Pradhanmantri fasal beema yojna
Homeस्तंभकर्तव्यपथ

कर्तव्यपथ

संस्मरण

संदर्भ : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

स्वास्थ्य विशेषांक
जुलाई, 2023

‘क्या कहा? समय ही नहीं मिलता? जिस भूमि में तुमने जन्म लिया, जिस वसुधा का तुम अन्न जल ग्रहण करते हो, जो देश तुम्हें एक पहचान देता है——-क्या उसके लिए तुम्हारे पास समय नहीं? क्या उसके लिए तुम्हारा कोई चिंतन नहीं?’

सन् 1990 उन दिनों मैं अपने गृहनगर में चिकित्साभ्यास में संलग्न था।
एक संध्या को पतली देह पर हल्का केसरिया खादी का कुर्ता, श्वेत पायजामा, गले में गहरा केसरिया वसन और कंधे पर लंबी पट्टी वाला मोटे कपड़े का थैला लटकाए एक सज्जन रोगियों की पंक्ति में आकर बैठ गये। मुझसे निगाह मिलते ही उन्होंने सिर को हल्का सा झुकाकर अभिवादन किया। और थैले से राष्ट्रधर्म नामक पत्रिका निकालकर खाली समय का उपयोग करने लगे।
सरसरे दृष्टिपात में ही मैं समझ गया कि वे कोई रोगी नहीं हैं अपितु मुझसे भेंट करने की अभिलाषा से आए होंगे अथवा किसी धार्मिक या सामाजिक संस्था से जुड़े समाजसेवी होंगे और दान आदि की रसीद बनाने के उद्देश्य से आए होंगे।
रोगियों से निवृत होते ही वे मेरे समीप खिसक आए। और करबद्ध अभिवादन की मुद्रा में अपना परिचय बताने लगे-‘मैं चम्पत राय, प्रांतीय संगठन मंत्री, विश्व हिन्दू परिषद!’
सहज और सरल परिचय के उपरांत उन्होंने मुझसे पूछा-‘डाक्टर साहब! हर समय रोगियों व घर परिवार में ही उलझे रहते हो या कभी राष्ट्र के विषय में भी कुछ सोचते हो?’
‘समय ही नहीं मिलता।’ मैंने कहा तो वे व्यंग्योक्ति पूर्ण भंगिमा से मुस्कुराए-‘क्या कहा? समय ही नहीं मिलता? जिस भूमि में तुमने जन्म लिया, जिस वसुधा का तुम अन्न जल ग्रहण करते हो, जो देश तुम्हें एक पहचान देता है——-क्या उसके लिए तुम्हारे पास समय नहीं? क्या उसके लिए तुम्हारा कोई चिंतन नहीं?’
मैं अवाक् और निरुत्तर सा कभी उन्हें देखता कभी उनके हाथ में थमें राष्ट्र धर्म को——।
फिर उन्होंने मेरे क्लीनिक की दीवार पर टंगे महर्षि दयानंद सरस्वती के चित्र की ओर उंगली से संकेत करते हुए कहा-‘जिस देश की अस्मिता की रक्षा के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती, लाला लाजपत राय, वीर सुभाष, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी, क्या उसके प्रति तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं?’
क्षणिक ठिठककर उन्होंने पुनः पूछा-‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में तो सहभागिता करते ही होंगे?’
शाखा में तो मैं अनेक वर्षो तक जाता रहा हूं। और 1982 में कानपुर में आयोजित स्नातक संघ शिक्षा वर्ग में भी मैंने इक्कीस दिन व्यतीत किए हैं। मैंने सोल्लास कहा। मुझे लगा था कि मेरे इस प्रत्युत्तर से वे प्रभावित होंगे, परन्तु उन्होंने तो तपाक से तंज भरे स्वर में पूछ लिया-‘फिर कौन सा कर्तव्य पथ अपनाया आपने? जबकि उस शिक्षण वर्ग में हर बौद्धिक तथा हर चर्चा सभा का समापन इसी आशय के साथ होता था कि संघ शिक्षा वर्ग में इक्कीस दिन व्यतीत करने का परिणाम यह नहीं होना चाहिए कि मिल गई डिग्री, अब अपने घर परिवार में ही सिमट कर रह जाओ। समाज व राष्ट्र के प्रति निष्क्रिय होकर रह जाओ। आखिर राष्ट्र के प्रति भी कोई कर्तव्य भाव जाग्रत रहना चाहिए कि नहीं?’
