Pradhanmantri fasal beema yojna

किट्टू

कहानी ज्योति प्रकाश खरे

पालतू जानवरों के प्रति प्रेम परिवार में विशेषकर
बच्चों में होता है। एक बिल्ली के बच्चे के
पालन का एक हृदय विदारक घटना।

अप्रैल 2023
शिक्षा विशेषांक

किट्टू——किट्टू—–तुम कहां हो? इधर आ जाओ—–। जल्दी से आओ देर हो रही है। चलो घर चलें। मैंने तुम्हारे लिए गर्मागरम दाल बनायी है। आ जाओ—
हे भगवान! पता नहीं किधर को निकल गयी? चार घंटे से परेशान हो रहा हूं आखिर गई कहां? धरती खा गयी या आसमां निगल गया?
ढूंढते-ढूंढते रात के दस बज गए। काली अंधेरी रात हाथ में टार्च लिए एक तरफ से सारी झाड़ियों, गड्ढों, घास-फूस सब जगह बड़े ध्यान से देख रहा था। पता नहीं कहां भटक गयी?
किसी सम्भावित आशंका से मेरा दिल धड़क रहा था। नन्हीं सी जान—–पता नहीं किस हाल में होगी? दुनिया की चालबाजियों से बिल्कुल अनजान है वह—। कहीं किसी छोटे-बड़े जानवर का शिकार तो नहीं बन गयी? कहीं किसी कुत्ते की पकड़ में तो नहीं आ गयी?
ज्यों-ज्यों रात बढ़ती जा रही थी तरह-तरह की आशंकाएं मेरे मस्तिष्क को व्यथित कर रही थी। अगर कहीं नहीं मिली तो क्या होगा? बच्चे लोग कितना समझा बुझाकर चार दिन के लिए रिश्तेदारी में गए थे कि किट्टू का पूरा-पूरा ख्याल रखना। बाहर मत निकलने देना—उसके लिए प्रतिदिन अरहर की गरम-गरम दाल जरूर पका दिया करना।
—–मनु बिटिया की तो जैसे किट्टू में ही जान बसती है, सोनू की भी बड़ी लाड़ली है वह। और धर्मपत्नी निर्मल—-उनकी तो पूछो ही मत। इतना लाड़-प्यार और दुलार तो कोई अपने सगे बच्चों से भी नहीं करता——-सचमुच—–वह जब कानपुर से लौटेगी तो किट्टू को न पाकर कितना परेशान हो जायेगी? सारे के सारे एक साथ मेरे ऊपर हावी हो जायेंगे। कहेंगे———-‘कहीं से भी लाओ, हमारी किट्टू को लेकर आओ?’
‘बताओ मैं क्या करूं? कहां से किट्टू को लेकर आऊं। अरे ढूंढ ही तो रहा हूं। पूरे सात घंटे हो गए, सुनसान काली रात में खाक छानते। मैंने कोई जानबूझकर तो निकाला नहीं। घर का मेन दरवाजा खुला पाकर कब बाहर निकल गयी? पता ही नहीं चला।’
शाम छः बजे उसकी आदत के अनुसार खाना खिलाने के लिए जब किट्टू को पुकारा तो वह नहीं आयी। बारी-बारी से हर कमरे, हर दरवाजे के पीछे, बाक्स, बेड, सोफा आदि के नीचे देखा। किचेन, बाथरूम, बालकनी———सब जगह छान मारा, वह घर में नहीं मिली। तभी से उसे पूरे एरिया में ढूंढ रहा हूं। पता नहीं कहां छुपकर बैठ गयी है?
