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कृष्णावतरण

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर ऐतिहासिक कथा
वैज्ञानिक संदर्भ में

कंस की मृत्यु का पथ तैयार हो ही गया-मतिमंद को
यह भी बोध नहीं कि जिसे वह इतने स्नेह से रथ में
बैठा कर लिए जा रहा है उसी की कोख से जन्मा पुत्र
उसके विनाश का माध्यम बनेगा।

कहानी
अशोक रस्तोगी

सितम्बर, 2023
राष्ट्रभाषा विशेषांक

द्वापर और कलियुग की संधि का संक्रमण काल—–भाद्र पप्रासन के कृष्ण पक्ष की सघन तिमिराच्छादित भयावह रातें श्यामवर्णी मेघ शृंखलाओं से घिरा संपूर्ण नभमंडल उत्तर भारत के एक देश शूरसेन की राजधानी मथुरा के राजकीय कारागृह के एक प्रकोष्ठ में कैदी देवकी बार-बार उदर शूल से छटपटा उठती थी। शूल असहय हुआ तो वह दीवार पकड़ कर खड़ी हो गई। और फिर पति वसुदेव के आगोश में आकर लेट गई। कराहते हुए बोली-‘देव अब तो सहन नहीं होता, कोई न कोई उपाय करो।’
वसुदेव ने पहले उसके उदर पर स्नेह से हाथ फिराया और फिर समीप रखा कोई लेप नाभि के चारों ओर लगाया-‘अब तो कुछ शांति मिली होगी देवी?’
‘ऐसा प्रतीत हो रहा है देव! जैसे इस उदर में पल रहा शिशु आज बाहर आने को उतावला हो रहा है।’ देवकी ने अपनी मलीन आंखें वसुदेव की आंखों में डाल दीं। वसुदेव का तन-मन प्रफुल्लित हो उठा-‘हां भर्ते! मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है कि वह और ज्यादा समय इस कैद में नहीं रह पाएगा।’
एक पल को देवकी का मलीन मुख कमल दल सा खिल उठा। लेकिन अगले ही पल मुरझा गया। हृदय में कोई शंका बलवती हो उठी-‘देव क्या वह नराधम कंस हमारी इस संतान को भी पिछली संतानों की तरह अकाल मृत्यु का ग्रास बना देगा? मुझे तो उसे भाई कहने में भी लाज आती है।’
और उस वेदनामयी नारी की आंखों में दूर-दूर तक दर्द का समुंदर लहराने लगा जो कुछ ही पलों में तटबंध तोड़कर छलक भी पड़ा। वसुदेव ने उसे स्नेहसिक्त स्वर में आश्वस्त किया-‘धीरज रखो देवी। शांत हो जाओ। इस संतान की हम प्रत्येक मूल्य पर रक्षा करेंगे। इसे हम उस नर विशाच के हाथों में नहीं पड़ने देंगे। मुझे ऐसा आभास हो रहा है देवी कि हमारी यह संतान युग परिवर्तन का द्योतक होगी। राष्ट्र पर घोर अमावस जैसे तिमिर को हटाकर रहेगी। मेरी अंतरात्मा कह रही है कि यह शिशु इस धरा पर प्रकाश पुंज बनकर अवतरित होगा।’
देवकी आश्वस्त होकर आंखें मूंद कर लेटी रही। परन्तु वसुदेव के हृदय की उद्विग्नता बढ़ गई। देवकी को आश्वस्त करने के लिए उन्होंने कह तो दिया कि इस संतान को हर मूल्य पर रक्षित करके रहेंगे। लेकिन यदि योजना सफल न हुई तो? यदि पापी कंस को पहले ही सूचना मिल गई तो? तो नहीं बचाया जा सकेगा। इस शिशु को भी उस हिंसक पशु के क्रूर हाथों से। शंका के कृमि बड़ी तीव्रता से मस्तिष्क में कुलबुलाने लगे–शंकाओं के मकड़जाल के साथ ही उनकी आंखों में दानवी अट्टहास करते क्रूर पिशाच का बड़े-बडे़ रक्तिम नेत्रें और रोबीली मूंछों वाला भयावह चेहरा विभिन्न रूपों में नृत्य करने लगा।
