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कोरोना के बाद——
बदहाल बचपन और पढ़ाई लिखाई

लेख दिनेश प्रताप सिंह ‘चित्रेश’

जाह्नवी फरवरी 2023 गणतंत्र विशेषांक

कोरोना के बाद बच्चों में एकांतप्रियता बढ़ गई है।
वे परिजनों और दोस्तों से कटे-कटे रहने लगे हैं। इसे मामूली बात मानकर
नहीं छोड़ा जा सकता है।

गत 2020 और 2021 के दो साल कोरोना की दुश्वारियों में गुजरे। यों तो इस महामारी की उथल-पुथल से जीवन का कोई भी क्षेत्र अछूता न रहा, पर इसका सर्वाधिक विनाशकारी असर बचपन और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर पड़ा। यह तो कोरोना की शुरुआत के साथ ही तय होने लगा था, अब दुनिया बहुत दूर तक बदल जाएगी। कम से कम पहले जैसी सहजता के लिए लम्बा इंतजार करना पड़ेगा। मगर यह अनुमान तो कतई नामुमकिन था कि हंसता मुस्कराता बचपन ऐसा स्तब्ध, सुस्त और नपे-तुले व्यवहार वाला बन जायेगा।
वैसे तो कोरोना के आने से काफी पहले बचपन दबाव में आ चुका था। इसकी बुनियाद ‘नेशनल एजुकेशन पालिसी 1986 के दिनों में पड़ गई थी। इसके तहत शिक्षा में बड़े पैमाने पर निजी क्षेत्र के पूंजी निवेश की राह खोल दी गई थी। शिक्षा मूलतः लोक कल्याणकारी राज्य का विषय है, व्यावसायिक घरानों का नहीं! कोई पैसे वाला स्कूल कालेज खड़ा करेगा तो लागत के सापेक्ष लाभ की अपेक्षा करेगा ही। यही यहां भी हुआ। शिक्षा से लाभ कमाने की प्रत्याशा में निवेशक उत्साह के साथ आगे आये। बड़े चमक-दमक वाले स्कूल कालेज तो खुले ही, प्रबंधन, तकनीकी और आयुष शिक्षा के संस्थान भी अस्तित्व ग्रहण करने लगे। कोटा, दिल्ली, प्रयागराज जैसे शहरों में फूलते-फलते कोचिंग को भी इस सिलसिले में बड़ा अवसर दिखाई पड़ा।
एडमिशन की तैयारी
सन 1990 में 95 के बीच इन संस्थानों ने अपने प्रचार तंत्र के बल पर मध्यम और निम्न मध्य आय वर्ग के अभिभावकों के मुर्दा सपनों में जान डाल दी। यानि यह मां-बाप अपने जीवन में जो लक्ष्य नहीं हासिल कर सके थे। वही डाक्टर, इंजीनियर, वकील, जज, प्रबंधक, वगैरह की छवि वे अपने बच्चों में देखने लगे। यहीं से बच्चों को कैरियरिस्ट बनाने का सिलसिला चल निकला। बच्चा दो तीन साल का हुआ नहीं कि पैरेंट्स पर स्कूल में नामांकन की धुन सवार होने लगी। खेलकूद और धमा-चौकड़ी से जबरन रोक कर उनको एडमिशन की तैयारी के नाम पर एबीसीडी और नर्सरी राइम रटवाई जाने लगी।
एक हमारा बचपन—–दादी-दादी या फिर नानी-नाना को घेरकर कहानी की फरमाइश और ‘आगे क्या होगा’ की उत्सुकता में डूबे हुए बचपन वाले भी क्या दिन थे? यह कहानियां मनगढ़ंत होती थी। राजा-रानी, परी, राक्षस, भूत-चुड़ैल, मायावी दानव, जादूगरनी का वास्तविक जीवन में भले ही कोई अस्तित्व नहीं होता। मगर इस प्रकार की हर कहानी हमारे अन्दर आशा की डोर को मजबूत करती थी। इसमें साहस, धैर्य, चतुराई, वीरता के रंग होते थे, जो हमारे अन्दर उत्साह का संचार करते थे। कहानी सुनने के बहाने हम बच्चे घर पड़ोस के बच्चों और बुजुर्गो से जुड़े रहते थे।
उजाड़ में जीने वाला बच्चा
हम बचपन में खूब खेलते थे। आंख मिचौनी मजेदार खेल होता था। गुल्ली डंडा बड़ा रोमांचक खेल था। लंगड़ी, कंचे, सतकोठवा और पेड़ पर चढ़ने के खेल खेले जाते थे। यह हल्के व्यायाम वाले खेल थे। एक लम्बा अर्सा गुजर चुका है, मैंने तितलियों के पीछे बच्चों को दौड़ते नहीं देखा। तितलियां भी अब कहां दिखती हैं? देखता हूं, शाम के वक्त पेड़ों पर कुछ पक्षी चहचहाते जरूर है, किन्तु वह पहले जैसा संगीतमयी कलरव नहीं होता है। इस उजाड़ में जीने वाला बच्चा भोलापन और रागात्मकता कहां से हासिल करेगा?