मैं चौंक पड़ा-‘मान्यवर आपको कैसे पता यह सब?’
‘क्योंकि आप जैसे स्नातक वर्ग के शिक्षार्थियों के मध्य मैंने भी कुछ समय संघ शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था।’ एक सरल मुस्कान के साथ उन्होंने अपनी तेजोदीप्त आंखें मेरी आंखों में डालते हुए कहा-‘अशोक जी आप शायद अपनी व्यस्तता के मध्य सब कुछ भूल चुके हैं। परन्तु मैं एक बार जिस स्वयंसेवक से बात कर लेता हूं उसे कभी नहीं भूलता। आप 1978 में मेरठ कालेज से बी-एससी- कर रहे थे और रामानुज दयाल छात्रवास में रहते थे, उन दिनों मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में मेरठ जिला प्रचारक का दायित्व निर्वाह कर रहा था। एक नैपुण्य वर्ग में आपका मेरा परिचय हुआ था।’
‘हे ईश्वर! ऐसी विलक्षण स्मरण शक्ति!’ मेरे मुंह से उच्छवास सा उछल पड़ा-‘मान्यवर आपकी यह प्रतिभा तो दुर्लभतम श्रेणी में आती है।’
अभी चौंकिए मत डाक्टर साहब। एक स्मृति का आभास मैं आपको और दिलाता हूं जनवरी 1979 में पिलखुआ में शीत शिविर आयोजित किया गया था। सरसंघचालक पूजनीय बालासाहेब देवरस जी का बौद्धिक चल रहा था। यकायक भारी वर्षा होने लगी थी। तब भी कोई स्वयंसेवक अपने स्थान से हिला तक नहीं था, उठना तो बहुत दूर की बात थी—हां इतना अवश्य हुआ था कि चार पांच स्वयंसेवक ठंड से ठिठुरते भोजनालय में पहुंचे और चाय की मांग करने लगे। तब मैंने उन्हें समझाया था कि यह घर नहीं है संघ का शिविर। यहां हर कार्य समयानुसार और अनुशासन बद्ध रूप में किया जाता है। मैंने उन स्वयंसेवकों का परिचय लिया था, उनमें से एक आप भी थे—–आया कुछ याद।
आश्चर्य से मैं उनके मुखमंडल को निहारता रह गया था। अन्य कुछ आवश्यक चर्चा करने के उपरांत वे पुनः शीघ्र ही भेंट करने का आश्वासन देकर चले गए। तब भी मैं बहुत देर तक उनके विलक्षण व्यक्तित्व के विषय में ही सोचता रहा।
कुछ दिनों बाद मेरी भेंट रणजीत सिंह स्मारक इंटर कालेज धामपुर में उनके साथ भौतिक विज्ञान के शिक्षक रहे श्री यशपाल जी तुली से हुई तो माननीय चंपतराय जी के राष्ट्र के प्रति समर्पण भाव की कुछ और भी बातें पता चलीं, जैसे-विद्यालय से प्राप्त वेतन का आधा भाग वे गुरुदक्षिणा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारकों पर व्यय कर देते थे और शेष आधा भाग अपने परिवार व स्वयं पर लगाते थे। श्री यशपाल तुली जी के अनुसार उन्होंने व उनके परिजनों ने चपंतराय जी से विवाह के लिए बहुत अनुरोध किया। परन्तु उन्होंने स्पष्ट इंकार कर दिया था कि दाम्पत्य जीवन में फंसने से राष्ट्र के कार्य में बाधा आनी स्वाभाविक है जो उन्हें कदापि स्वीकार नहीं।
कालेज में भी वे बड़ी सरलता और सादगी के साथ रहते थे—खादी का कुर्ता, पायजामा और पैरों से सामान्य सी चप्पलें। प्रायः विद्यार्थी उनसे पूछ बैठते गुरुजी, कालेज में जैसे अन्य शिक्षक पैंट शर्ट और बूट पहनकर बन-ठन कर आते हैं वैसा परिधान आप धारण क्यों नहीं करते? यह कुर्ता पायजामा तो नेताओं अथवा गांव के लोगों की पहचान है। क्षमा करें। आप भी इस वेशभूषा में किसी देहाती जैसे ही लगते हैं।’
