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कुहासा

संस्मरण (रा.स्व.संघ संदर्भ) डॉ. अशोक रस्तोगी

जाह्नवी फरवरी 2023 गणतंत्र विशेषांक

एक अच्छा स्वयंसेवक वह होता है जो
विषम परिस्थितियों में भी न तो विवेक खोता है,
न विचलित होता है, न घबराता है, न डरता है।

सन् 1985 आयुर्वेदिक महा-विद्यालय हरिद्वार में शिक्षार्जन कर रहा था मैं। उपनगरी कनखल में आवास था मेरा। कानपुर से इक्कीस दिवसीय स्नातक संघ शिक्षा वर्ग में प्रथम वर्ष करने के उपरांत मुझे दक्षेश्वर महादेव मंदिर कनखल के प्रांगण में लगाई जाने वाली सांध्यकालीन शाखा के मुख्य शिक्षक का दायित्व सौंपा गया।
मैंने उस शाखा से बाल एवं किशोर वयः के बहुत सारे स्वयंसेवकों को जोड़ दिया। शरीर में ऊर्जा थी, शक्ति भी, उत्साह भी और समय भी। अतएव बहुत उमंग और उत्साह के साथ शाखा में नित्य प्रति खेल-कूद, शारीरिक योग व्यायाम, गणगीत, विषय चर्चा, बौद्धिक, प्रार्थना आदि गतिविधियां सुचारू रूप से संचालित की जातीं।
शाखा में उस समय के सुप्रतिष्ठ व्याकरणाचार्य कीर्तिशेष आचार्य किशोरी दास वाजपेई का सुपौत्र ‘अनुभव’ तथा नगर कार्यवाह श्री संतलाल जी का दस वर्षीय पुत्र ‘अभिषेक’ भी नियमित रूप से आते थे। इन सभी स्वयंसेवकों को मैं प्रत्येक रविवार को अपने आवास पर बुलाकर संस्कृति, संस्कार और सामान्य ज्ञान पर चर्चा करता था तथा गजक, रेवड़ी, मूंगफली, फल, लड्डू आदि का जलपान कराता था। जिससे सभी मुझसे बहुत घुल मिल गए थे और मेरे विश्वासपात्र भी बन गए थे। मेरा भी एकाकीपन दूर हो गया था। और उन सबके बीच मुझे भी पारिवारिकता का आभास होने लगा था। क्योंकि कोई न कोई मुझे अपने घर जलपान अथवा भोजन पर आमंत्रित करता रहता था।
तभी आकस्मिक रूप से हमारी शाखा में एक नन्हा सा व्यवधान आ उपस्थित हुआ। शाखा में कबड्डी खेलते समय नगर कार्यवाह का पुत्र अभिषेक दूसरे स्वयंसेवक खिलाड़ी से गुत्थमगुत्था हो गया। मैंने बलपूर्वक दोनों को अलग किया तो अभिषेक धक्का खाकर कुछ ऐसे कोण से नीचे गिरा कि दर्द से चीखते हुए बाएं कंधे को पकड़ कर रह गया। मैंने उसके कंधे को सहलाने का प्रयास किया तो उसने हाथ नहीं लगाने दिया तथा बहुत जोर से चीखने लगा। उसकी चीखें सुनकर आते जाते लोग भी रुक गये और लगे विभिन्न प्रकार के बिन मांगे परामर्श देने। कोई कहता कंधे की हड्डी टूट गई है, जल्दी से अस्पताल ले जाओ। कोई उसके कंधे पर हाथ फिराते हुए किसी अनुभवी जर्राह की तरह राय देता हड्डी वगैरह कुछ नहीं टूटी, कंधा उतर गया है जम्मू पहलवान के पास ले जाओ। कंधा हाथों हाथ अपनी जगह बैठा देगा—-कोई ब्रुफेन खिलाने की राय देता तो कोई आयोडैक्स मलने की।
मैं अपराधबोध से जड़वत और किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रह गया। कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करूं क्या न करूं?
खैर—–तत्काल हमने विधिवत आरमः और दक्ष के बाद प्रार्थना की।
और मेरे बिखरते उत्साह व साहस को उस समय थोड़ा सा सम्बल मिला था जब मेरी निगाह सबसे पीछे खड़े अभिषेक पर पड़ी——दर्द से चीखने चिल्लाने वाला अभिषेक न जाने किस शक्ति के वशीभूत बाएं कंधे को दाएं हाथ से सहारा दिए शांत भाव से प्रार्थना की पंक्तियां दोहरा रहा था।
