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कुली नं 122

कहानी डॉ. उमेश प्रताप वत्स

फरवरी 2023 गणतंत्र विशेषांक

दीपक फिल्मों में काम करने के लिए मुम्बई आया था।
काम नहीं मिला, मजबूरी में कुली बन गया। होनहार लड़के ने एक दिन
आतंकवादियों की साजिश को विफल कर दिया।

प्रतिदिन की भांति दीपक आज भी स्टेशन पर धीमी गति में आती रेलगाड़ी के कोच नं-5 के साथ-साथ तब तक दौड़ता रहा जब तक रेलगाड़ी रुक न गई।
बाबू जी सामान—————मैडम जी सूटकेश—-अरे ओ बाबू जी आपका सामान उठवा दें।
कुछ लोग तो सीधे आगे का रास्ता पकड़ लेते किन्तु कुछ तो ऐसे घूर कर देखते जैसे उस बेचारे ने कोई गाली दे दी हो। वह भी क्या करे, महंगाई के जमाने में हर यात्री स्वयं ही कुली की भूमिका निभाना बेहतर समझता है। तभी एक मेम साहब गाड़ी से नीचे उतरी तो हाथ में डॉगी बेबी की चैन पकड़े हुए चिल्लाई-
अरे कोई कुली है——
(दीपक साथ ही खड़ा था) हां मेम साहब, मैं हूं ना—–
तो चलो गाड़ी में से सारा समान नीचे उतारो।
दीपक डिब्बे में चढ़ा तो वहां उसकी हमउम्र लड़के (शायद मेम साहब का लड़का था) ने सामान की ओर संकेत किया और दीपक ने एक-एक करके सारा सामान नीचे उतारा। दीपक ने सूटकेश सिर पर रखा, दो बैग बाजू में दांयी ओर तथा एक बैग बांई और टांग कर चलने लगा तो मेम साहब की करकश आवाज से एकदम ठिठका।
हां, पैसे कितने लोगे?
मेम साहब बीस रुपये दे देना।
क्या! बीस रुपये!! रहने दो नीचे उतारो सामान, लूट मचा रखी है क्या, दस रुपये मिलेंगे।
नहीं-नहीं मेम साहब, इतना सारा सामान और इस मंहगाई में दस रुपये, नहीं-नहीं दीपक ने सारा सामान नीचे रख दिया और अपने अंगोच्छे से पसीना पोंछते हुए मेम साहब को कनखलियों से यूं देखा मानो रोटी का निवाला मुंह तक ले जाकर फिर हाथ वापिस खींच लेने वाले को निहार रहा हो। मैं उस नौजवान को हताश होते हुए देख रहा था। अक्सर मैं रेलगाड़ी से सफर किया करता था और दीपक को जब भी देखता तो वह व्यवहार, बोल वाणी में अन्य कुलियों से हटकर लगता।
कुछ दिन पहले की ही तो बात है जब मैं गाड़ी से नीचे उतरा तो एक साभ्रांत परिवार का शिष्ट लड़का मेरे पास आकर बोला-बाबूजी——बाबू जी, आपका बैग मैं——-। मैं समझ गया था कि यह लड़का विवशता में स्टेशन पर कुली कार्य कर रहा है।
बैग तो मैं स्वयं ही उठा लूंगा किन्तु, ——मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा-ये बताओ तुम हो कहां के? बाबू जी, मैं सरहंद पंजाब का रहने वाला हूं।
लगते तो पढ़े लिखे हो तो फिर ये–
मेरी बात पूरी होने से पहले ही बोल पड़ा। बाबू जी, आया तो था मैं फिल्मों में काम करने लेकिन भाग्य ने लोगों का वजन उठाना लिख दिया है।
फिर तुम वापिस क्यों नहीं जाते?