राज्य प्राप्ति की अभिलिप्सा कंस के संवेदनाशून्य हृदय में इतनी बलवती हो गई थी कि रिश्ते-नाते, प्रेम-प्यार, उचित-अनुचित, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, मानवता सभी अपना अर्थ खो चुके थे। यहां तक कि उसने अपने श्वसुर मगध नरेश जरासंघ के सहयोग से मथुरा पर न्यायप्रिय शासन कर रहे धर्मात्मा पिता महाराज अग्रसेन को बलात सत्ताच्युत कर शासन अपने हाथों में संभाल लिया था। प्रजा ने अन्याय का प्रतिकार करने की चेष्टा की तो उसने प्रजा पर भी अत्याचार करने प्रारंभ कर दिए। उसके सैनिक कृषकों से उनके कठिन परिश्रम की कमाई लूट ले जाते, कन्याओं का शीलहरण कर लेते। मदिरापान व द्युतक्रीड़ा में व्यस्त रहते। घरों में लूट मचा देते। कोई विरोध करने की चेष्टा करता तो उसे रस्सियों से घोड़े के पीछे बांधकर दौड़ा देते। कोई यज्ञ करता दिख जाता तो वहां भी विध्वंस मचा देते। और यदि कोई राजा से शिकायत करने जाता तो उस पर कोड़े बरसाए जाते। सहस्रों निरपराध, निर्दोष, धर्मात्मा मथुरावासी विभिन्न अपराधों में आरोपित करके कारागार का नारकीय जीवन जीने को बाध्य कर दिए गए।
कंस ने संपूर्ण राज्य में यह राजाज्ञा प्रसारित करा दी थी कि महादेव महाराज कंस ही सबके भगवान हैं। सब उन्हीं की प्रतिमा बनाकर पूजन अर्चन करें। उपासना करें।—-यदि कोई भी नागरिक किसी अन्य देवी-देवता की आराधना करता पापा गया अथवा यज्ञ हवन करता पाया गया तो उसका स्थान कारावास में होगा।
प्रजा त्रहि-त्रहि कर उठी। विश्व विधाता से याचना की जाने लगी-राष्ट्र का उद्धार करो प्रभु! अधर्मी और अत्याचारी शक्तियों से मुक्ति दिलाओ। अपना अवतार इस धरती पर अवतरित करो। जो मानवता की रक्षा करने में समर्थ हो सके। जो इस धरती पर व्याप्त अंधकार को मिटा सके। जो दुष्टों को निर्मूल कर सके, पापियों का नाश कर सके। हम सबकी रक्षा करो दया निधान।
कंस के पाशविक अत्याचारों की अनुगूंज मथुरा के परकोटों से निकलकर वन प्रांत में आश्रम बनाकर साधना कर रहे ट्टषि धौम्य के कानों तक भी पहुंची। हुआ यह था कि ट्टषि धौम्य के कुछ शिष्य नगर क्षेत्र में भिक्षार्जन कर रहे थे। राजा के सैनिकों ने उनसे भिक्षाटन का कर मांगा। न देने पर उन्होंने उनसे भिक्षा में प्राप्त हुआ अन्न व धन छीन लिया। और मारपीट कर भगा दिया। ट्टषि यह सुनकर बहुत आहत हुए। जिस राज्य में मुनियों और ब्रह्मचारियों तक का मान सम्मान सुरक्षित नहीं वहां सामान्य प्रजा की कितनी दयनीय स्थिति होगी? भीतर ही भीतर वे दुःखित भी हुए और क्षुधित भी। क्रोध में थरथराते हुए उन्होंने अपने कदम मथुरापुरी की ओर बढ़ा दिए।
राज्य सभा के द्वार पर पहुंचकर उन्होंने वज्रगर्जना कर डाली-‘शक्ति के मिथ्या अहंकार में चूर मदोन्मत सम्राट कंस, मेरी बात ध्यान से सुन। जो सम्राट प्रजा का शोषण करता है, प्रजा पर अत्याचार करता है, उसके साथ अन्याय करता है, मुनियों का अनादर करता है, उसका अंत शीघ्र हो जाता है।
कंस ने आकाश की ओर मुख करके दानवी अट्टहास किया-‘हां! हां! ट्टषि तू मूर्ख है। तू कंस की महाशक्ति से पूर्णतया अवगत नहीं, जिस कंस ने अपने पिता को कारागार में डाल दिया हो, मंत्री सामंत सैनिक सब जिसके अधीन हों, सारी शक्तियां जिसकी भुजाओं में कैद हों—–उसका अंत करने का साहस कौन कर सकता है?’
