थे। अभी इतने रुपयों में आवश्यक चीजें खरीद लेना चाहिये। कुछ रह भी जायेगी तो घर के पास की किसी दुकान से खरीदी जा सकती है। सुलभा के पास कुछ रुपये तो पड़े ही होंगे। लड़का आ भी रहा है तो महीने के अंत में इतने पैसे बच ही कहां पाते हैं कि हजार दो हजार की खरीद की जा सके। माह की पहली तारीख को तनख्वाह रूपी सूरज उगता है और माह के अंत तक आते-आते इतना निस्तेज हो जाता है कि सब्जी भाजी भी ढंग से खरीदी नहीं जा सकती।
एक मिनट से भी कम समय में उन्होंने कई बातों पर गहनता से सोच डाला था। एक डिपार्टमेंटल स्टोर्स में घुसकर अत्यावश्यक चीजें खरीदी। कार्टून में पैक करवाया और बस स्टॉप पर बैठ कर बस की प्रतीक्षा करने लगे थे।
महानगरों की बसें एक तो धीमी गति से नहीं चलती। चलती भी हैं तो हवाई जहाज की स्पीड से होड़ लेती है। समय पर आ ही जायेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं। आ भी गई तो दस-पांच पायदान पर लटके मिलेंगे। तरह-तरह के ख्याल मन को अशांत कर जाते। वे बस को आता देखते। अपना कार्टून संभालते। तब तक बस चरमराकर………………….

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