कविता गौरी शंकर वैश्य ‘विनम्र’
जाह्नवी जनवरी 2023 युवा विशेषांक
टूट रही परिवार संस्था, बदल रही पहिचान है।
अब कुटुंब-बिखराव ला रहा, जीवन में व्यवधान है।
एक साथ भोजन करने का
चलन आजकल नहीं रहा,
मात-पिता, बच्चों को देखें
शेष एक पल नहीं रहा,
वयोवृद्ध, चाचा, भाई का, अब न मान-सम्मान है।
गृहस्थाश्रम का उड़ता अब
खुले आम उपहास है,
आपाधापी, भौतिकता का
मनुज हो गया दास है,
संयम, सेवा और सहिष्णुता, बना कागजी ज्ञान है।
नहीं अतिथियों का स्वागत है
मिल-जुल कर न मनें त्योहार,
स्वार्थ भाव बस गया सोच में
नकारात्मक है व्यवहार,
अशुभ प्रथा को त्यागें मिल-जुल, जगा रहा वर्तमान है।
आभासी दुनिया से निकलें
कुल परंपरा करें सृजित,
सुगठित परिवारों से कर लें
नैतिक मूल्य पुनर्जीवित,
सांस्कृतिक चेतना जगाना, पारिवारिक अनुष्ठान है।