‘अहंकार ने तेरे बुद्धि विवेक पर अज्ञान का आवरण डाल दिया है दुरात्मा कंस! मिथ्याभिमान के कारण तू उस जगदीश्वर को भी भूला हुआ है जो सारे संसार को अपनी उंगली पर नचाता है। मूर्ख सम्राट। तेरा अंत कोई महाशक्ति नहीं करेगी, अपितु तेरे ही किसी रक्त संबंधी का पुत्र तेरी शक्ति का अंत करेगा। यह उस ट्टषि के मुख से निकला श्राप है जिसका तूने इस भरी राजसभा में अपमान किया है।’ ट्टषि की आंखों में चिंगारियां सुलग रही थीं। वे दूतगामी कदमों से उसी समय वहां से निकल गए।
अपने आश्रम में आकर उन्होंने एकांत चिंतन किया, मंथन किया, विचार किया—दुष्ट कंस का अंत कैसे किया जा सकता है? इस कंस के अंत के लिए किसे तैयार किया जाए? क्या योजना बनाई जाए? किसकी सहायता ली जाए? पूरी रात चिंतन में गीत गई परन्तु कोई निष्कर्ष नहीं निकल सका। तब उन्हें ध्यान आया ट्टषि संदीपन का——वही कोई न कोई राह सुझा सकते हैं।
और तत्काल उनके कदम अवंतीपुर ट्टषि संदीपन के आश्रम की ओर बढ़ते चले गए। पूरी रात गहन मंथन और विचार विनिमय हुआ, तात्कालिक उपजी गुत्थियां सुलझाई गई। और सूर्योदय होते ही दोनों के नेत्रें में आशा की किरणें झिलमिला उठीं—ट्टषि धौम्य की आंखों में महाराज अग्रसेन के कनिष्ठ भ्राता चंद्रवंशी यादव देवकी की पुत्री देवकी का अप्रतिम सौंदर्य आशापुंज बनकर चमक उठा। कंस उसे प्र्रेम भी अधिक करता है। उसी की कोख से जन्मे पुत्र को कंस हनन के लिए तैयार किया जा सकता है। तथा संदीपन ट्टषि ने मधुवन प्रांत के सूर्यवंशी राजा वसु के पुत्र वसुदेव का नाम देवकी के वर रूप में सुझाया।
दोनों ट्टषियों ने राजा वसु के पास पहुंचकर अपना मंतव्य व्यक्त किया तो वसु असमंजस में पड़ गए ऐसे अधर्मी और आततायी सम्राट कंस की भगिनी से पुत्र का परिणय क्या उचित रहेगा? यह संबंध हर दृष्टिकोण से अतार्किक रहेगा-किन्तु ट्टषियों की अवमानना भी तो नहीं की जा सकती थी।
वसु को उलझन में पड़े देख ट्टषि धौम्य ने उन्हें आश्वस्त किया-‘राजन! आज हमारे राष्ट्र को मगध नरेश जरासंघ, चेदि देश के राजा शिशुपाल, प्रागज्योतिषपुर के राजा नरकासुर तथा सम्राट कंस जैसी अनेकों राक्षसी शक्तियाें ने आतंकित कर रखा है। उनसे मुक्ति पाने के लिए किसी तेजस्वी, ओजस्वी, शक्तिशाली, पुरुषार्थी, दिव्य गुणों से परिपूर्ण व्यक्तित्व की प्रतीक्षा हर नर नारी कर रहा है। मन से न सही परन्तु राष्ट्र हित को सर्वोपरि मानते हुए यदि आप यह संबंध स्वीकार कर लेंगे तो राष्ट्र पर उपकार होगा। अवश्य ही एक दिन इससे राष्ट्र को एक नई दिशा प्राप्त होगी।’
और राजा वसु ने राष्ट्रहित में ट्टषियों का अनुरोध स्वीकार कर लिया। जबकि वसुदेव की एक परिणीता पत्नी रोहिणी पहले से ही थी।
फिर शीघ्र ही दोनों ट्टषियों की योजनानुसार वसुदेव का विवाह देवकी से सम्पन्न करा दिया गया। स्नेहाधिकता के कारण कंस दोनों को रथासीन करके स्वयं सारथी बनकर वसुदेव के गृहराज्य मधुवन की ओर चल पड़ा। सघन वन में रथ पहुंचा तो कहीं दूर से आता कोई स्वर कंस के कानों में पड़ा। शायद किसी ऊंचे टीले पर बैठा कोई ट्टषि रथ की ओर संकेत कर कह रहा था-तो कंस की मृत्यु का पथ तैयार हो ही गया-मतिमंद को यह भी बोध नहीं कि जिसे वह इतने स्नेह से रथ में बैठा कर लिए जा रहा है उसी की कोख से जन्मा पुत्र उसके विनाश का माध्यम बनेगा।’
कंस के माथे पर स्वेद बिंदु झिलमिला उठे—-कहीं ट्टषि सत्य ही तो नहीं कह रहा है? ट्टषि धौम्य ने भी तो कुछ ऐसा ही कहा था। इस ओर कभी उसने ध्यान ही नहीं दिया कि जिसे वह इतना स्नेह करता है वही उसकी मृत्यु का बीज रोपित करने जा रही है लेकिन कंस ऐसा कभी नहीं होने देगा। वह उस वृक्ष को ही नष्ट कर देगा जिसका बीज पौधा बनकर उसके विनाश का कारण बने।
वह चेहरे पर क्रूरता के भाव लाकर चिल्लाया-‘देवकी तू मरने के लिए तैयार हो जा! मैं तुझे जीवित नहीं देख सकता।’
देवकी के स्थान पर वसुदेव रथ से बाहर निकल आए और बोले-‘भ्रातश्रेष्ठ! आप तो अपनी इस भगिनी को अपार स्नेह करते हैं फिर इसे आप क्यों मारना चाहते हैं? देवकी ने आपका क्या अहित किया है? क्या अपराध है इसे निर्दोष फूल सी सुकुमारी का?’
