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इतिहास का सही लेखन जरुरी है

लेख
दिनेश प्रताप सिंह ‘चित्रेश’

कालीबंगा और मेहरगढ़ की कार्बन डेटिंग से जो निष्कर्ष निकाला है, उसके अनुसार यह 8000 साल पुरानी है।

इस प्रकार यह मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यता से प्राचीन व विकसित सभ्यता है।

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जुलाई, 2023

समय-समय पर शिक्षा में नई नीतियों का समावेश होता है। इन दिनों नई शिक्षा नीति (2019-2020) आकार ग्रहण कर रही है। बीच में प्रोफेसर यशपाल के तत्वावधान में बहुचर्चित ‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 भी आयी थी। इसके अंतर्गत बच्चों के बस्ते का बोझ कम करने के लिए करीब एक तिहाई पाठ्यक्रम कम करने का सुझाव था। नई नीतियों के आगमन के साथ पाठ्यक्रम में कुछ परिवर्तन होता है। यह स्वाभाविक और आवश्यक प्रक्रिया है। किसी अन्य विषय की पाठ्य पुस्तक के संशोधन में किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होती, मगर इतिहास का नम्बर आते ही एक खास विचारधारा के विद्वान तत्काल लामबंद होने लगते हैं। इनके साथ सेकुलर पार्टियों के नेता और प्रवक्ता भी जुट जाते हैं।
इनका मत होता है कि इतिहास फिर से नहीं लिखा जा सकता है। मगर इसका कोई तार्किक आधार नहीं समझ में आता है। निश्चित रूप से इतिहास घटित होता है, निर्देशित नहीं। लेकिन अतीत के गर्त में पड़े अनजाने ऐतिहासिक तथ्य अगर उद्घाटित हो रहे हैं, तो इसका इतिहास में समायोजन क्यों नहीं होना चाहिए? एक समय था जब ‘सिंधु घाटी की सभ्यता’ का क्षेत्र विस्तार बहुत अधिक नहीं था। सन् 1921 में रायबहादुर दयाराम साहनी और सन् 1922 में राखलदास बनर्जी के क्रमशः हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के पुरातात्विक उत्खनन से इस सभ्यता का पता चला था। यहां जो पुरातात्विक सामग्रियां प्राप्त हुई थी, उनके विश्लेषण से वास्तु, नगर नियोजन, सामाजिक व आर्थिक जीवन, खानपान, वस्त्र-आभूषण, अस्त्र-शस्त्र, धार्मिक मान्यता शिल्प, लिपि आदि की जानकारी हुई थी। साथ इसका कालक्रम 3500 ईसा पूर्व से 2500 ईसा पूर्व निर्धारित हुआ था। कई दशकों तक इतिहास के विद्यार्थी इसे पढ़ते रहे।
मगर अब इस सभ्यता का काफी क्षेत्र विस्तार हो चुका है। सन् 1952 में पुरातत्ववेत्ता अमलानन्द घोष की देखरेख में कालीबंगा में उत्खनन हुआ। बाद में बी-के-थापर और बी-बी-लाल ने सन् 1961 से 1969 के बीच इस क्षेत्र में काफी काम किया। इनको उत्खनन में दो प्रस्तर ऐसे मिले जो सिंधु सभ्यता से पुरातन सरस्वती सभ्यता के संकेतक हैं। कालीबंगा के साथ अब लोथल, राखीगढ़ी, रोपड़, मेहरगढ़, रंगपुर, कच्छ जैसे कई क्षेत्र जड़ चुके हैं। यह पूर्व में घटित वह परिदृश्य हैं, जो अब सामने आ रहे हैं। कालीबंगा और मेहरगढ़ की कार्बन डेटिंग जैसी अत्याधुनिक पद्धति से आई-आई-टी- (खड़गपुर) एवं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की टीम ने जो निष्कर्ष निकाला है, उसके अनुसार यह 5500 सौ साल पुरानी नहीं, बल्कि 8000 साल पुरानी ठहरती है। इस प्रकार यह मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यता से प्राचीन और विकसित सभ्यता है।
