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एक अत्यंत प्रेरक घटना

जिसने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी

संस्मरण-संदर्भ-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

अप्रैल, 2023
शिक्षा विशेषांक

वीरेन्द्र जी से जुड़ी एक अत्यंत रोचक घटना मेरे साथ घटी जिसने मेरे जीवन की दशा ही बदल दी। 1960 की ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में मैं कलकत्ता फैक्टरी टेªनिंग के सिलसिले में गया। वहां बांगड़ बिल्डिंग में संघ कार्यालय था। मुझे वहां रहने की अनुमति मिल गई। साथ में बीएचयू के इंजीनियरिंग के एक अन्य स्वयंसेवक भी थे। जिनका नाम मुझे बहुत सोचने पर भी कभी याद नहीं आया। वहां से जब हमने विरेन्द्र जी से संपर्क किया तो उन्होंने कटक आने का निमंत्रण दिया। 1959 में बीएचयू में आने पर सबसे पहले मेरा संपर्क उन्हीं से हुआ था।
हम दोनों स्वयंसेवक कटक गये और लगभग एक सप्ताह उड़ीसा में विरेन्द्र जी के साथ रहे। उन्होंने हमें कहां-कहां घुमाया यह तो बिल्कुल भी याद नहीं आ रहा। उनसे जब विदाई लेने का समय आया तो उन्होंने मेरे हाथ में एक पर्चा पकड़ा दिया। जब मैंने उसे पढ़ा तो उस पर पैसों का कुछ हिसाब किताब था। मैंने जब उनसे पूछा कि यह क्या है तो उन्होंने बताया कि यह आप दोनों ने जो खाना खाया है यह उसका खर्च है और कृपा करके यह देकर जायें। जीवन में ऐसा तगड़ा झटका पहली बार लगा था। हमारे चेहरों के हाव-भाव देखकर बोले कि हैरान होने की आवश्यकता नहीं है। आप लोगों ने जिस पैसों से भोजन किया है वे संघ के हैं और वह पैसे तो आपको देने ही होंगे। विरेन्द्र जी ने बताया कि उन्हें एक माह में तीस रुपये संघ की ओर से मिलते हैं। विरेन्द्र जी के पिता उन दिनों जम्मू कश्मीर राज्य के एकाउंट जनरल थे और विरेन्द्र जी अपने माता-पिता के एक ही पुत्र थे। मैंने कहा यदि संघ आपको कम पैसे देता है तो आप घर वालों से पैसे मंगवा लीजिए। जिस पर उनका कहना था कि ऐसी सोच से फिर संघ का कार्य नहीं हो सकता।
परन्तु मेरा स्वयं का जीवन बदल चुका था। मैंने सोचा कि जीवन चलाने के लिए मात्र तीस रुपये ही यदि चाहिए तो फिर क्या है, बस आनंद ही आनन्द है। 1963 में पास होने पर आईआईटी रुड़की (तब रुड़की विश्वविद्यालय) में मुझे लेक्चरर की जॉब मिल गई जहां वेतन तीस का दस गुना अर्थात् 300 रु- प्रति माह था। विरेन्द्र जी की तीस रुपये वाली बात मेरे रोम-रोम में बस गई थी। बहुत सोचने के पश्चात मैंने उन 300 के विषय में एक निर्णय लिया जिसे आजीवन निभाने में मुझे सभी का सहयोग मिला। उन 300 रुपयों के मैंने चार भाग किये। अपने निजी खर्च के लिये एक भाग, माता-पिता के लिये एक भाग, समाज के लिए एक भाग और भविष्य के लिये एक भाग। माता-पिता के जाने के बाद तीन भाग और भविष्य की आवश्यकता पूरी हो जाने पर दो भाग। एक समय फिर ऐसा आया जब अपनी निजी आवश्यकता भी शून्य समान हो गई तो संपूर्ण आय का एक ही भाग और वह केवल समाज हित।
1962 के चीनी युद्ध के पश्चात सेनाओं में वृद्धि के कारण मैंने भी रुड़की छोड़ भारतीय वायुसेना ज्वाईन कर ली। 52 वर्ष की आयु में वायुसेना ने विदाई दे दी। वायुसेना की अफसरी करने के पश्चात कोई भी नौकरी करना मुझे स्वीकार न था और समाज का बोझ भी तो उतारना था।
बचपन से ही तीन माताओं के विषय में मां ने बताया था-जननी, जन्मभूमि व जगदम्बा। सौभाग्य से तीन-तीन दशक तीनों माताओं के चरणों में स्थान मिला। पिछले लगभग तीन दशक से छत्तरपुर दिल्ली के मां कात्यायनी मंदिर द्वारा संचालित स्किल डेवलपमेंट इंस्टीच्यूट का अवैतनिक मार्गदर्शक हूं।
-विंग कमांडर सुदेश चन्द्र गुप्ता, नई दिल्ली

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक के नाते कार्य करते हुए

आपको कोई अनुभव आए हों जो समाज के लिए प्रेरणादायक हो

तो उन्हें संस्मरण रूप में लिख कर स्तंभ विभाग जाह्नवी को

ईमेल/ डाक/वाट्सएप द्वारा लिख कर भेजें। उन्हें आपके नाम से प्रकाशित किया जायेगा।
संस्मरण भेजने के लिए ईमेल:- jahnavi1966co@gmail.com
वाट्सएप नम्बर:- 9540582247
जाह्नवी, WZ 41, दसघरा, डाकघर-पूसा, नई दिल्ली 110012

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