कंस की भृकुटी वक्र हो गई-‘देवकी का अपराध यही क्या कम है कि उसकी कोख से जन्मी संतान मेरी मृत्यु का कारण बनेगी।’
वसुदेव ने हाथ जोड़ दिए-‘तो इसका दंड इस बेचारी देवकी को क्यों दे रहे हैं? दोष तो संतान का ही रहेगा न, उसी को मार डालने भर से निष्कंटक राज्य बना रहेगा।’
‘तो सुनो तुम दोनों!’ कंस उन दोनों से उन्मुख हुआ-‘आकाश को साक्षी मानकर मुझे वचन दो कि तुम दोनों के सहयोग से जो भी संतान उत्पन्न होगी। उसे तुम मुझे सौंपते जाओगे। ताकि मैं अपनी राह की बाधा दूर कर सकूं।—और हां! आज से तुम दोनों मथुरा कारागार में अतिथि के रूप में रहोगे! वहां तुम्हें भोग विलास के सब साधन व अन्य सुविधाएं उपलब्ध रहेंगी—बस रहोगे मेरे दृष्टि केन्द्र में।
और निष्कंटक राज्य के अभिलाषी दंभी क्रूर कंस ने रथ वापस मथुरा की ओर मोड़ दिया। मधुवन जाने का प्रयोजन भी क्या रह गया था?
उनकी कैद का समाचार हर कूल कंगारे को झिंझोड़ता हुआ समूची मथुरा नगरी में प्रसारित हो गया। जिसने भी सुना उसी का मुख नील गगन की ओर उठ गया-‘हे जगत नियंता दया करो। इस राक्षस के सर्वनाश के लिए कोई तो महाशक्ति धरती पर अवतरित करो।’
कारागृह के कक्ष में देवकी ने प्रथम पुत्र को जन्म दिया तो उसका रोम-रोम नृत्य कर उठा-‘देखो जी! कितना सुंदर शिशु है, चेहरा भी कैसा गोल मटोल है, और आंखें भी कितनी बड़ी-बड़ी सी हैं। देह भी हृष्ट-पुष्ट है जैसे एक वर्ष का बालक हो। हम इसका नाम मनमोहन रखेंगे। आपको पसंद है न?’
लेकिन अगले ही पल चेहरे पर छाया उल्लास अवसाद में परिणत हो गया। द्वार पर नरपिशाच खड़ा बड़ी देर से दैत्यों वाली आंखों से शिशु को घूर रहा था-‘ला! इस बालक को मुझे दे दे! तू ने वचन दिया था न मुझे?’
मां की ममता भाई के पैरों में सिर रखकर गिड़गिड़ा पड़ी-‘इसे छोड़ दो भ्राता इसकी जगह मेरे प्राण ले लो।’
‘भूल गई अपना वचन? दूर हट! कंस ने उसे जोर से धक्का दिया तो वह पीछे की ओर गिर पड़ी। कंस ने आगे बढ़कर शिशु को उठा लिया। और तत्काल यमपुरी का द्वार दिखा दिया।
‘देवकी रोती रही, बिलखती रही और फिर चेतना शून्य होकर पीछे की ओर गिर पड़ी। और फिर उसके बाद दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी, छठी बार देवकी गर्भधारण करती गई, शिशुओं को जन्म देती गई। और निष्ठुर हृदयी दैत्यराज उन कोमल कलित कलिकाओं को जीवन के प्रथम प्रभात में ही प्रमर्दित करता गया। अभागे शिशु आंखें खोलने से पूर्व ही इस संसार से विदा कर दिए गए। अत्याचार सहते-सहते देवकी टूट ही गई।
सातवें गर्भधारण के समय वह वसुदेव से वेदनामयी स्वर में बोली-‘यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा देव? क्या मेरी कोख की यही नियति है कि यह अकाल मृत्यु के लिए संतानोत्पत्ति करती रहे। कब मिलेगी मुझे इस अभिशाप से मुक्ति?