बाबू जी, किस मुंह से वापिस जाऊं, घर से लड़-झगड़ कर, मनमानी करके ही मुम्बई आया था, अब वापिस जाऊं भी तो कैसे घर वालों के साथ-साथ गली-मोहल्ले वाले भी ताने मार-मारकर मेरा जीना दूभर कर देंगे। बस! अब तो मुम्बई ही मेरी कर्मभूमि है, यदि किस्मत ने चाहा तो कोई कार्य ढूंढ लूंगा। तब तक गुजर बसर के लिए यह सबसे उपयुक्त कार्य है।
मैं उस होनहार नौजवान को देखता रहा। उसके चेहरे से विनम्रता झलक रही थी। मैंने उससे कहा कि कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता, सच्चाई पर चलते रहो एक दिन सफलता अवश्य मिलेगी। मेरे दिल से आवाज आई कि यह लड़का एक दिन बहुत आगे बढ़ेगा। मैं उस लड़के के बारे में सोचता सोचता कब ऑटो पकड़कर घर आ गया मुझे पता ही न चला। बस मेरे सामने उस नौजवान लड़के की ही तस्वीर घूमती रही जो अन्य कुलियों से बिल्कुल भिन्न किस्म का था। उसका व्यवहार से भले घर की खुशबू आती थी। पेश्ेावर कुलियों से बिल्कुल अलग दीपक नाम का यह लड़का अपनी मंजिल न पाकर कुछ लाचार तो दिखाई देता था किन्तु हिम्मत न हारी थी। उसकी वाणी में भी मिठास विराजमान थी। न जाने दीपक जैसे कितने लड़के-लड़कियां फिल्मी पर्दे की वास्तविकता जाने बगैर मुम्बई में हीरो बनने के लिए तथा टेलीविजन के पर्दे पर छाने के लिए हर क्षण सपने बुनते रहते हैं और एक दिन हंसते खेलते परिवार को बिना बताए उसके हाल पर छोड़कर या जिद करके मुम्बई की राह पकड़ते हैं। उस समय वे घर वालों की एक न सुनकर अपने निर्णय को सर्वोपरि मानकर ठीक समझते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि एक दिन बड़े स्टार बनकर अपने घर परिवार वालों को अधिक खुशियां दे पाएंगे। उनकी सोच में कोई दो राय नहीं है किन्तु फिल्मी पर्दे की जिन्दगी पर्दे पर जितनी आकर्षक चकाचौंध भरी दिखाई देती है वास्तव में बिल्कुल इसके उलट उतनी ही कठिन, संघर्षशील एवं षड़यंत्रें से परिपूर्ण होती है। और जब ये फिल्मों की गंध से आकर्षित युवक-युवती सच्चाई का मुकाबला करते हैं तो कुछ तो होटलों, क्लबों में लोगों की सेवा करते हैं या फिर रेलवे स्टेशन, ढाबों और वाहनों पर मजदूरी करते-करते मुम्बईयां छोकरों की तरह चालू किस्म के होे जाते हैं। और कुछ अपराध की दुनिया के हाथों चढ़ कर ताउम्र उस दलदल से बाहर आने को तरसते रहते हैं फिर मुम्बई के अंधेरे में ही न जाने कहां गुम हो जाते हैं। किन्तु पता नहीं क्यों मेरे मन को लगता है कि दीपक इन सबसे अलग हट कर है, यह लड़का जीवन में आगे चलकर जरूर नाम कमाएगा। और यह सोचता-सोचता मैं अपने प्रतिदिन की दिनचर्या में व्यस्त हो गया। फिर कभी-कभी जब टेªन से कहीं जाता तो मुझे दीपक का ध्यान हो उठता और मेरी निगाहें प्लेटफार्म पर उसे ढूंढने लगती। फिर धीरे-धीरे दीपक की बातें और उसकी सूरत दिमाग में समय के साथ धुंधली होती चली गई।