धीरे-धीरे मुझे खुद पर ही झुंझलाहट होने लगी——-। मैंने ही तो उन्हें ले जाकर दिया था। स्कूल से मध्यावकाश पर लंच लेने के लिए जब मैं कालोनी में पहुंचा था——-तभी मुझे वह नन्हा सा बिल्ली का बच्चा मिला था——–वह गोल मटोल नन्हा सा बच्चा, मेरे स्कूटर के कवर के नीचे छुपने का प्रयास करता हुआ मुझे दिख गया था। छुपने की कला से अनजाने वह पूरी तरह आश्वस्त था कि उसे कोई देख नहीं रहा। कवर के नीचे से चुपचाप टुकुर-टुकुर मुझे देख रहा था। जिसे मैंने बड़ी चालाकी से कुछ खिलाने का लालच देकर धीरे से पकड़कर गोद में उठा लिया था।
कितना प्यारा सा था वह। सुनहरा रंग, भूरी आंखें, लाल सुर्ख होंठ, पतली सी पूंछ, रेशम से चिकने घने बाल कितना कोमल। मेरे प्यार से सिर और पीठ पर हाथ फेरते ही वह दुबककर मेरी गोद में सुरक्षित महसूस करते हुए मेरे हाथों को बड़े स्नेह से चाटने लगा था।
‘मोनू———सोनू——-इधर आओ———देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूं।’ कहता हुआ मैं सीढ़ियां चढ़ रहा था। दोनों बच्चे आवाज सुनकर सीढ़ियों के पास आ गए थे। पास पहुंचते ही वह खुशी से उछल पड़े थे। —-बिल्ली का बच्चा—हाय! कितना प्यारा है। ‘पापा प्लीज मुझे दो ना,’ ‘नहीं मुझे दो’—कहते हुए बच्चे उसे लेने के लिए आतुर हो रहे थे।
तब तक किचेन से चिमटा हाथ में लिए श्रीमती जी भी आ गयीं। उन्होंने बच्चे को अपनी गोद में ले लिया। उसे सहलाने लगीं। उससे प्यार करते हुए कुर्सी पर बैठ गयीं। दोनों बच्चे उसे छू-छूकर प्रफुल्लित हो रहे थे।
किचेन से रोटी जलने की गंध आयी तो निर्मल बिल्ली के बच्चे को सौंप कर किचेन की तरफ भागी थी। दोनों बच्चे उसे बारी-बारी से खिलाते रहे। टन-टन-टन-टन स्कूल घंटी बज गयी। समय का पता ही नहीं चला। अभी लोग बिना खाना खाए स्कूल के लिए भागे थे।
स्कूल की छुट्टी होने पर बच्चे और मैं बड़ी तेजी से घर पहुंचे। घर में श्रीमती जी का लाड़ प्यार चल रहा था। उसे गोद में लिए दाल खिला रही थी। बच्चे अपने-अपने बैग्स मेज के उपर पटक कर बिल्ली की ओर लपके। ओफो! अरे इसे खाना तो खा लेने दो, मम्मी अब इसे मैं खिलाऊंगा, सोनू ने जिद की तो मम्मी ने उसे धीरे से पकड़ा दिया। मनू ने हाथ में दाल की कटोरी पकड़ ली। दोनों बच्चे उसे बड़े प्यार से दाल खिलाने लगे।
एक दो दिन में ही वह बिल्ली का बच्चा हमारे घर का सबसे खास सदस्य हो गया। सभी उसे प्यार से किट्टू कह कर पुकारने लगे। धीरे-धीरे वह इस नाम पर रिस्पान्स देने लगा। पुकारने पर दौड़कर पास आ जाता। गोद में बैठ जाता। कभी-कभी अपनी खुशी का इजहार करने के लिए चढ़कर कंधों पर जा बैठता।
निर्मल के बड़े भइया की बड़ी बेटी शालिनी हमारे यहां से ही अपनी पढ़ाई कर रही थी। वह हाई स्कूल की छात्र थी। सभी लोग शालिनी को शीलू कह कर पुकारते थे। वह अक्सर सोफे पर बैठकर पढ़ती थी। किट्टू उसकी गोद में बैठकर घंटों सहपाठिनी बनी रहती। कभी-कभी सोफे के सहारे चढ़कर कंधे पर जा बैठती और वहीं से शीलू की पढ़ाई पर पूरी-पूरी निगरानी रखती। अधिक देर हो जाती तो आराम फरमाने के लिए पुनः गोद में आ बैठती और बड़े प्यार से सो जाती।
किट्टू घर भर का खिलौना बन गयी थी। वह सभी के साथ खूब खेलती मनू के साथ उसका छुपन, छुपाई का खेल तो बड़े ही कमाल का था। मनू कहती किट्टू चलो लुका-छिपी खेलें, किट्टू खेलने के लिए तैयार हो जाती।
किट्टू चलो छुप जाओ। वह दौड़कर सोफे के नीचे, दरवाजों के पीछे, बेड या बाक्स के नीचे कहीं जाकर दुबक जाती। मनू ढूंढ़ना शुरू करती। अरे किट्टू कहां छुप गयी है भाई, अरे ये तो मिल ही नहीं रही। किट्टू थोड़ी देर बाद निकलकर मनू के पैरों पे आकर धप्पा कर देती चलो फिर छुप जाओ। किट्टू फिर दौड़कर कहीं जा छुपती। कुछ देर बाद धप्पा कहने फिर पास आ जाती।
किट्टू को गेंद खेलने में बड़ा मजा आता था। छोटे से प्लास्टिक के गेंद को पंजों से पकड़कर, इधर उधर भागती। कभी एक पैर के सहारे गेंद उछालती, दौड़कर पकड़ती, मुंह में दबाकर भागती यानी कि जाने क्या-क्या करती।
कभी-कभी प्लास्टिक की डलिया से खूब खेलती। डलिया पर पंजा मारकर उछालती, तो वह गोल-गोल घूमने लगती। किट्टू बड़े गौर से उसके चारों ओर घूम-घूम कर उसे नाचते हुए देखती। उसे बड़ा मजा आता।
सचमुच किट्टू की हर आदत में गजब की दीवानगी थी, एक मोहक अदा थी कि लोग उसके खेल में ही मस्त रहते। जब कभी कोई मेहमान या बच्चों के यार दोस्त आ जाते तो वह भी किट्टू के साथ घंटों खेलते रहते।
किट्टू निर्मल के साथ ही सोती। बगल में चिकने चादर को मोड़कर बिछा दिया जाता, उसमें ही वह सोती, चादर के कोने को पकड़कर नन्हें बच्चों की तरह दूध पीती। कभी-कभी सीने से चिपककर सो जाती।
धीरे-धीरे पूरी टीचर्स कालोनी में किट्टू की कलाबाजियों की चर्चा होने लगी। लोग उसके भी हाल-चाल पूछने लगे। हम लोगों का जीवों के प्रति नैसर्गिक प्यार स्नेह देखकर लोग किट्टू को हमारा पारिवारिक सदस्य मानने लगे थे।
बिल्लियों की अण्डों के प्रति अधिक रुचि जानकर घर में अण्डे भी आने लगे। कच्चे अण्डे भगौने में उबलने के लिए रख दिए जाते, किट्टू की तो जैसे ड्यूटी लग जाती। जब तक अण्डे उबलते, वह भगौने के आस-पास घूमती रहती। वह उचक-उचक अण्डों को उबलता हुआ देखती रहती। बार-बार लालच में अपनी जीभ को ओठों पर फिराती। यानि कि जब तक अण्डे उसे छीलकर खिला नहीं दिए जाते उसे चैन नहीं मिलता। कितने चाव से वह अण्डे खाती जैसे उसे जन्नत में अमृत मिल गया हो।
ग्रीष्मावकाश पर हर वर्ष अपने गांव मां के पास जाना होता था। इस बार कैसे जाएंगे? किट्टू का क्या होगा? इसे किसके पास छोड़ेगे? कोई भला क्यों रखेगा एक जानवर? वह भी बिल्ली, न किसी काम की न काज की, दुश्मन अनाज की।
क्या किया जाय? क्या साथ में गांव ले जायें ? लेकिन गांव तो 250 कि-मी- दूर है। वहां तक कैसे जायेगी? फिर ट्रेन का सफर। किसी टी-टी- ने देख लिया तो। सोच नहीं पा रहे थे कि क्या किया जाय?
बहुत विचार विमर्श पर तय हुआ कि किसी ढक्कन वाली बांस की डलिया में छुपाकर ले चलें। डलिया खरीदकर उसके अन्दर सबसे नीचे कागज बिछाकर उपर से मिट्टी की तह लगा दी गयी। जिससे किट्टू को किसी भी आवश्यक कार्य हेतु बाहर न निकलना पड़े कि लोग बाग उसे देख लें और टी-टी- के सामने हंगामा न करने लगें।
खैर भगवान को याद करते-करते डलिया के अन्दर बैठी किट्टू की बिना टिकट यात्र सम्पन्न हुयी। संभाल कर रखते रखते बस की 30 कि-मी- भी जर्नी भी तय हो गयी। फिर दो कि-मी- पैदल चलकर अपने गांव के किनारे पहुंचे थे।
पंडों वाली बांस की डलिया, हाथ में लेकर चलने के अंदाज से ही आभास हो रहा था कि इसके अन्दर कुछ है जरूर, लेकिन क्या? लोग बाग ताक झांक करने लगे। धीरे-धीरे गांव के लोगों में कानाफूसी शुरू हो गयी पता नहीं क्या छुपा रखा है?
घर पहुंचते ही, डलिया का ढक्कन खुला और फुर्ती से किट्टू कूदकर बाहर आ गयी। अरे इसमें तो बिल्ली थी, अरे देखो तो ये लोग शहर से क्या लाये हैं? बिल्ली। निर्मल ने हां कहते हुए सिर हिला दिया लेकिन बीच में मनू बोल पड़ी, जी नहीं, ये बिल्ली नहीं, किट्टू है किट्टू, आपको यह बिल्ली दिख रही है? बचपन का स्वभाव——–लोग हंस पड़े थे।
गांव में किट्टू की कुछ अधिक ही देख-रेख करनी पड़ी कि कहीं कोई कुत्ता न झपट ले। चाराें तरफ खुला खुला, खैर किसी तरह कुछ दिन कटे। किट्टू गांव में एडजेस्ट नहीं कर पा रही थी। कहां शहर की चिकनी मक्खन जैसी फर्श, वह गेंद, वह डलिया, छुपन छुपाई के खेल और यहां ये गांव रूखा सूखा, खुरदरा सा, बिल्कुल धूल भरा, किट्टू का मन नहीं लग रहा था। यहां आकर तो जैसे वह सारे खेल ही भूल गयी। म्याऊं——-म्याऊं करती रहती जैसे कह रही हो जल्दी अपने घर चलो, मुझे यहां नहीं रहना। वह गुम सी रहने लगी। खाना पीना भी कम कर दिया। सेहत गिरने लगी। अन्ततः हम लोगों को शीघ्र ही वापस लौटना पड़ा था।
लेकिन इस बार कोई चार-दिन के लिए रिश्ते की एक शादी में बच्चे लोग बाहर गये हैं। किट्टू की सारी जिम्मेदारी मेरे कंधों पर थी। लेकिन मैं उसे चार दिन भी सुरक्षित नहीं रख पाया। मैं कितना गैर जिम्मेदार हूं। मैं ढूंढ़ता-ढूंढ़ता थक गया वह नहीं मिली तो नहीं मिली। देर रात मैं घर वापस लौट आया। बिना कुछ खाए पिए ही लेट गया। किट्टू के सम्बन्ध में तरह-तरह की आशंकाओं में घिरा मैं कब सो गया? पता ही नहीं चला।
सुबह-सुबह किसी ने दरवाजा खटखटाया। इतनी सुबह कौन हो सकता है? कहीं बच्चे तो नहीं लौट आए? मैं क्या जवाब दूंगा? सोचता हुए मैंने धीरे से दरवाजा खोला। सामने मेरे पड़ोसी मित्र किट्टू को गोद में लिए खड़े थे।
मैं खुशी से उछल पड़ा, अरे यह आपको कहां मिली? मैं तो रात भर जाने कहां-कहां ढूंढ़ता रहा, पूरा एरिया छान मारा, मिली ही नहीं। आपको कहां मिल गयी? मैंने उसे अपनी गोद में ले लिया, उसे पाकर ऐसा लगा जैसे दुनियां की सारी खुशियां मुझे मिल गयीं। सिर पर हाथ फेरते ही वह मेरी गोदी में दुबक गयी।
आज उसके चेहरे से खुशी व शरारत नदारद थी। वह बड़ी सहमी सी डरी-डरी मुंह छुपाए बैठी थी। वे बोले, तुम्हारी किट्टू हमारे कुत्ते के घर में छुपी बैठी थी। कुत्ता घर के अन्दर था। सुबह जब घर के बाहर निकला तो कुत्ते के घर से कुछ आहट सी महसूस हुयी। पास जाकर देखा तो ये वहां छुपने का प्रयास करते हुए दुबक कर बैठी थी। धीरे से पुचकार कर पकड़ा, तब पता चला कि अरे ये तो वर्मा सर की किट्टू है और इसे आपके पास ले आया।