खुशहाल भविष्य और कैरियर की सौगात के नाम पर बचपन के नैसर्गिक वर्तमान को बेशर्मी से कुचलने का जो सिलसिला शुरू हुआ था, उसने उसकी भोली मुस्कान, चंचलता, हंसी ठट्ठा और सतरंगी कल्पनाओं को कुछ अवरूद्ध जरूर किया। मगर वह बच्चा भी क्या, जो अपने ‘बचपना’ के लिए गुंजाइश न बना ले। बच्चे वह झटका झेल ले गए। घर से स्कूल या स्कूल बस स्टॉप तक बच्चे हंसते खेलते हुए जाते थे। गली, मोहल्ले की खाली जगह या पार्क में क्रिकेट और बैडमिन्टन पर हाथ आजमाते थे। कोई खिलाड़ी बेईमानी करता तो झगड़ने से भी परहेज नहीं करते थे। घर में दोस्तों को बुलाकर कैरम, लूडो, वगैरह खेलते, हंसी-ठिठोली और मस्ती भी कर लेते थे। बावजूद इसके कि उन पर पढ़ाई का जबरदस्त दबाव हुआ करता था।
यह जो घर से स्कूल का रास्ता है। खेल का मैदान, विद्यालय परिसर और कक्षा-कक्ष है यह सह अस्तित्व, सामूहिकता, सहयोग, सहिष्णुता और समायोजन की नर्सरी है। यहां विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, सामुदायिक पृष्ठभूमि के साथियों के इंटरएक्शन से एक व्यापक समझदारी और सांस्कृतिक चेतना का विकास होता है। यह व्यक्तित्व निर्माण की नींव है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह संपूर्ण प्रक्रिया अध्यापकीय हस्तक्षेप से मुक्त सहज ढंग से सम्पन्न होती है।
कोरोना ने इसकी पूरी प्रक्रिया को बिगाड़ के रख दिया
भारतीय चिंतनधारा में शिक्षा व्यक्ति के सर्वांगीण विकास की उत्तरोत्तर प्रक्रिया है। चरित्र निर्माण, समाज कल्याण और ज्ञान के विकास की अवधारणा इसके प्रमुख आयाम हैं। कोरोना ने इसकी पूरी प्रक्रिया को बिगाड़ के रख दिया। महामारी के चलते स्कूल बंद हुए, बच्चे घरों में कैद हो गए। मोबाइल, लैपटॉप, टैबलेट वगैरह से पढ़ाई की शुरुआत हुई। यह जो शिक्षा थी, इससे बच्चे सूचनात्मक स्तर पर अवश्य समृद्ध हुए। किन्तु सूचनाएं और तथ्य ज्ञान नहीं होते। इसे हम ज्ञान निर्माण के रा मैटेरियल कह सकते हैं। यह पाठ्य सहगामी प्रक्रियाओं से गुजर कर ही ज्ञान में परिवर्तित होते हैं। कोरोना काल में इसकी गुंजाईश न के बराबर थी। वास्तव में जब बच्चे पाठयेत्तर गतिविधियों से व्यवहारिक अनुभव प्राप्त कर रहे होते हैं, तब सूचनाओं और अनुभव की अन्तर्क्रिया से ‘समझ’ का विकास होता है। समझ से ज्ञान और फिर ज्ञान मूल्य में परिवर्तित होकर व्यवहार का परिष्करण करता है। कोरोना काल में सारी पाठ्य सहगामी गतिविधियां ठप थी। इसलिए तब की पूरी शिक्षा साक्षरता की सीमा से आगे नहीं बढ़ पाई।
‘बचपन’ के लिए बहुत घातक
साक्षरता का संबंध पढ़ने-लिखने और बहुत हुआ तो तकनीकी कौशल से होता है। जबकि शिक्षित होने में उपर्युक्त गुणों के साथ नैतिक मूल्यों का भी जुड़ाव होता है। साक्षर व्यक्ति निर्मम कहे जाने वाले संसार का सामना करने में समर्थ होता है, मगर साक्षरता से ऊपर उठा शिक्षित व्यक्ति से संसार को बेहतर बनाने की उम्मीद की जा सकती है। कोरोना काल ‘बचपन’ के लिए बहुत घातक रहा। ‘आन लाइन शिक्षण’ को सफल नहीं कहा जा सकता है। पढ़ाई लिखाई और खेल के लिए बच्चों का एकमात्र साथी मोबाइल या लैपटॉप ही रह गया था। अधिक समय तक स्क्रीन के सामने बैठने से बच्चे इलेक्ट्रो मैग्नेटिक रेडिएशन से प्रभावित हुए। कम्प्यूटर विजन सिंड्रोम और नेत्र शुष्कता की दिक्कत का सामना करना पड़ा। आंख में लाली, सूजन, जलन, थकान और खुजलाहट की समस्या सामने आई।