‘देवी समझो कि मिल चुकी इस अभिशाप से मुक्ति।’ द्वार पर नंदगोप को देखकर दोनों ही चौंक पड़े।
‘मेरी योजना तुम दोनों ध्यान से सुनो! मैंने यहां के राज कर्मचारियों, बंदी रक्षकों तथा द्वारपालों आदि सभी को तात अग्रसेन के सहयोग तथा प्रलोभन से अपने विश्वास में ले लिया है। क्योंकि ये सब भी कंस के अत्याचारों से आहत हैं। इसलिए प्रत्यक्ष में तो ये सब सम्राट के अनुचर हैं परन्तु अप्रत्यक्ष रूप में हमारे विश्वास पात्र हैं। अतएव इस बार तुम्हारी कोख से जो संतान उत्पन्न होगी उसे गोपनीय रूप से गोकुल पहुंचा दिया जाएगा। और उसे रोहिणी की संतान घोषित कर तुम्हारे गर्भ को पतित सिद्ध कर दिया जाएगा।’ नंदगोप ने उन्हें अत्यधिक धीमें स्वर में अपनी योजना समझाई तो देवकी मन मयूर नृत्य कर उठा—-नंद भैया कितने सच्चे हितैषी हैं हमारे सहोदर से भी ज्यादा।
और जब उसने सातवीं सतान को जन्म दिया तो वह भी पुत्र ही था।
जन्मते ही उसे गोकुल में रोहिणी के पास भेज दिया गया। अंधेरी रात में यमुना तट तक उसे स्वयं वसुदेव पहुंचा आए थे। तथा आगे नंद गोप ने संभाल लिया था। किसी को कानों कान भी पता नहीं लग सका था।
भोर होते ही कंस वहां आ धमका-‘ला बहन रात जन्मी संतान मेरे हाथों में सौंप दे-‘गर्भ नष्ट हो गया भ्राता। मांस के लोथड़े को नदी में बहा दिया गया है।’
‘मुझे क्यों नहीं दिखाया? कंस विश्वास नहीं कर पा रहा था कि देवकी जो कह रही है वह सत्य है? लेकिन विश्वास करने के अतिरिक्त और कोई चारा भी नहीं था। फिर भी विश्वास की दीवार हृदय के भीतर खड़ी ही रही। विभिन्न प्रकार की शंकाएं जन्मती रहीं, मिटती रहीं। उसने कारागृह में बंदी रक्षकों की संख्या बढ़ा दी और कारागार प्रमुख को कर्कश आदेश दिया-‘यहां घटित होने वाली गतिविधियों की पल-पल की सूचना मुझे मिलनी चाहिए। ऐसी कठोर सुरक्षा व्यवस्था हो कि देवकी कक्ष में परिंदा भी न प्रविष्ट होने पाए। और ध्यान रहे कि राजाज्ञा की लेशमात्र भी अवहेलना का अर्थ होगा-मात्र मृत्यु दंड——मृत्यु दंड के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।’
धौम्य ट्टषि को देवकी के आठवीं बार गर्भवती होने का पता चला तो उन्होंने योग बल और नक्षत्रें की गणना के आधार पर अनुमान लगा लिया कि यदि यह संतान रोहिणी नक्षत्र में उत्पन्न हुई तो निश्चित रूप से महान आत्मा के रूप में अवतरित होगी। उन्होंने नंद गोप को कुछ शास्त्रेक्त दिव्य औषधियां विशेष निर्देश के साथ देकर देवकी के पास भेजा।
निशावसान व सूर्योदय के संधिकाल में जब प्रायः सभी लोग नित्य कर्मो से निवृत होने की तैयारियों में लगे होते हैं नंद गोप माली वेश में पुष्प देने के बहाने देवकी के सामने प्रकट हुए-‘भाभी! ट्टषि धौम्य द्वारा प्रदत्त इन शास्त्रें में वर्णित उपायों एवं दिव्य औषधियों का प्रयोग निरंतर करना होगा। और दैनिक यज्ञ के उपरांत ईश्वर से प्रार्थना करनी होगी कि हे सृष्टि रचयिता! हे अंतर्यामी! हे जगदीशवर! मेरी कोख से ऐसे वीर पुत्र को जन्म दो जो विद्या और बल में अद्वितीय हो, जो अपने अद्भुत शौर्य पराक्रम और विद्वता से धरती पर व्याप्त तिमिर का नाश कर सके। और भाभी! ट्टषिराज ने यह भी निर्देश दिया है कि आप हर पल किसी ऐसे ही गुणवान अलौकिक प्रतिभाशाली बालक की छवि अपने हृदय पटल और नेत्रें के सामने रखना। साधनामय जीवन व्यतीत करना और स्वप्न में भी कोई विकार मन में मत आने देना।’