हड़प्पा सभ्यता के उत्खनन और तथ्यों के निर्धारण में तत्कालीन पुरातत्व विभाग के डायरेक्टर जनरल जान मार्शल की विशेष भूमिका थी। इसके ध्वंसीकरण का जिम्मेदार आर्यो को माना गया था। इतिहासकारों का एक बड़ा हिस्सा आर्यो को विदेशी मानता व सिद्ध करता रहा है। यह इतिहासविद उन्हें भारत में आकार अनार्यो पर अपनी संस्कृति एवं परम्पराएं थोपने का सांस्कृतिक आक्रमणकारी मानते हैं। किन्तु अभी राखी गढ़ी के मानव कंकालों का डीएनए, टेस्ट हुआ तो वह आर्यो के डीएनए से मैच करता दिखा। इससे वैज्ञानिक रूप से यह स्पष्ट हो गया कि यह सभ्यता आर्यो की ही थी।
इसके पूर्व भी सम्पूर्णानन्द जैसे विद्वानों का मत था कि आर्य कहीं बाहर से नहीं आए थे। इतिहासकारों के बीच भी एक समुदाय रहा है, जो आर्यो को भारतीय मूल का मानते आए हैं। किन्तु जान मार्शल ने इस संबंध में जो निष्कर्ष निकाला था, वही वामपंथियों और धर्मनिरपेक्ष समुदाय की प्रतिष्ठा का प्रश्न बना बैठा है। इससे अलग कोई भी बात उन्हें नागवार गुजरती है। शायद ही किसी को यह बात समझ में आए कि जो नए ऐतिहासिक तथ्य उभर कर आए हैं, हम उसे अपने इतिहास के पृष्ठों में क्यों न स्थान दें? सिर्फ और सिर्फ वामपंथी एवं धर्मनिरपेक्ष तत्वों को किसने भारतीय इतिहास लेखन का ठेका दे रखा है?
सन् 1903 में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘भारतवर्ष का इतिहास’ विषय पर शांति निकेतन में एक भाषण दिया था। इसमें गुरुदेव टैगोर ने कहा था, ‘भारत का इतिहास वह नहीं है जो हम परीक्षा के लिए पढ़ते और याद करते हैं। यह आक्रान्ताओं का सिंहासन के लिए पिता पुत्र और परिजनों के बीच हत्याओं और लड़ाइयों का आख्यान है। इस इतिहास में यह जिक्र नहीं है कि उन उथल पुथल भरे दिनों में देश के लोग क्या कर रहे थे? इतिहास में क्या लोगों की जीवन शैली, शिक्षा, साहित्य, कला, धर्म, स्थापत्य मान्यताओं का स्थान नहीं होना चाहिए? राहुल सांकृत्यायन वामपंथी होते हुए भी इस बात के पैरोकार थे कि इतिहास राजवंशों के उत्थान पतन, युद्धों, सैनिक संगठन और प्रशासन व्यवस्था तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। इसमें शिल्पकार, किसान, मजदूर, व्यवसाइयों की छवियों का समावेश भी जरूरी है। उनका मत था कि इतिहास अतीत का ज्ञान और अध्ययन है। अतीत में सिर्फ सामंत ही नहीं थे, सामान्य जन भी थे। इसलिए उनकी सामूहिक स्मृतियों का भी इतिहास में समावेश होना चाहिए। राहुल सांकृत्यायन जब ‘मध्य एशिया’ का इतिहास लिख रहे थे तो उन्होंने इसी फ्रेम वर्क पर कार्य करके इतिहास लेखन की एक नई शैली विकसित की थी।
