आभा ने घर से भाग कर प्रेम विवाह किया।
धोखा खा कर वापस आई तो माता-पिता ने
स्वीकार नहीं किया। पड़ोसन चाची ने आश्रय
देकर असका जीवन बचा लिया।
सितम्बर, 2023
राष्ट्रभाषा विशेषांक
कहानी
छाया श्रीवास्तव
पूरे घर में उसकी चीखें आ रही थीं। लखन बाबू के हाथ एक क्षण को नहीं रुक रहे थे। लात घूंसों से पिटती हुई आभा उनके पांव नहीं छोड़ रही थी।
पास ही उसकी दोनों छोटी बहनें तथा छोटा भाई खड़े थे। झर-झर आंसुओं को पोंछती मां खड़ी थी और दरवाजे पर मुहल्ले की अपार भीड़। परन्तु इस ओर न लखन बाबू का ध्यान था न आभा का। उसके अस्फुट स्वर फूटते जा रहे थे असंख्य सिसकियों के साथ-
‘मार डालो तुम मुझे पापा। गला घोंट दो मेरा! चीर कर रख दो। मैं यहीं इसी डेहरी में मर जाऊंगी पर जाऊंगी नहीं।’
‘निकल जा हरामजादी यहां से। मर तो तू एक साल पहले गई थी हमारे लिए जब उस लुच्चे के साथ भाग कर हमारे मुखों पर कालिख पोत गई थी। हमने तो उसी दिन से तुझे मरा हुआ समझ लिया था। फिर तू क्यों आई यह काला मुंह लेकर? निकल इस घर से! तेरी हिम्मत कैसे हुई इस घर में पैर रखने की? चल निकल। काला मुंह कर यहां से। कुलच्छिनी! क्यों इस घर को बर्बाद करने पर तुली है?’
‘मैं नहीं चाहता तेरे अपवित्र तन को छूने को। क्या तू चाहती है तेरे खून से हाथ रंग कर मैं फांसी पर चढ़ जाऊं?’
वह उसके बाल पकड़ कर घसीटते हुए दरवाजे तक ले आए तो उसने कस कर दोनों बाहों से उनके पैर फांस लिए फिर अन्तर का समस्त आर्तनाद फोड़कर चिल्लाई-
‘पापा! मुझे घर के एक कोने में पड़ी रहने दो। मैं एक कोने पर जी लूंगी। यह समझना कि एक दासी टहलनी पड़ी है घर में, मुझे फिर उस नर्क में मत झोकाें। मैं बहुत थक गई हूं पापा। अब इस तन में ताव नहीं है कि मैं समाज के भेड़ियों के अत्याचार सह सकूं। मुझे माफ करो पापा।’
‘मां! दया करो इस अभागिन पर। मेरे मुंह पर रोज थूकना पापा। पर इस डेहरी से न निकालो। मुझे फिर कोठों पर न भेजो पापा—–।’
‘निकल कलमुंही यहां से। पहले कहां गया था तेरा यह ज्ञान। तब जवानी फटी पड़ती थी। सोलह वर्ष की आयु में गजब ढा लिए। एक बार मुझसे पिटकर भी दुबारा घर-भर की नाक काटकर भाग गई।
‘तुझे चुल्लू भर पानी नहीं मिला डूब मरने को? क्यों आई तू अपना कलंकित मुंह लेकर? जा जहां से आई है वहां पर।’
‘पापा! उस नरक से तो मैं किसी प्रकार छुपकर भाग चुकी हूं। मनोज ने मुझे कुछ हजार रुपयों में बेच दिया था। उस विश्वासघाती ने मुझे कहीं का नहीं रखा। मुझ पर रहम करो। मुझे एक कोने में डला रहने दो।’
‘नहीं एक क्षण नहीं। कलमुंही। तुझे अपनी दोनों बहनों पर भी दया नहीं है, तू चाहती है तेरा कलंक उन्हें भी ले डूबे। मैं यह नहीं होने दूंगा। मैंने तो उसी दिन कलेजे पर पत्थर रख लिया था, जिस दिन तू घर से भागी थी। मैं एक क्षण तुझे सहन नहीं कर सकता। मैं तेरी कोई कहानी सुनना नहीं चाहता। बस तू निकल यहां से।’
वह उसे घसीट कर डेहरी तक ले आए और फिर पूरा जोर लगाकर उसका हाथ पकड़ कर उसे दरवाजे के बाहर फैंक दिया, सड़क पर भीड़ के बीच में। सड़क पर गिरते ही उसका सिर फट गया, खून के पनारे बह चले पर बेहोश नहीं हुई। उसी तरह शक्ति भर चीखती रही।
