पर्यावरण लेख
डा. अ. कीर्तिवर्द्धन
इस की सच्चाई क्या है, इसका समाधान क्या है? विज्ञान की दृष्टि को निजी स्वार्थो ने दबा दिया है।
जी हाँ, वातानुकूलित कमरे में बैठने वाले, गाड़ियों में चलने वाले तथा नदियों में रसायनयुक्त जल व नगर की नालियों का पानी मिलाने वाले प्रकृति के सबसे बड़े दुश्मन हैं, मगर विकास की परिभाषा ‘भौतिक सुख’ मानने वाले विकसित देश अपनी आर्थिक समृद्धि को बनाए रखने के लिए विकासशील देशों के मन-मस्तिष्क में यह बात बैठाने में पूर्णतया सफल है कि राष्ट्र का विकास भौतिक साधनों की वृद्धि से ही संभव है। कभी ग्लोबल वार्मिंग तो कभी जल संकट, ओजोन परत विवाद, प्रदूषण आदि सभी विषय विकसित देशों द्वारा फैलाए जा रहे भ्रम हैं।
भारत का आधार प्रकृति है। हमारे यहां जल, धरा, आकाश, वृक्ष, अग्नि, पत्थर सभी कुछ पूजनीय हैं। हमारी अवधारणा है कि ‘भगवान’ पांच तत्वों-भू, गगन, वायु, अग्नि व नीर से मिलकर बना है। प्रकृति के इन पांचों तत्वों की दिन-प्रतिदिन पूजा का प्रावधान ही भारतीय संस्कृति है। पीपल, नीम, तुलसी, बड (वट) आदि सभी वृक्षों की पूजा, सुरक्षा एवं संरक्षा, नदी, तालाब व सरोवरों का संरक्षण, वायुमण्डल को शुद्ध बनाए रखने के लिए हवन आदि सभी धार्मिक क्रियाएँ अन्धविश्वास नहीं अपितु प्रकृति को संरक्षित रखने के वैज्ञानिक एवं दूरदर्शी उपाय ही हैं।
आधुनिक वैज्ञानिकों का लक्ष्य समग्रता और पूर्णता के साथ सृष्टि का विकास नहीं है। प्रत्येक वैज्ञानिक एक निश्चित दृष्टि से (जिस प्रकार घोड़े की आंख पर कवच-मोहरा) देखता और शोध करता है तथा अपने शोध पर आधारित परिणाम प्रस्तुत करता है। स्वार्थी राजनेता, व्यापारी व संस्थाएं अपने लाभ के आधार पर इन विचारों का प्रचार-प्रसार करती हैं। भारत के गांव-गांव तक पैर पसारते घरों में लगने वाले ‘वाटर प्योरीफायर’ उपकरण इसी व्यापारिक सोच का परिणाम है। ऐसा प्रचारित प्रसारित किया जा रहा है जैसे कुँए, नहर या नल से पानी पीने वाले बीमार पड़ जाएंगे, मर जाएंगे, किसलिए? हो सकता है कि किसी नगर या क्षेत्र विशेष में कोई समस्या हो तो यह वहां की सरकार का दायित्व है कि समस्या का समाधान करे।
ग्लोबल वार्मिंग की बात करें तो बड़ी भयावह तस्वीर दिखाई जाती है। ऐसा लगता है कि हमारी धरती जल जाएगी, सारे ग्लेशियर पिघल जाएंगे, समुद्रों के किनारे वाले शहर डूब जाएंगे? यह भयावह डरावना दृश्य ही विकसित देशों के विकास का खेल है। यह कटु सत्य है कि नगर की तुलना में गांव में गर्मी का प्रकोप कम है। बाग-बगीचों में तापमान अत्यधिक कम है। नदियों, तालाबों व सरोवरों के नजदीक रात्रि में इतना ठंडा हो जाता है कि वहां बिना कपड़ा ओढ़े सो नहीं सकते। मगर किसी भी विकसित देश ने अपने यहां अथवा विकासशील देशों में वृक्षारोपण पर कोई जोर नहीं दिया। दूसरी बात ग्लोबल वार्मिंग से पिघलने वाली बर्फ आखिर कहां गई? नदियों