हमारे इतिहास की यह विडम्बना है कि यहां हेरोडोटस जैसे इतिहासकार की मौजूदगी नहीं दृष्टिगोचर होती, जो अपने समय की घटनाओं को कालक्रमानुसार लेखनीबद्ध करता। ग्यारहवीं सदी के इतिहासकार अल्बरूनी ने इस बात को लेकर भारतीय विद्वानों की कड़ी आलोचना की है। एक मत यह भी है कि आक्रमणों के बीच जो अफरा-तफरी मची, उसमें हमारी ज्ञान की संस्कृति बुरी तरह विखंडित हुई। हमारे लाखों की संख्या में प्राचीन ग्रंथ गायब हो गए। जैसे नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्य राहुल शीलभद्र से नाराज होकर विहार बंगाल के शासक मुहम्मद बख्तियार बिन खिलजी ने सन् 1199 में पूरे विश्वविद्यालय को आग के हवाले करा दिया था। यहां का पुस्तकालय कितना समृद्ध रहा होगा, इसकी कल्पना इस बात से की जा सकती है कि यह तीन माह तक जलता रहा था। उस कालखंड में ऐसे कितने ज्ञान-विज्ञान के केन्द्र ध्वस्त हुए थे, इसका स्पष्ट आकलन उपलब्ध नहीं है। संभव है हमारे प्राचीन इतिहास के ग्रंथ इस प्रकार के किसी विध्वंस का शिकार हो गए हों।
फिर भी हमारे पास इतिहास लेखन के लिए स्त्रेत सामग्री की कमी नहीं है। नीलमत पुराण, विक्रमांकदेव चरित, राजतरंगिणी, वेद-वेदांग, लोककथा, दक्षिण भारतीय भाषाओं, संस्कृत पालि-प्राकृत, अपभ्रंश व डिंगल का साहित्य, दानपत्र, मठों मंदिरों के अभिलेख, अलग-अलग राजाओं के सिक्के, वंशवृक्ष, किले, ध्वंश महल, शिलालेख, पुराण साहित्य, जैन व बौद्ध साहित्य स्तंभ, कलाकृतियां, जातक कथाएं, जैन आगम कथाएं, लोकगाथाएं, वीरगाथा काल के ग्रंथ, मूर्ति जैसी हजारों सामग्रियां हैं जिसके अंदर भारत के प्राचीन इतिहास की गौरवमयी छवियां उपस्थित हैं। इनको सामने लाया जाना चाहिए। आज हम जो इतिहास पढ़ रहे हैं, इसमें भारत के गौरवबोध को मिट्टी में मिलाया गया है। वास्तव में यूरोपीय इतिहासकारों ने एक छिपे एजेंडे के तहत भारतीय इतिहास का लेखन किया था। इस इतिहास का अंदरूनी सच बहुत ही बेहूदा, नग्न और टुच्चा है।
भारत वर्ष के इतिहास का कालक्रम के अनुसार विभिन्न राजवंशों की विशिष्ट घटनाओं का तथ्यात्मक और क्रमिक स्वरूप प्रस्तुत करने का दायित्व जेम्स मिल ने लिया था। वह एक अर्थशास्त्री, दार्शनिक और इतिहासकार थे। कहा जाता है कि ‘मनुस्मृति’ की गलत ढंग से की गयी एक व्याख्या को पढ़कर वह भारत, हिन्दूधर्म, संस्कृत साहित्य और ब्राह्मणों के कटु आलोचक बन गए थे। भारतीय इतिहास लेखन का कार्य इन्होंने सन् 1805 में शुरू किया और सन् 1817 में छह खंडों में ‘द हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ अस्तित्व में आयी थी। इसके तीन भाग थे। इसमें प्राचीन युग के इतिहास को हिन्दू काल, मध्य युग को मुस्लिम काल तथा आधुनिक काल को ब्रिटिश काल के रूप में विभाजित किया गया है। हिन्दू काल में जातिगत आधार पर शोषण और अत्याचार है। इस पूरे कालखंड में ऊंच-नीच, धार्मिक पाखंड, अन्याय, निर्दयता, सामाजिक विषमता और अंधविश्वास केन्द्रीय भाव के रूप में मौजूद है।