फिर वे वसुदेव से केन्द्रीत हो गए-‘और वसुदेव भैया! तुम भाभी को ईश्वर भक्त पुरुषार्थियों के शौर्य पूर्ण कृत्यों की गाथाएं नित्य सुनाते रहना। अपनी सौम्यता, शालीनता तथा सदाचरण से राज्य कर्मचारियों व द्वार प्रहरियों को अपना वशवर्ती बनाने का प्रयास करते रहना। तथा कोई भी नकारात्मक अथवा निराशाजनक विचार भाभी के मन में मत आने देना।’
चलते समय एक बार पुनः पलटे थे नंद गोप और वसुदेव के कान में यह रहस्योद्घाटन भी कर गए थे-‘मेरी पत्नी यशोदा भी गर्भवती है। तुम्हारे पुत्र की रक्षा के लिए मुझे यदि अपनी संतान की भी बलि देनी पड़े तो भी पीछे नहीं हटूंगा।’

सहसा आकाश में हुई मेघों की गड़गड़ाहट ने वसुदेव की विचारधारा को भंग कर दिया। वसुदेव ने झांक कर देखा-चारों ओर भयावह तिमिर अपनी काली चादर का थान फैलाए पसरा पड़ा था। आकाश में छाई काली-काली घटाएं बरसने को आतुर थीं। यदा-कदा विद्युत वन्हि भी भयंकर तड़तड़ाहट के साथ पल भर के लिए अपनी चमक दिखा कर शांत हो जाती थी। विद्युत के उसी क्षणिक प्रकाश में वसुदेव ने देखा कि सभी द्वार प्रहरी गहरी निद्रा के आगोश में समाए पड़े हैं। वे दबे पांव मुख्य द्वार प्रहरी के समीप आए और उसके कान में फुसफुसाए-‘बंधु तुमने वह मधुगोलकों का प्रसाद तो सभी में वितरित कर दिया था न जो देवालय का पुजारी तुम्हें दे गया था?’
‘हां भ्रातश्रेष्ठ! तभी तो ये सब बेसुध होकर सोए पड़े हैं।’ उसने वसुदेव को आश्वस्त किया-‘यहां जो कुछ हो रहा है उसकी भनक कानोंकान भी किसी को नहीं लगने पाएगी। आप हर प्रकार से निश्चिंत रहिए। हमारी स्वयं की अभिलाषा भी तो यही है कि कोई तो पैदा हो इस दुष्ट का नाश करने के लिए।’
उधर धौम्य ट्टषि अपने आश्रम में अपनी आंखों से दूरवीक्षण यंत्र लगाए आकाश में खोए पड़े घनघोर अंधकार और श्यामवर्णी मेघ शृंखला जो उनके अन्वेषण में बाधक बने हुए थे के छंटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। आकाश का एक सूक्ष्म भाग कुछ देर के लिए स्वच्छ हुआ तो उनकी दृष्टि एक बिन्दु पर जाकर एकाग्र हो गई। और वे स्वयं ही बुदबुदा उठे-‘रोहिणी नक्षत्र में इस पल में जन्म लेना चाहिए देवकी के गर्भस्थ शिशु को, यदि वह इस शुभ नक्षत्र में इस धरती पर अवतरित हो जाता है तो निश्चित रूप से ईश्वरीय अवतार सिद्ध होगा। उसकी ख्याति दिग्दिगंत तक फैलेगी।’
और उस घनघोर तिमिर कालजयी रात्रि में उन्होंने अपने कदम मथुरा की ओर बढ़ा दिए-बिना आंधी तूफान व वर्षा की चिंता किए।
ट्टषि की गणना का अनुमान एकदम सटीक निकला। रोहिणी नक्षत्र ही था वह जब देवकी गर्भस्थ शिशु गर्भ से बाहर निकलकर क्रंदन करने लगा। वसुदेव खुशी से झूम उठे-‘युगावतार ने जन्म ले लिया है। अब इस धरती का अंधकार मिटकर रहेगा। दुष्टों का नाश होकर रहेगा। युगावतार के पिता के रूप में मेरा नाम भी संसार में चमक उठेगा।’
लेकिन देवकी प्रसन्न नहीं हुई। उसका मन गहरे अवसाद में डूब गया-‘आर्य क्या इसे भी वह नरपिशाच मेरी पिछली संतानों की तरह मिटा डालेगा?’