बच्चों में अनिद्रा और तनाव के लक्षण भी दिखे। तनाव ऐसी समस्या है, जो रक्तचाप और पाचन तंत्र को अव्यवस्थित कर देता है। बच्चे मोटापा में भी ग्रस्त होने लगे। खतरनाक बात यह है कि बढे़ हुए वजन वाले दस से पन्द्रह प्रतिशत बच्चे डायिबटिक निकले। इस बीच बच्चों में झुंझलाहट और आत्म नियंत्रण खोने की स्थिति भी दिखी। कुछ बच्चे ‘टेक्सचर नैक’ से ग्रस्त हुए। यह उन लोगों में होता है, जो लैपटाप, कंप्यूटर या स्मार्ट फोन पर काम करते हुए गर्दन नीचे की तरफ झुकाए रहते हैं। अधिक समय तक इस मुद्रा में काम करने वालों की मसल्स इसी पोजीशन में फिक्स हो जाती है और बाद में गर्दन सीधी करने में दर्द होता है। कई बच्चे ऑनलाइन गेमिंग से होते हुए गैम्बलिंग के मैदान में जा पहुंचे। इसके लिए लूडो, कैंडी, तीन पत्ती, पाकर जैसे गेम की मदद ली गई थी।
कोरोना के बाद बच्चों में एकांतप्रियता बढ़ गई है। वे परिजनों और दोस्तों से कटे-कटे रहने लगे हैं। इसे मामूली बात मानकर नहीं छोड़ा जा सकता है। यह सामाजिक जीवन में व्यवहार कुशलता और सम्यक व्यक्तित्व विकास पर नकारात्मक असर डालने वाली स्थिति है। यह भी कम ताज्जुब की बात नहीं कि जो बच्चे छुट्टियों का इंतजार करते थे, वे छुट्टियों से ऊब गये हैं।
बच्चों का भोलापन, चुहलबाजी, हंसी ठट्टा सब कहीं खो गया है। वे असमय सयाने हो गए हैं। आत्मलीन से रहने लगे हैं।
शत प्रतिशत का चक्कर
अभी विभिन्न राज्यों की बोर्ड परीक्षाएं हुई, परीक्षार्थियों को लिखने में परेशानी का सामना करना पड़ा। अंगुलियों में दर्द की शिकायत भी रही। ऑनलाइन पढ़ाई और परीक्षा देने से की बोर्ड पर तो बच्चों की अंगुलिया तेज चलने लगी हैं, किन्तु पेन से लिखने की गति में भारी कमी आ गई है। अभी हाल में एन-सी-ई-आर-टी- ने ‘अखिल भारतीय शिक्षा सर्वे’ सम्पन्न किया है। इसमें यह तथ्य उभरकर सामने आया कि करीब 65 प्रतिशत बच्चे पिछले दो साल के अंदर हाथ से कागज पर लिखने में असहज महूसस करने लगे हैं। लिखावट भी खराब हुई है। हाथ से लिखा हुआ स्मृति में देर तक टिकता है। कहा जाता है, एक बार का लिखा हुआ पांच बार के पढ़े हुए के बराबर होता है। रहा की बोर्ड पर टाइप करने की बात तो इसमें 60 प्रतिशत ध्यान टाइप की टेकनिक पर केन्द्रित रहता है। 40 प्रतिशत ध्यान जो विषय पर होता है, वह भाषा की छोटी-छोटी ध्वनियों में बंटा होता है। इसमें हमारी स्मृति में कम ही बातें टिक पातीं हैं। सुन्दर लिखावट को कुछ लोग यह कहकर अक्सर खारिज कर देते हैं कि इसका कोई अलग से तो नम्बर मिलता नहीं, फिर इसके लिए इतना परेशान होने की क्या जरूरत है? यहां यह जानना प्रासंगिक होगा कि सुन्दर हस्तलिपि आत्मविश्वास को बढ़ाती है। परीक्षक अच्छी हस्तलिपि वाले प्रश्नोत्तर पर खुले हाथों नंबर देते हैं।
यह सत्य है कि कोरोना के चलते बचपन की सामान्य गतिविधि बिगड़ी। पढ़ाई-लिखाई चौपट हुई। मगर स्थितियां जिस तेजी से खराब होती हैं, उसी गति से सुधरती भी हैं। अब विद्यालय खुल चुके हैं। परिसर की चहल-पहल भी लौट ही आयेगी। धीरे-धीरे नियामक संस्थाओं को नंबर गेम की निर्थकता समझ में आने लगी है। इसलिए इधर शिक्षा मंत्रलय, एनसीईआरटी, राज्यों के शैक्षिक प्रशिक्षण एवं अनुसंधान परिषद, विश्व विद्यालय अनुदान आयोग और सीबीएससी संयुक्त रूप से इसके लिए प्रयास कर रहे हैं कि बच्चे शत प्रतिशत के चक्कर में अपना बचपन बर्बाद न करें। मैं यही कहूंगा, काश यह तत्काल हो जाए और बचपन पर लगा ग्रहण छंट जाए—–।

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