मध्य युग अपेक्षाकृत ठीक है, मगर यहां भी शासकों की सदइच्छा के बाद भी धार्मिक वैमनस्य कायम है। जातिगत बंधन, धार्मिक कट्टरता, खून-खराबा, अस्थिरता भी मौजूद है। अन्याय और शोषण बदस्तूर जारी है। यह सारी दुर्दशा हिंदुओं की बची खुची ताकत के कारण है। जबकि आधुनिक ब्रिटिश काल को जेम्स मिल ने न्याय, प्रगति, सभ्यता, सद्भाव और शांति का प्रतीक सिद्ध करने का प्रयास किया है। उनका मत था कि अंग्रेजों को भारत के सारे भू-भाग पर कब्जा कर लेना चाहिए, ताकि भारत के पिछड़े, बर्बर और असभ्य लोगों के जीवन में सुख और ज्ञान का संचरण हो सके।
वास्तव में ‘द हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ का काल विभाजन ही दोषपूर्ण है। अगर प्राचीन और मध्ययुग क्रमशः हिन्दू व मुस्लिम काल थे तो आधुनिक युग ईसाई काल क्यों नहीं हुआ? कैसे वह ब्रिटिश काल हो गया। यह विभाजन सच्चाई से दूर था। इसका उद्देश्य लोगों को विभाजित करके फूट डालना था। मध्ययुग के विवेचन में मुस्लिम तुष्टीकरण के बीज उपस्थित हैं। इससे वह हिन्दू मुसलमान के बीच भेद पैदा करने में सफल भी हो गए थे। वैसे इतिहास के किसी भी दौर को हिन्दू या मुसलमान के रूप में नहीं बांटा जा सकता, प्रत्येक समय में सभी धर्म एक साथ चलते हैं। प्राचीनकाल में सभी शासक हिन्दू नहीं थे, देश के कई क्षेत्रें में बौद्धों का भी राज था। शक, हूण और कुषाण भी समय-समय राज किए हैं। पश्चिमोत्तर के सीमांत पर यूनानियों का राज्य था। यह हिन्दू नहीं थे। मध्ययुग में भी कई हिन्दू सामन्त और राजा थे, जो अपने ढंग से राज चलाते थे। गोवा में पुर्तगाली काबिज हो चुके थे। भारत में जैन धर्म अति प्राचीन काल से जनजीवन में व्याप्त रहा है। यह व्यापारियों का प्रिय धर्म रहा है और व्यापारी वह संवर्ग है, जो प्रत्येक कालखण्ड में राज दरबार में प्रतिष्ठा पाता रहा है।
यह पुस्तक प्रकाशन के साथ ही विवादों से घिर गई थी। मगर यह अंग्रेजी राज के हित में थी।
यह भारतीय संस्कृति को निम्न स्तरीय, अन्यायपूर्ण और बर्बर रूप में प्रस्तुत करती है। इसे लिखने का एक मात्र उद्देश्य अंग्रेजी राज को वैधता प्रदान करना था, जिसमें यह सफल थी। आज हम कह सकते हैं कि जेम्स मिल पूर्वाग्रहों से ग्रस्त और ऐतिहासिक तथ्यों को बिना जांचे परखे कल्पना के आधार पर इतिहास लिखने वाले इतिहासकार थे। इतनी बड़ी किताब लिखने वाले जेम्स मिल कभी भारत नहीं आए थे। फिर भी तत्कालीन औपनिवेशिक काल में यह इतिहास की महत्वपूर्ण पुस्तक बन गई थी। बाद में छात्रें के लिए इतिहास लिखने के लिए लेखकों ने इसे स्त्रेत सामग्री के रूप में प्रयोग किया। इस इतिहास को लेकर अगर वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष लोग मोहग्रस्त हैं और इसे ब्रह्मवाक्य मान बैठे हैं, तो यह समझा जाना चाहिए कि इस जमात की प्रवृत्ति ही राष्ट्रीय गौरव की प्रत्येक घटना के विरूद्ध रहने की है।
निश्चय ही जो इतिहास पढ़ाया जा रहा है, वह एकांगी और पक्षपातपूर्ण है। इसमें अतीत के सकारात्मक पक्ष का भाव होना चाहिए। यह काम आजादी के तत्काल बाद होना चाहिए था, किन्तु हम आजादी का अमृतोत्सव मनाने के दौर में पहुंच गए और इसे न कर सके। अब और देर ठीक नहीं, हमें लंबी नींद का परित्याग करके अपने स्वर्णिम अतीत में झांकना ही होगा।

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