‘धैर्य रखो देवी! इस बार ऐसा नहीं होगा। और फिर हमारी इस संतान को तो ट्टषियों का भी आशीर्वाद प्राप्त है। इसका अनिष्ट कोई कैसे कर सकता है? वसुदेव ने देवकी को आश्वस्त किया और नवजात शिशु को कपड़ों में लपेटकर, सूप में रखकर कक्ष से बाहर निकल पड़े। बंदी रक्षक और द्वार प्रहरी सभी गहरी नींद में सो रहे थे। केवल बंदीगृह प्रमुख जाग रहा था। उसने वसुदेव के लिए स्वयं ही द्वार खोल दिया।
वर्षा का तांडव अब भी जारी था। वसुदेव गहरी चिंता में पड़ गए। भींगने से नवजात शिशु को कैसे बचाएं? रुका भी नहीं जा सकता था, समय बहुत सीमित था–प्रबल वेग से बहती अथाह जलराशि वाली यमुना को भी पार करना था और निशावसान से पूर्व लौट भी आना अत्यावश्यक था। चिंता बढ़ती चली गई। तभी किसी भवन की ओट में खड़ा एक पतला लंबा गहरे वर्ण का व्यक्ति उनके समीप आया और शिशु के ऊपर छत्र लगाकर साथ-साथ चलने लगा। वसुदेव की आंखों में शंका के बादल उमड़ आए—कहीं यह काले नाग जैसा पुरुष कंस का गुप्तचर हुआ तो?—अभियान पूर्ण होने से पूर्व यदि उसने कंस तक समाचार पहुंचा दिया तो?–तो सारी योजना ही विफल हो जाएगी।
और उनके कदम स्वयं ही ठिठक गए-‘बंधु तुम जाओ! अपने कार्य में लगो। इस शिशु को वर्षा से मैं स्वयं बचा लूंगा।’
नागपुरुष वसुदेव के हृदय में उपजे शंकित भाव ताड़ गया-‘मित्र वसुदेव! अकारण शंका मत करो। मैं तुम्हारा शत्रु नहीं हितैषी हूं। मेरा नाम ज्ञानेश्वर है। मुझे नंद गोप ने विशेष निर्देश के साथ यहां भेजा है कि मैं तुम्हारा सहयोग करूं। एक बात और बता दूं मित्र! तुम यमुना तट तक तो स्वयं जा सकते हो। लेकिन उसे पार करना अत्यंत दुष्कर है। यमुना इस समय जल विभीषिका से जूझ रही है। जल का प्रवाह बहुत भयंकर है। अथाह जल के गर्जन से भी भय लगता है। यदि आप नवजात शिशु को जल में गिरा बैठे तो? लेकिन आप भय मुक्त हो जाइए। मैं जानता हूं कि वह स्थान जहां पर जल उथला है तथा प्रवाह का वेग भी काफी कम है। उस स्थान से सरलता से पार किया जा सकता है। यमुना पार करने के उपरांत मैं वापस लौट जाऊंगा।’
वसुदेव के ओष्ट बुदबुदा उठे-‘दया करो दयानिधान! सबकी सहायता करो। सबकी सर्वविध रक्षा करो।’
और उसी समय हुआ प्रकृति का एक अद्भुत चमत्कार–यमुना का तट आते-आते वर्षा का कोप शांत हो गया। जल प्रलय भी शांत होने लगी। तब यमुना का जल भी उतरने लगा। प्रवाह भी बहुत कम हो गया। मानो यमुना ने भी उस नवजात को पार उतरने के लिए सुगम राह प्रदान कर दी हो।
दूसरे तट पर खड़े नंद गोप ने वसुदेव को आते देखा तो प्रसन्नता और उत्साह के अतिरेक में कह उठे-शीघ्र आ जाओ मित्र! मैं इधर खड़ा हूं। और बिना एक भी पल गंवाए वसुदेव ने अपने सूप में रखे शिशु को नंद के हाथों में सौंप दिया। तथा नंद ने अपनी कन्या को उनके सूप में रख दिया। पलांश भर को नंद का हृदय भारी हो गया था। उसकी कन्या काल के हाथों में जा रही थी। यशोदा को इस उत्सर्ग हेतु तैयार करने में भी उन्हें बहुत परिश्रम करना पड़ा था–मां की ममता अपने हृदय खंड का बलिदान करने को जब तैयार हुई तो ओष्ठ ऐसे सिल गए थे जैसे कभी खुलेंगे ही नहीं। आंखों से एक भी आंसू बाहर नहीं निकलने दिया था। न ही कंठ से हल्की सी भी चीत्कार निकलने दी थी—-कानों कान भी किसी को भनक न लगने पाए कि अवतार कहां किस घर में हुआ है? राष्ट्र हित में कितना महान त्याग, कैसा अनुपम बलिदान था यशोदा का।
वसुदेव कन्या को लेकर जब कारागृह में पहुंचे तब तक निशावसान नहीं हुआ था। द्वार प्रहरी आदि सब उसी प्रकार सोए पड़े थे जैसे कि वे छोड़ गए थे। देवकी की आंखों के आंसू सूख चले थे। और विलाप कंठ में सिमटकर रह गया था। टकटकी बांधे वह द्वार की ओर निहार रही थी। वसुदेव को देखते ही उसने उनसे कन्या को छीनकर अपने वक्ष से लगा लिया-‘अभागिन तू क्यों चली आई अपने जीवन की आहुति देने के लिए? तेरा तो कोई नाम भी नहीं जान सकेगा। कौन स्मरण रखेगा तेरे इस बलिदान को? तेरी तो अभी ढंग से आंखें भी नहीं खुली और तू इस संसार से विदा लेने चली आई?’