आक्रोशित होने के स्थान पर वे मंद-मंद मुस्काए थे-‘मेरे प्रिय छात्रें! तुम लोग ठीक ही कहते हो। खादी का परिधान ग्राम्य परिवेश की ही पहचान है। और यह भी सत्य ही है कि आज भी हमारी पुरातन सभ्यता और संस्कृति के अस्तित्व का संरक्षण अनपढ़ और गंवार समझे जाने वाले देहातियों पर ही निर्भर है। वरना शहरी लोग तो अपनी सभ्यता और संस्कृति को बिसराकर अंग्रेजी सभ्यता वाले पथ का अनुसरण करने में ही गौरव महसूस करते हैं। अब आप लोग स्वयं समझ सकते हैं कि मातृभूमि के सच्चे आराधक को कौन से पथ का वरण करना चाहिए?
अध्यापन कक्ष में विद्यार्थियों के समक्ष वे मुख्य विषय का शिक्षण करने के उपरांत राष्ट्र प्रेम तथा अपने देश के शौर्यमयी इतिहास की चर्चा अवश्य करते थे। प्रार्थना सभा में भी वे राष्ट्र भक्ति की कथाएं सुनाकर विद्यार्थियों के शोणित में उफान ला देते थे।
उनके क्रांतिकारी विचारों से प्रबंधन तंत्र कुछ असहज होने लगा था। अतएव प्रबंधन तंत्र ने उनसे विनम्र स्वर में अनुरोध किया-‘चूंकि कालेज में सभी जाति वर्ग, सम्प्रदाय के छात्र पढ़ने आते हैं कृपया सभी की भावनाओं का सम्मान करते हुए अपने विचारों को नियंत्रण में रखें चंपतराय जी के स्वर में किंचित आवेश उभर आया-जिस मातृभूमि की पावन माटी में जन्म लेकर उसके अन्न, जल और वायु का सेवन कर मैं बड़ा हुआ हूं क्या उसके अस्तित्व की रक्षा के लिए मेरा कोई कर्तव्य नहीं? क्या मातृभूमि के प्रति अपने हृदय में उमड़े प्रेम को मैं अभिव्यकत नहीं कर सकता? यदि मेरे कर्तव्य पथ में ऐसी बाध्यता आती है तो मैं त्यागपत्र देने को तत्पर हूं।’
त्यागपत्र का नाम सुनते ही प्रबंधन तंत्र सकपका गया। क्योंकि एक लैक्चरार के रूप में उनकी लोकप्रियता व प्रतिष्ठा चहुं और व्याप्त थी। उनके व्याख्यान में कुछ ऐसा आकर्षण होता था कि विद्यार्थी हों अथवा अन्य लोग, सभी मंत्रमुग्ध होकर श्रवण करते थे।
उसके बाद प्रबंधन तंत्र ने कभी उनके कार्य अथवा मंतव्य में कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं किया।
माननीय चपंतराय जी 1980 में कालेज के स्वैच्छिक सेवानिवृति लेकर पूर्णकालिक संघ के प्रचारक बन गए थे। अंतिम रूप से उन्हें विद्यालय की ओर से जो धनराशि प्रदान की गई वह सारी उन्होंने संघ के अन्य प्रचारकों के वस्त्रें, चप्पलों, तौलियों अन्तःवस्त्रें, डायरियों आदि पर व्यय कर दी। अपने लिए मात्र दो जोड़ी कुर्ते पायजामें, तौलिया आदि और मार्गव्यय के लिए थोड़ी सी राशि।
पहले वे देहरादून के जिलाप्रचारक रहे, उसके बाद मेरठ जिलाप्रचारक का दायित्व वहन किया। और 1986 में उन्हें विश्व हिन्दू परिषद का प्रांतीय संगठन मंत्री बना दिया गया। तथा 2002 में विश्व हिन्दू परिषद का प्रांतीय संगठन मंत्री बना दिया गया। तथा 2002 में विश्व हिन्दू परिषद के अंतर्राष्ट्रीय महामंत्री जैसे गरिमामयी पद का कार्यभार कंधों पर लाद लिया।
सरलता, सादगी और श्रेष्ठता के पर्याय वही माननीय चंपतराय जी वर्तमान में श्री राम जन्मभूमि न्यास के महासचिव पद की महती व उल्लेखनीय भूमिका निर्वाह कर रहे हैं।

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments