आज के बच्चों को अगर कल का
बेहतर नागरिक बनाना है, तो शिक्षा और
बाल साहित्य के बीच जो दूरी बढ़ गई है,
उसे खत्म करना होगा।
सितम्बर, 2023
राष्ट्रभाषा विशेषांक
लेख
दिनेश प्रताप सिंह ‘चित्रेश’
शिक्षा क्या है? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब समय-समय पर बदलता रहा है। सबसे पहले शिक्षा मुक्ति का साधन थी, फिर चरित्र निर्माण का निमित्त बनी। बाद में रोजगार के संसाधन में तब्दील हो गई। किन्तु कोई भी व्यक्ति जिसे शिक्षा का ककहरा भी पता होगा, वह ऐसी बात कहने की हिमाकत नहीं कर सकता कि पाठ्य पुस्तकें घोंटकर ढेर सारे नम्बर ले आना शिक्षा का मूल लक्ष्य है। जबकि आज की शिक्षा इसी मुकाम पर आ टिकी है।
शिक्षा में बाजारीकरण
शिक्षा स्वयं भटककर यहां नहीं पहुंची है, बल्कि बाजार की ताकतें और उसके फरेबी विज्ञापन तंत्र ने उसे यहां ला पटका है। सन् 1995 में ‘डंकल प्रस्ताव’ पर हस्ताक्षर हुआ था और इसी के साथ सरकार के हर उपक्रम में बाजार के प्रवेश के दरवाजे खुल गए। फलस्वरूप शिक्षा के क्षेत्र में भी निजी क्षेत्र की पूंजी का दखल बढ़ने लगा, जिससे शिक्षा में बाजारीकरण का एक नया सिलसिला विकसित होने लगा। अब तक शिक्षा में इसकी जड़ें काफी गहरी हो चुकी है और इसने हाल के वर्षो में बच्चों, अभिभावक और शिक्षा पर कई गैर जरूरी चीजें थोपी हैं। मसलन दिखावटीपन, भविष्य के निराधार सपने, प्रतिद्वंद्विता, कोचिंग, अंधानुकरण आदि। इसकी कीमत अभिभावक अपनी गाढ़ी कमाई से तो बच्चे अपना बचपन गवां कर चुका रहे हैं। मगर फिर भी प्राइवेट स्कूलों का ऐसा आकर्षण है कि गरीबी रेखा के नीचे जीने वाले मजबूर परिवार के बच्चों के अतिरिक्त अन्य अधिसंख्य बच्चे इन्हीं स्कूलों के छात्र हैं। इनमें आधे से अधिक विद्यालय भारतीय लोक जीवन में विद्यमान ज्ञान को सिरे से खारिज करके बच्चों में उसके प्रति वितृष्णा का भाव पैदा करते हैं।
‘इंग्लिश मीडियम’ का
रुतबा
कोढ़ में खाज वाली स्थिति यह है कि शिक्षा के नीति नियंता प्राइवेट शिक्षा को उचित दिशा देने के बजाय स्वयं भ्रम के शिकार हो रहे हैं। गांवों में खास-खास सरकारी प्राइमरी स्कूलों को ‘इंग्लिश मीडियम’ का रुतबा बख्शना इसी का एक नमूना है। यहां यह देखना प्रासंगिक होगा कि करीब-करीब अशिक्षित परिवारों से आने वाले इन स्कूलों के छात्र एक अनजान भाषा के जरिए क्या और कितना सीख पाएंगे? एक वक्त था, जब सामान्यतः शिक्षा के साथ गुणवत्ता, कौशल, मूल्य जैसे शब्द नहीं जुड़े थे। यह सब पूरी शैक्षिक प्रक्रिया के साथ दूध में शक्कर की तरह मिले जुले होते थे। तब शिक्षा मूलतः सूचना और तथ्यों को एक मस्तिष्क से दूसरे मस्तिष्क तक स्थानांतरित करने तक सीमित थी।
हमारे बचपन के दिनों में, यानी सातवें दशक के शुरुआती वर्षो तक यही शिक्षा थी। तब हमारे पास आज जैसी लकदक दुनिया भले न थी, मगर खेल का मैदान और गपशप का लम्बा चौड़ा संसार था। पढ़ाई का दबाव तो नाममात्र का था, सेकंड क्लास में पास होना बड़ी बात थी। हम पढ़ते कम थे, सीखते ज्यादा थे। हम कई-कई दिनंों तक चलने वाले विवाह आदि पारिवारिक आयोजन में खूब तफरीह काटते थे। बाग, नदी, झील के आसपास घूमने के हमारे पास ढेरों अवसर होते थे। हम प्रकृति और परिवेश का अवलोकन करते थे और स्कूल से मिली जानकारियों या उस जैसी संज्ञाओं को यहां खोज निकालते थे। इस प्रकार स्कूल की पढ़ाई हमारे बोध की सीमा में प्रवष्टि हो जाती थी।
ध्यान देने की बात है कि शिक्षा बोध तक पहुंचने के बाद ही ‘मूल्य’ में परिवर्तित होने की दिशा में आगे बढ़ती है। एन-सी-एफ- 2005 जो शिक्षा का महत्वपूर्ण दस्तावेज है, जोरदार ढंग से इंगित करता है-जब तक सीखने वाला पाठ को अपने जीवन संदर्भो से नहीं जोड़ लेता, तब तक वह सिर्फ सूचना बनी रहती है। सूचनाओं का परीक्षापयोगी मूल्य होता है, किन्तु यह जीवन मूल्य में नहीं परिवर्तित हो सकती है।
पत्रिकाओं व कहानियों
का प्रभाव
एक बड़ी बात यह भी है, तब हमारी शामें किस्से-कहानियों के बीज गुजरती थी। हमारे पास खेलगीत और पहेलियों के खजाने हुआ करते थे। विद्यालय में बालभारती, बालसखा, जीवन शिक्षा, राजा बेटा, रानी बिटिया, बेसिक बाल शिक्षा जैसी पत्रिकाओं के पैकेट साल में तीन चार बार आते थे। हमारे बीच इनका वितरण होता था। यह हमारे पाठशाला के माहौल को मनोरंजन से भरपूर और बोधगम्यता से परिपूर्ण बनाती थीं। इन पत्रिकाओं में छपने वाली वर्ग पहेलियों में छिपी नदियों, राजधानियों, इतिहास पुरुषों, वैज्ञानिकों, भाषाओं के नाम आदि जो हम खोजते थे, वह लम्बे समय तक हमारी स्मृति का हिस्सा बना रहता था।
शिक्षा मूलतः व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का उपक्रम है। व्यक्ति का बाह्य और आंतरिक दोनों पक्ष समाज स्वीकृत व्यवहार, आदतों, जीवन मूल्यों, आपेक्षाओं, सोच, मान्यताओं आदर्शो वगैरह का समुच्चय है। इसे अपेक्षाकृत स्तरीय, सुदृढ़ और गरिमापूर्ण बनाने में साहित्य कारगर हो सकता है, भारतीय चिंतन में इसके स्पष्ट प्रमाण ‘पंचतंत्र’ में उपलब्ध हैं। यह ग्रंथ बताता है कि महिलारोप्य नगर का राजा अमरशक्ति कलाप्रवीण और बुद्धिमान था, मगर उसके तीनों पुत्र बहुशक्ति, उग्रशक्ति और अनंतशक्ति निरक्षर, मूर्ख और उदंड थे। सुमति नाम के मंत्री की सलाह पर राजा अमरशक्ति ने अपने पुत्रें को शिक्षित और सुशील बनाने के लिए विद्वान ब्राह्मण विष्णु शर्मा के हवाले कर दिया।
विष्णु शर्मा ने राजकुमारों को शिक्षा देने का कार्य आरंभ किया। इसके लिए उन्होंने कहानियों का आधार लिया। विष्णु शर्मा ने जीवन की ढेर सारी स्थितियों की कल्पना की और उसे केन्द्र में रखकर मनोरंजक कहानियां गढ़ी। किस स्थिति में कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए, इसका कथाओं के जरिए निर्देशन किया। शिक्षा पूरी होते-होते विष्णु शर्मा अपने उद्देश्य में सफल हो चुके थे। महिलारोप्य नगर और अमरशक्ति की ऐतिहासिकता की खोज व्यर्थ है। ‘पंचतंत्र’ एक सच्चाई है। विद्वान इसे ईसा से दो सौ साल पहले की कृति बताते हैं। यह इस बात का जीता जागता प्रमाण है कि भारतीय मनीषा बाइस सौ साल पहले जान चुकी थी कि शिक्षा में कहानियां महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
शिक्षा और बाल साहित्य के बीच की दूरी खत्म करना होगा