में कहीं भी जलस्तर नहीं बढ़ा। भू-जल स्तर भी नहीं बढ़ा फिर वह पानी कहां गया? तीसरी बात-ग्लोबल वार्मिंग का असर अगर ग्लेशियरों के पिघलने पर पड़ रहा है तो इसका असर पानी के वाष्पीकरण पर भी तो पड़ना चाहिए। अगर पड़ रहा है तो वर्षा में वृद्धि क्यों नहीं? विश्व में सर्वाधिक वर्षा वाला चेरापूंजी भी अब बरसात को तरसता है। अब बात करते हैं-समुद्र के जल-स्तर के बढ़ने की तो यह बात तो बिल्कुल सच है कि समुद्र में जल-स्तर बढ़ रहा है, परन्तु क्या केवल ग्लेशियरों के कारण? विचार कीजिए-समुद्र के किनारों का अतिक्रमण कर नए-नए नगर बसाना, सभी औद्योगिक व नगरीय कचरे का समुद्र में निस्तारण, अत्यधिक मात्र में विशाल जलपोतों का समुद्र पर दबाव भी समुद्रीय जलस्तर बढ़ने के कारण हैं। विकसित देशों ने तो समुद्र के अंदर सड़कें, रेल लाईनें तथा दुबई जैसे आर्थिक सम्पन्न देशों ने विशाल बिलि्ंडगें समुद्र के अंदर ही खड़ी कर दी हैं।
ग्लोबल वार्मिंग के संदर्भ में वैज्ञानिकों द्वारा बताया जा रहा है कि इसके लिए ग्रीन हाऊस गैसें ज्यादा जिम्मेदार हैं। जिसमें कार्बन डाइआक्साइड का सबसे अहम कार्य है। कार्बन-डाइ-आक्साइड यानि CO2 का उत्सर्जन हम लोग अपनी सांस से भी करते हैं। अब भारतीय संस्कृति के इस पहलू पर भी विचार करें कि मनुष्यों के आवास के पास फल छायादार वृक्ष हों। पीपल, बड (वट) व तुलसी की पूजा व काटने पर पूर्णतया प्रतिबन्ध आखिर क्यों?
यही है वैज्ञानिक सच कि वृक्ष कार्बन डाइआक्साइड को खींचते हैं और बदले में ऑक्सीजन का उत्सर्जन करते हैं। पीपल आदि वृक्ष 24 घंटे ऑक्सीजन देते हैं यानि जितना भी कार्बन डाइआक्साइड का उत्पादन, वह सब वृक्षों द्वारा शोषण। जिस जगह वृक्षों की रखवाली, वहां गर्मी पर लगा निशान सवाली?
यानि गर्मी का सत्र बहुत कम परिणामतः ए.सी., फ्रिज की आवश्यकता खत्म अर्थात ग्रीन हाऊस गैस के उत्पादन में कमी। कहने का तात्पर्य यह है कि मुद्दा ग्लोबल वार्मिंग नहीं है अपितु मनुष्य द्वारा निज स्वार्थों में वन का संहार है-
सूरज को मत दोष दो,
जलना उसका काम,
वन-वृक्ष काटे हैं जिसने,
करो उसे बदनाम।
करो उसे बदनाम,
धरती पर प्रदूषण फैलाते,
नदियों में गन्दगी मिला,
पेयजल दूषित बनाते।
कहें‘‘कीर्ति’’सुनो गौर से,
पढ़े लिखे हो मूरख,
रोशनी-ऊर्जा बांटता,
जग का पालक सूरज।
अब बात करते हैं-धरती पर बढ़ते पेय जल संकट की। वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्लेशियर पिघल रहे हैं, समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है, नदियों का पानी प्रदूषित हो रहा है और इन सब के कारण पेयजल संकट बढ़ता जा रहा है। पेयजल संकट या प्रदूषित जल संकट का सबसे बड़ा कारण-विकसित एवं विकासशील देशों व स्वार्थी व्यापारियों की सोची समझी साजिश का बड़ा हिस्सा………………………………………….
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