मैं प्रतिदिन प्रातः सैर को जाया करता था, सैर के बाद घर वापिस आता तो सबसे पहले गेट में पड़े अखबार को उठाता और पसीना सूखने तक उसे पढ़ता। आज भी जैसे ही मैंने अखबार उठाया तो फ्रंट पेज पर ही मेन खबर लगी थी कि, ‘मुम्बई सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर दो खतरनाक आतंकवादियों के ब्लास्ट करने के मंसूबे असफल। प्रारंभ में हैडलाईन पढ़कर लगा कि हमारे महाराष्ट्र की पुलिस देश में सर्वाधिक चुस्त फोर्स है। अवश्य ही किसी बहुत ही चौकस पुलिस आफिसर की बुद्धिमता के कारण ही यह सफलता मिली होगी और बहुत बड़ा हादसा जिसमें जाने कितने लोगों की जान जा सकती थी। खैर कल्पनाओं से बाहर निकल कर जब मैंने विस्तार से आगे पढ़ना शुरु किया तो मेरा माथा ठनका——–दीपक। (कुछ जाना सा नाम खैर—-) दीपक नाम के नौजवान कुली की बुद्धिमत्ता के कारण आतंकवादियों की भयंकर योजना धाराशायी हुई, क्योंकि संदेह होने पर दीपक ने पुलिस की राह पकड़ी और आतंकवादियों का पर्दाफाश किया किन्तु पुलिस की लापरवाही से दोनों आतंकवादी स्टेशन से भागने में सफल रहे और पुलिस ने पूरे क्षेत्र की नाकाबंदी की। खबर पढ़ते ही मेरे सामने उस नौजवान लड़के का चित्र उभर आया जो एक बार मेरे पास आशा भरी नजरों से मेरा सामान उठाने के लिए विनम्रता से बैग मांग रहा था।
मेरी धुंधली यादों से जैसे ही धूल छटी, मैंने दौड़कर टी-वी- ऑन किया तो न्यूज चैनल पर यही खबर चल रही थी कि एक होनहार युवक की होशियारी से शहर का एक बड़े हिस्सा बम ब्लास्ट की चपेट में आने से कैसे बचा। टी-वी- रिपोर्टर बता रहे थे कि जब व्यक्ति टेªन से उतरे तो सभी कुलियों की तरह दीपक नाम के कुली लड़के ने भी दो व्यक्तियों का सामान उठाया और उनके पीछे-पीछे चल दिया किन्तु संदेह होने पर दीपक रेलवे स्टेशन पर स्थित पुलिस चौकी में चला गया। अब हम आपको सारा किस्सा दीपक की जुबान में ही सुनवाते हैं। यह सुनते ही मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि जैसे मेरा कोई सगा संबंधी, कोई अपना स्क्रीन पर आने वाला है, मैं बहुत उत्सुकता से टी-वी- की स्क्रीन से चिपक कर बैठ गया। मैं बहुत धैर्यविहीन हो रहा था तभी दीपक का जीता जागता पूरा चित्र स्क्रीन पर आया, मेरी जिह्वा उससे बोलने को आतुर हो रही थी, मैंने सिद्धार्थ की मां को आवाज लगाई उमा! ओ उमा——अरे सुनो तो देखो वही लड़का जिसके बारे में मैं अक्सर तुम्हें बताया करता था, देखो तो टी-वी- पर उसका इन्टरव्यू आ रहा है। तभी दीपक ने बताना शुरु किया कि प्रतिदिन की तरह जब टेªन आई तो लोग अपना-अपना सामान उतार रहे थे, मैं एक यात्री परिवार का सामान ले जाने का मोल भाव कर रहा था। सामान भी अधिक था। मैं उनसे तीस रुपये मांग रहा था किन्तु वे बीस रुपये से अधिक एक पैसा भी देने को तैयार न थे तभी दो लोगों ने मुझे आवाज लगाई अरे सुनो! हमारा शूटकेस ले जाओगे? मैंने कहा क्यों नहीं बाबू जी, लेकिन पूरे तीस रुपये लगेंगे। वे बोले हम तुम्हें पूरे सौ रुपये देंगे, चलो जल्दी उठाओ। मैंने फटाफट शूटकेस उठाया, जो काफी भारी था और उनके पीछे-पीछे चल दिया। किन्तु मेरे जेहन में यही बात घूम रही थी कि एक सूटकेस के लिए बाबू जी सौ रुपये दे रहे हैं जबकि मैंने तो तीस रुपये कहे थे, मुझे यह हजम ही नहीं हो रहा था, मन कह रहा था कि जरूर कोई गड़बड़ है। ये आदमी भी मुझे गड़बड़ ही लग रहे थे। मैं चुपचाप उनके पीछे चलता रहा और उनकी गतिविधियों पर पैनी नजर रखे हुए था। वे शक्ल से भी संदिग्ध लग रहे थे। उनके चलने, बात करने और इधर-उधर देखने के तरीके से मुझे लगा कि दाल में कुछ काला है और पीछे चलता हुआ यकायक रास्ता बदलते हुए स्टेशन पर ही स्थित पुलिस पोस्ट पर गया और जल्दी-जल्दी सारी बात पुलिस को बतायी। जब उन्होंने शूटकेस को खोलकर देखा तो मेरी आंखें फटी की फटी रह गई। पुलिस वालों के मुताबिक शूटकेस में सात आठ ब्लास्ट का पूरा सामान था। पुलिस अधिकारी ने चार पांच जवान लेकर मेरे बताये अनुसार उनका पीछा किया। किन्तु शायद उन्होंने मुझे पुलिस पोस्ट में घुसते हुए देख लिया होगा। अन्यथा वे शूटकेस के कारण मुझे स्टेशन पर ढूंढ रहे होते।