कोठारी आयोग (1964-66) के अध्यक्ष शिक्षाविद डॉ- दौलत सिंह कोठारी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था -‘बालसाहित्य पढ़ने से बच्चे की ज्ञान संबंधी भावभूमि विस्तृत होती है और दृष्टिगोचर हो रहे वातावरण के प्रति वह अधिक संवेदनशील हो जाता है। यह बच्चों में प्रकृति, परिवेश और पर्यावरण के सजीव व निर्जीव घटकों को लेकर जिज्ञासा और जिम्मेदारी का भाव पैदा करता है। सामाजिक सरोकारों और मानवीय मूल्यों से जोड़ने में इसकी महती भूमिका होती है। यह जो प्राइवेट क्षेत्र की शिक्षा ने ढेर सारे मार्क्स लाने की होड़ पैदा कर दी है, यह मूलतः शिक्षा में एक नकारात्मक हस्तक्षेप है। शिक्षाविद लम्बे समय से यह महसूस करने लगे हैं कि आज के बच्चों को अगर कल का बेहतर नागरिक बनाना है, संवेदनशील मनुष्य के रूप में ढालना है, उनके अंदर सामाजिकता और समुदायिकता के गुणों की पुनर्स्थापना करनी है तो शिक्षा और बाल साहित्य के बीच जो दूरी बढ़ गई है, उसे खत्म करना होगा। बच्चों को ऐसा माहौल देना होगा, जहां वह पढ़ने-लिखने के साथ रचनात्मक भी बनें।
मुझे याद है सन् 1986 मे ं‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ अस्तित्व में आई थी, तब स्कूलों का सौंदयीकरण हुआ था और ढेरों बालोपयोगी पुस्तकें विद्यालयों में भेजी गई थी। रचनात्मकता को बढ़ावा देने वाले खिलौने भी आए थे। फिर देश के अधिकांश जिले ‘डी-पी-ई-पी-’ परियोजना से आच्छादित हुए। इसका लक्ष्य था कि विद्यालयीय गतिविधियों को इतना रम्य बना दिया जाए कि बच्चों को स्कूल पिकनिक स्पॉट प्रतीत हो। पढ़ाई लिखाई का ढर्रा बदलने के लिए ‘साधन’ नामक ट्रैनिंग का जो माड्यूल था, वह कहानी, खेल और रोचक गतिविधियों पर आधारित था। इसके अंतर्गत बच्चों में सूचनात्मकता के विकास के लिए प्रत्येक स्कूल से हर माह एक हस्तलिखित अखबार निकालने की बात थी। बौद्धिक विकास के परम्परागत साधनों-लोककथा, लोरी, खेलगीत, पहेली वगैरह को बच्चों के जरिए एकत्र करा के अभिलेखीकरण और संरक्षण की योजना भी शामिल थी। ‘साधन’ माड्यूल में एक बिंदु ‘कहानी: एक सफल संभावना’ भी था, जिसमें विभिन्न विषयों के शिक्षण को रोचक बनाने में कहानी की भूमिका पर विषाद चर्चा थी। हालांकि यह परियोजना कार्यकारी मशीनरी के चलते सफलता का सोपान न चढ़ सकी।
शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्देश्य बच्चों में उच्च जीवन मूल्यों की स्थापना होता है। स्थानीयता और नवाचार आधारित शिक्षा ही मूल्य निर्माण की अवधारणा पर खरी उतरती है। आज की तारीख में बच्चों पर खूब नम्बर लाने का जैसा दबाव है, उसके सामने इस विषय में सोचने में भी डर लगता है। नई शिक्षा नीति 2020 की रिपोर्ट पाठ्यक्रम को छोटा, लचीला और रचनात्मक बनाने पर जोर देती है। यह प्राथमिक शिक्षा को मातृभाषा में देने की बात भी करती है। इसका नवाचार और स्थानीयता पर भी फोकस है। तात्कालिक दबाव से निकलने या रणनीति के तहत प्राइवेट स्कूल भी बच्चों को स्थानीयता और मातृभाषा का विकल्प देने के लिए तैयार हो रहे हैं। मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या मां बाप अपनी महत्वाकांक्षा और अंग्रेजी के मोह से मुक्त होकर बच्चों को खुला आकाश देने को राजी होंगे?