थैंक-यू सर, बहुत-बहुत धन्यवाद। थैंक गॉड, सर कल शाम से ये गायब थी, मैंने जाने कहां-कहां नहीं खोजा, कल रात बारह बजे तक मैं इसे सारे एरिया में ढूंढ़ता रहा। मैं बहुत परेशान था कि मनू लोगों को क्या जवाब दूंगा? आपने मेरी सारी समस्या सुलझा दी। ‘नहीं सर, ये तो अपने घर जैसी बात है।’
उसी दिन शाम चार बजे तक बच्चे भी शादी से वापस लौट आए। आते ही सारे लोग किट्टू की सेवा में लग गए। खो जाने की सारी व्यथा सुन कर निर्मल ने किट्टू का गले लगा लिया। मेरी किट्टू को कुछ हो जाता तो मैं कैसे रहती? मेरी लापरवाही के कारण दो चार नसीहतों के साथ बात आयी गयी हो गयी।
किट्टू ने उसी दिन से खाना कम खाने लगी थी, हम लोग कुछ समझ नहीं पा रहे थे। पहले की तरह ही उसे गर्मा-गरम अरहर की दाल और घी लगी रोटी खिलाते, वह खाने के प्रयास तो करती, लेकिन एक आधा निवाला खा कर चल देती और वापस सोफे के नीचे जाकर बैठ जाती। ऐसा महसूस होता जैसे उसे कोई तकलीफ है।
उसे अरहर की गरमागरम दाल कितनी पसन्द थी। प्रतिदिन उसके लिए अरहर की दाल जरूर बनानी पड़ती थी। कितने चाव से वह पेट भर कर खा लेती थी। खाते समय अपनी मूंछों में जीभ फिराते हुए उन्हें चाटती वह कितनी अच्छी लगती थी। हम लोग उसे खाते हुए बड़े गौर से देखते मुग्ध हो जाते थे। लेकिन अब तो यह पहले का दसवां हिस्सा भी नहीं खाती।
वेटनरी डाक्टर से सम्पर्क कर किट्टू को पशु चिकित्सालय ले गए। वहां उसकी जांच की गयी, टेम्पेचर नापा गया। अरे इसे तो काफी तेज बुखार है, डा- ने कहा।
डा- साहब आप इसे कैसे भी जल्दी से ठीक कर दीजिए। मिसेज के शब्दों में किट्टू के प्रति अपनत्व और स्नेह स्पष्ट झलक रहा था। आप चिन्ता न करें, मैं अपनी तरफ से पूरा प्रयास करूंगा। सिम्पली फीवर ही तो है, एक दो दिन में ठीक हो जायेगा।
उन्होंने पर्चा बनाया, बाजार से भी कुछ दवाएं मंगायी, इंजेक्शन लगाकर, सभी दवाओं का डोज समझाया तथा अन्य हिदायतों के साथ हमें विदा कर दिया।
लेकिन कई दिन गुजर गए। कोई फायदा नहीं हुआ, उसने खाना बिल्कुल ही छोड़ दिया। वह रातो दिन सोेेेेेेेेफे के नीचे लेटी रहती, कई बार पुकारने पर पास तो आती लेकिन थोड़ी देर बाद फिर वहीं जाकर बैठ जाती।
मिसेज ने उसे गोद में उठा कर प्यार से शरीर मेें हाथ फेरा तो अरे इसके पेट में ये गांठ सी कैसी है? हो सकता है इसी के कारण बुखार रहता हो।
दोपहर के समय किट्टू का पुनः पशु चिकित्सालय ले गए, डा- ने देखा, चेकअप करके बोले मैं दवा लिख रहा हूं इसे खिलाइए। अगर कोई फोड़ा आदि भी बन रहा है तो वह बैठ जायेगा। इस छोटे से जीव के प्रति हम लोगों का ऐसा स्नेह देखकर डा- साहब का हम लोगों के प्रति बड़ा ही सहानुभूति बर्ताव हो गया था। वह बड़े ध्यान से किट्टू का इलाज कर रहे थे।
हम लोग किट्टू को घर ले आए, परामर्श के अनुसार दवाएं समय पर दी जाती रहीं, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। दूसरे दिन तक गांठ और बढ़ जाने से उसका दर्द और बुखार बढ़ गया। बुखार से तपता शरीर दर्द भरी उसकी कराह, हम लोग बेचैन थे कि अब क्या किया जाय?