रिपोर्टर ने बताया कि पुलिस ने नाकाबंदी कर उन संदिग्ध लोगों को ढूंढना शुरू कर दिया है तथा दीपक के बताये अनुसार उनके स्कैच भी तैयार करवा लिए हैं। मैंने चैनल बदला तो सभी न्यूज चैनल पर एक ही खबर थी, कोई कह रहा था कि पुलिस की नाकामी से आतंकवादी फरार हो गए। कोई ब्लास्ट से हो सकने वाले नुकसान के आंकड़े बता रहा था, तो कोई बार-बार दीपक को बताते हुए दिखा रहे थे। कोई सरकार की आतंकवाद पर ढुलमुल नीतियों को जिम्मेवार ठहरा रहे थे तो कोई दीपक से इधर-उधर के प्रश्न पूछ रहे थे। जब आपने शूटकेश में ब्लास्ट का सामान देखा तो उस समय कैसा लगा? दीपक आपको उन पर शक पहली बार कब हुआ? क्या तुम्हें अपनी जान जाने का डर नहीं लगा? यदि तुम्हारी जान को खतरा हो जाता तो? तुम कब से स्टेशन पर काम कर रहे हो? आगे तुम क्या चाहते हो कि सरकार जन सुरक्षा के कैसे उपाय करें? तुम्हारी इस हिम्मत व बुद्धिमत्ता का श्रेय किसे देना चाहोगे? दीपक बारी-बारी सभी प्रश्नों का जवाब देता, तभी दूसरी ओर से कोई अन्य प्रश्न पूछने लगता। वह समझ ही न पाता कि पहले किसके प्रश्न का उत्तर दें फिर भी वह आधे-अधूरे जवाब देता जा रहा था।
इन सभी प्रश्नों में से यह भी पब्लिक के सामने आ गया कि दीपक एक अच्छे परिवार से संबंध रखता है और फिल्मों में काम न मिलने के कारण घर वापिस न जाकर यही कुली का काम करना शुरु कर दिया। फिर क्या था, इस पढ़े लिखे युवक की लोगों ने जी भर प्रशंसा की।
मैं और उमा जड़ होकर स्क्रीन पर दीपक को देखे जा रहे थे। तभी सरकार की ओर से ब्यान आया कि इस होनहार बहादुर युवक को 26 जनवरी पर सम्मानित किया जाएगा। जब पत्रकारों ने जनता की प्रतिक्रिया लेनी शुरु की तो हर व्यक्ति दीपक को अपना हीरो बता रहा था। कुछ लोग सरकार से ही जवाब मांग रहे थे कि क्यों न दीपक जैसे पढ़े लिखे बहादुर युवकों को निठल्ले पुलिस वालों के स्थान पर नौकरी में रखा जाये। कुछ दीपक को बहादुरी पुरस्कार के रूप में पुलिस में नौकरी देने की वकालत कर रहे थे। कुछ सभी को दीपक जैसा बहादुर होना चाहिए यह दलील दे रहे थे। लोगों में भारी जोश था। आज जनता का हीरो कोई अभिनेता या खिलाड़ी न होकर राष्ट्र सुरक्षा पर अपने जीवन को खतरे में डालने वाला यह नौजवान बहादुर दीपक था। जो खतरनाक आतंकवादियों की नाक के नीचे से बम ब्लास्ट से भरा शूटकेस पुलिस के पास पहुंचा कर दुर्दांत योजना को असफल करने में सफल हो सका।
आज मुझे दीपक से कहे वह शब्द याद आ रहे थे कि, ‘एक दिन तुम बहुत नाम कमाओगे, बड़े आदमी बनोगे।’ फिल्मी पर्दे का हीरो बनने आया दीपक अब जनता का वास्तविक हीरो बन गया था।

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