ध्वज प्रणाम और संघ विकिर के उपरांत मैं उसे रिक्शा में बैठाकर अस्पताल ले गया। वहां पहुंचकर मैंने जब रिक्शा वाले को किराया देने के लिए जेब में हाथ डाला तो हृदय को धक्का सा लगा—–जेब में पैसे नहीं चेहरा रुआंसा हो गया——अब रिक्शा वाला मुझे बेईमान समझकर झिड़केगा, जलीकटी सुनाएगा, गाली देगा।
किन्तु बूढ़ा रिक्शा वाला करुणहृदयी था, मेरी पीठ पर हाथ रखते हुए बोला-‘पैसे नहीं तो कोई बात नहीं बेटा! सारी बात पैसे की ही नहीं होती। मानवता भी कोई चीज होती है। तू इस बच्चे का इलाज करवा। मेरे पैसों की फिकर मत कर।
संयोगवश अस्पताल के डाक्टर मेरे परिचित निकल आए। वे हमारे कालेज में व्याख्यान देने आते थे और यदा-कदा संघ के गुरुदक्षिणा व पर्व विशेष संबंधी कार्यक्रमों में भी सहभागिता करते थे। अतएव बिना शुल्क जमा किए ही इंजेक्शन आदि लगाकर उपचार प्रारंभ हो गया।
तब तक आचार्य किशोरीदास वाजपेई का सुपौत्र अनुभव अपनी साइकिल से दौड़ गया और तत्काल उसके पिता संतलाल जी को अस्पताल लिवा लाया। एक्स रे आदि के उपरांत पता चला कि उसकी क्लेविकल बोन में फ्रेक्चर हो गया था। मैं बहुत डर गया था कि इस घटना का कारक मुझे ही मानकर बहुत बुरी तरह डांटा फटकारा जाएगा—-हो सकता है क्रोधावेश में दो चार तमाचे भी खाने पड़ जाएं।
अतएव संतलाल जी से यह कहकर कि अब आप संभालिए! मैं जा रहा हूं—-मैं फुर्ति से अस्पताल से बाहर निकल आया।
पूरी रात मुझे नींद नहीं आई——एक तो यह अपराध बोध कि सब कुछ मेरे कारण हुआ—–दूसरे मन पर छाया कुहासा कि मुझे लज्जित किया जाएगा, अपमानित किया जाएगा। हो सकता है कि शाखा भी न लगाने दी जाए और यदि लगाने भी दी गई तो हो सकता है वे बाल किशोर शाखा में न आएं, जिन्हें मैंने यंत्रपूर्वक जोड़ा था, जो अल्पकाल में ही मेरे विश्वासपात्र बन गए थे——-संभव है जिन परिवारों में मुझे अपनत्व व प्यार मिला था वहां से तिरस्कार व झिड़कियां मिलें——–
किंतु मेरी वे सब शंकाएं उस समय निर्मूल सिद्ध हुई जब मैं अगले दिन कुछ किशोर स्वयंसेवकों के साथ भयातुर एवं शंकात्रस्त मन से अभिषेक को देखने उसके घर गया। द्वार पर ही उसके पिता संतलाल जी ने हमारी आशा के विपरीत मुस्कराकर हमारा अभिनंदन किया। और मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा-‘एक अच्छा स्वयंसेवक वह होता है जो विषम परिस्थितियों में भी न तो विवेक खोता है, न विचलित होता है, न घबराता है, न डरता है। तुमने अपने बुद्धि, विवेक व साहस का परिचय देते हुए जिस प्रकार अभिषेक को तत्काल अस्पताल पहुंचाकर उपचार दिलवाया वह प्रशंसनीय, प्रेरणादायक व सराहनीय है। और उससे भी अच्छा कार्य तुमने यह किया कि हृदय विचलित कर देने वाली घटना घटित हो जाने पर भी तुमने धैर्य नहीं खोया और एक अच्छे स्वयंसेवक का कर्तव्य निभाते हुए कोई निर्णय लेने से पूर्व प्रार्थना व ध्वज प्रणाम अवश्य किया।’
मेरे मन पर छाया भयमिश्रित शंकाओं का कुहासा तत्क्षण छंट गया। भावातिरेक में मेरी आंखों से अश्रु छलछला आए जिन्हें मैंने बलपूर्वक भीतर ही भीतर सोख लिया। और झुककर उनके पैर छू लिए।
उसी पल उन्होंने अभिषेक को लक्ष्य कर उच्च आवृत्ति स्वर से आवाज लगा दी-बेटा अभिषेक! देखो तो तुम्हारे स्वयंसेवक मित्र आए हैं। अपनी मम्मी से कहो कि बढि़या से जलपान की व्यवस्था करें।

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