दूसरे दिन तक गांठ मुलायम सी हो गयी थी, उस स्थान का टच करते ही किट्टू कराहती और धीरे से कहीं छुपकर जा लेटती। हम लोग उसे पास बुलाते तो वह दूर भागती।
किट्टू को लेकर पुनः डा- के पास पहुंचे। चेकिंग के बाद उन्होंने बताया सर मुझे बड़ा अफसोस है, वह अब बचेगी मुश्किल। क्यों डा- साहब। हम लोग अवाक रह गए। डा- ने किट्टू का पेट हिलाकर दिखाया देखिए इसका फोड़ा अन्दर ही फट चुका है और पस बनकर सारे शरीर में फैल चुका है।
हम लोगों की आंखों में आंसू भर आए, डा- साहब कुछ भी कीजिए, हमारी किट्टू का किसी भी कीमत पर बचा लीजिए, प्लीज। मिसेज फक कर रो पड़ी।
मैं भी चाहता हूं कि मैं इसे बचा लूं, लेकिन क्या करूं? समझ में नहीं आता। बिना आपरेशन किए इसे बचाया ही नहीं जा सकता। लेकिन आपरेशन बहुत ही रिस्की है। बहुत विचार विमर्श के बाद आपरेशन करना ही तय हुआ, कि हो सकता है बच जाए।
डॉ- ने उपर वाले का ध्यान कर बड़ी जिम्मेदारी से आपरेशन कर पेट का सारा पस बाहर निकाला। डेड़ घंटे तक चले आपरेशन के बाद होश में लाने के लिए ड्रिप लगा दी गयी। लगभग एक घंटे बाद किट्टू को होश आया। हम लोग उसे घर ले आए।
पूरे पेट में पट्टी बांधे किट्टू सोफे के नीचे लेटी रहती। खाना पीना बिल्कुल छूट गया। अब वह किसी के पास नहीं आती थी। बुलाने पर वहीं से म्यायूं कह कर रिस्पांस दे देती थी। जब उसे ट्वायलेट महसूस होती तो नियत स्थान पर रखे तसले में बिछी मिट्टी के ऊपर ही जाकर करती और धीरे से पुनः सोफे के नीचे जाकर लेट जाती।
उसकी तकलीफ हम लोगों से नहीं देखी जाती थी, वह बहुत ही कमजोर हो गयी थी। चलने पर उसके पैर लड़खड़ाते, हिलती डुलती फिर भी आवश्यकता पड़ने पर वह उसी तसले में जाकर ही आवश्यक कार्य करती।
चलते-चलते कई बार उसके चारो पैर बाहर को फैल जाते जिससे वह गिरकर पेट के बल फर्श से चिपक जाती। उसकी दशा देखकर मेरा दिल फूट-फूट कर रोता। मेरे अन्दर से आवाज आती यह सब तुम्हारी लापरवाही से हुआ है। तुमने उसका ठीक से ख्याल नहीं रखा। जिस रात वह बाहर रही, तभी से वह बीमार पड़ गयी।
लेकिन ऐसा क्या हुआ? समझ में नहीं आया। मुझे लगता है, कालोनियों की सुरक्षा में लगा कंटीला तार ही कहीं उसके पेट में चुभ गया जिसने अन्दर ही अन्दर टिटनेश का रूप ले लिया।
दो दिन से सारे लोग बहुत उदास थे। लगता था किट्टू का साथ अब छूट जायेगा। हम लोग अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी किट्टू को नहीं बचा पा रहे थे। उस समय हम लोग अपने को कितना लाचार महसूस कर रहे थे।