भोर का उजाला धरती पर उतरते ही कारागृह प्रमुख ने कंस तक देवकी की पुत्री का समाचार भिजवाया तो नराधम तत्काल ही आ धमका। और देवकी के हाथों से कन्या को छीनकर पहले तो भयावह अट्टहास किया और फिर उसका सिर निष्ठुरता से दीवार पर पटक दिया। रक्त के अनगिनत फव्वारे दूर-दूर तक छिटक गए।
धौम्य ट्टषि कहीं दूर खड़े इस वीभत्स परिदृश्य को अपलक निहार रहे थे। वे कहीं से बोल पड़े ‘मूढ़मते! मृत्यु वह शाश्वत सत्य है जिससे आज तक कोई भी नहीं बच सका, तो तू कैसे बच सकेगा? अरे पागल! जिस मृत्यु से बचने के लिए तू इन निर्दोषों को अकाल मृत्यु के मुख में धकेल कर अपने सिर पर पापों का बोझ बढ़ा रहा है, उससे तुझे कोई नहीं बचा सकेगा। तेरा विनाश करने के लिए तो अवतार का अवतरण इस पृथ्वी पर हो भी चुका है।’
कंस ने स्वर की दिशा में मुड़कर देखा तो वहां कोई नहीं था। ट्टषि धौम्य द्रुतगामी कदम रखते हुए वहां से जा चुके थे।
तभी कंस को ध्यान आया कि ट्टषियों की भविष्यवाणी तो शायद किसी पुत्र के द्वारा की गई थी। उसका मस्तिष्क चकरघिÂी की तरह घूम गया—तो फिर उसने इस कन्या को अकारण ही मार डाला? उसने अपना सिर पकड़ लिया। लेकिन अगले ही पल उसे पुनः ध्यान आया कि मृत्यु की भविष्यवाणी तो यदुकुल में जन्में किसी शिशु द्वारा की गई है वह बुरी तरह बौखला उठा।
यकायक उसकी भंगिमा वक्र हुई और उसने अनुचरों को कर्कश आदेश दे डाला कि यदुकुल में जन्में नवजात पुत्रें को खोज-खोज कर मार डालो! एक भी जीवित न बचने पाए।
परन्तु जिस अवतार को परमेश्वर ने धरती पर अवतरित ही दुष्टों के निर्दलन और धर्म की स्थापना के लिए किया हो, बिना लक्ष्य पूर्ति के उसका अनिष्ट भला कोई भी कैसे कर सकता है? कंस के सैनिक उसकी परछाई को भी नहीं छू सके।
कुछ ही समय उपरांत धौम्य ट्टषि अपने शिष्यों के साथ भ्रमण करते हुए गोकुल जा पहुंचे। और यशोदा के आगोश में पल रहे शिशु के सिर पर अपना स्नेहसिक्त हाथ फिराते हुए बोले-‘यह बालक भादों की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को जन्मा है, इसलिए इसका नामकरण कृष्ण के रूप में ही किया जाना चाहिए। अब वह दिन दूर नहीं जब यह तेजस्वी बालक धरती पर पसरे पडे़ अंधकार को अपनी विलक्षण मेधा, बल, पौरुष तथा अलौकिक गुणों से दूर कर न्याय धर्म की स्थापना करेगा।’

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