हम लोग रात दिन दुआएं मांगते, हे ईश्वर इसे बचा लो, बदले में हमें कोई भी कष्ट दे दो हमें मंजूर है। लेकिन इस मासूम को ठीक कर दो। ये बेचारी बेजुबान है, हम लोगों के सहारे है। लेकिन हाय! री किस्मत, हम कुछ भी नहीं कर पा रहे थे।
अगले दिन सुबह-सुबह किट्टू की स्थिति बहुत बिगड़ गयी, कोई भी स्कूल नहीं गया। सभी लोग उसके चारो ओर बैठे उसके स्वस्थ होने की दुआएं करते आंसू बहाते रहे। किट्टू की हालत बिगड़ती ही गयी।
उसके सिर पर हाथ फेरते तो वह अपना हाथ बड़ी मुश्किल से उठाकर हमारे हाथ पर रख देती, इशारे से धीरे-धीरे हाथ हिलाती। जैसे कह रही हो, मुझे बचा लो, मैं अभी मरना नहीं चाहती, आप लोगों के साथ मुझे अच्छा लगता है। मुझे मनू दीदी के साथ खेलना है, सोनू भैया की पीठ में बैठना है, शीलू दीदी के कंधों पर चढ़ना है। मुझे बचा लो, मम्मी जी, क्या आप सब लोग मेरे लिए इतना नहीं करोगे?
धीरे-धीरे किट्टू की सांसे शिथिल पड़ती गयीं। उसने एक दो बार लम्बी सांस ली, गले से खर्र-खर्र की आवाज आ रही थी। उसे सांस लेने में बहुत ताकत लगानी पड़ रही थी। बड़ी मुश्किल से उसने एक दो बार गहरी सांस ली।
हम सारे लोग रोने लगे, मनू की मम्मी तो उसे गोद में उठा कर फक-फक कर रो पड़ी। मेरी किट्टू, तू हमें छोड़कर क्यों चली गयी? हमसे क्या गलती हो गयी?
मैं अपराध बोध से सिसकता हुआ दूसरे कमरे में चला गया। मुझे लग रहा था, मैं हत्यारा हूं, मैंने ही नन्ही सी बच्ची की जान ली है।
घंटों तक सभी लोग किट्टू को लिए सिसकते रहे। किट्टू के मोहपाश में बंधा पूरा परिवार दुख के भंवर में फंसा रहा। दोपहर से शाम होने को आयी। आखिर दिलों में पत्थर रख हम लोग किट्टू के अंतिम संस्कार के बारे में सोचने लगे।
किट्टू को दफनाने के लिए विधिवत गड्ढा खोदा गया। उसके मन-पसन्द चिकने चादर में लपेट कर छोटे बच्चों की तरह दफना दिया गया। कई दिन तक घर में खाना नहीं बना। बच्चे प्रतिदिन उसकी कब्र पर जाकर फूल चढ़ाते और शाम को देशी घी का दिया जलाते। यह सिलसिला महीनों चलता रहा।
इस हादसे से नार्मल स्थिति आने में काफी समय लग गया। काफी दिनों बाद हम लोग सामान्य हो पाए थे।
आज भी जब किट्टू की याद आती है तो उसके स्नेह की सारी बातें मीठा-मीठा दर्द दे जाती हैं।
एलबम में बच्चों के साथ खेलती हुयी, गोद में बैठी हुयी, किट्टू अब भी हम लोगों के आसपास कहीं न कहीं मौजूद रहती है।

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