‘मां! पापा, दया करो, माफ करो इस पापिन को। फिर नरक में मत झोकों।’
परन्तु वहां तो दरवाजे ही बंद हो चुके थे। सुनता कौन। वह रोती रही कलपती रही। तड़पती रही। परन्तु वह दरवाजे उसके लिए नहीं खुले।
भीड़ अब भी उसे घेरे खड़ी थी। परन्तु उनमें से कोई ऐसा नहीं था जो उसके जलते हुए दिल पर फाहा रखता था उसके बहते घाव पर मरहम लगाता।
भीड़ में लोग कानाफूसी कर रहे थे। कोई मां-बाप को कसाई कह रहा था कोई लड़की को पतुरिया। साली! पहले तो मुहल्ले भर की नाक काट कर भाग गई, अब लौटकर जमाने का पाप लाद आई है बाप के घर। आखिर उसके आगे भी तो दो बेटियों का भविष्य सामने है। और अगर इस कलंक को घर रख ले तो क्या वे ठिकाने लग जाएगी? ठीक ही किया है बाप ने। कोई भी होता तो यही करता।
‘अरे! यार! सब ठीक हो जाता। बड़ा बेेदर्द बाप है। मां भी पत्थर हो गई। अब फिर उसी नर्क ही में तो जायेगी लड़की।’
‘अब वही होगा जो इसने बोया है। आंख लड़ाते समय तो नहीं सोचा कुछ?’
‘भाभी किसके साथ थी यह लड़की।’
‘अरे! वही मनोज! चक्रधर सिंह का लड़का। साला आवारा। वही भगा ले गया था, सोलह वर्ष की उम्र ही क्या? आ गई बहकावे में, पढ़ रही थी दसवीं या ग्यारहवीं में। पता नहीं कैसे स्कूल से आते जाते फंसा लिया। एक बार पहले बाप को जब पता लगा तो आठ दिन बंद रखा, लड़की को मारा पीटा। सोचा अब ठिकाने आ जायेगी। स्कूल भेजने लगे। फिर वहां से दोनों उड़न छू हो गए।
वह साला तीन चार माह ही में बेच-बाचकर भाग आया। और लड़की फंस गई दलालों के चक्कर में।
‘बाप ने कुछ किया नहीं। साले को पुलिस में धरा देना था।’
‘सब कर चुके हैं बेचारे। पुलिस में रिपोर्ट की थी तो एक दिन मनोज के कुछ गुंडों ने अधमरा करके डाल दिया था। पुलिस भी तो गुंडों को नहीं पकड़ पाती।’
‘पता नहीं क्या हाल होगा बेचारी का।’ भीड़ छंटने लगी थी। सब भांति-भांति की टिप्पणी करते बिखरने लगे थे। रात्रि घिर आई थी। जनवरी की कड़कड़ाती शीत लहर चल पड़ी थी। वह केवल एक साड़ी ब्लाउज में सड़क के किनारे घुटनों में मुंह दिए अभी भी सिसक रही थी। भूख, प्यास, मारपीट तथा रिसते घाव ने उसे अधमरा बना दिया था। ऊपर से हाड़ कंपा देने वाली ठंड। सब सोचते अगर यह रात भर ऐसे ही बैठी रहेगी तो सवेरे तक अपने आप कोई फैसला हो जायेगा।
पड़ोसियों के घर के किवाड़ भी एक-एक कर बंद होने लगे थे। चारों ओर गहन नीरसता व्याप्त हो गई। केवल कुछ इक्के-दुक्के मुसाफिर वहां से गुजर रहे थे। कोहरे में डूबी रात ने एक ओर अंधेरे का घना जाल बुन दिया था जहां वह बैठी थी। तीन चार दिन से घिरे महावटी बादलों ने उग्ररूप धारण कर लिया था। थोड़ी ही देर में वायु के प्रबल वेगी तथा श्याम घनों में तुमल युद्ध छिड़ गया। पराजित मेघों ने भागते-भागते संचित जल निधि की झोली वहीं झाड़ दी। बड़ी-बड़ी बर्छा सी भोंकती बूंदे धरती का सीना चीरने लगी। परन्तु तो भी वह गठरी सी सिकुड़ी चुपचाप बैठी हुई थी। शायद उसने कसम खा ली थी कि वह बाबुल की डेहरी पर शरीर त्याग देगी परन्तु वहां से हटेगी नहीं।
खुले घाव पर मोटी बूंदे नश्तर का काम कर रही थी। दांतों को कसमसाती वह पीड़ा झेल रही थी।
तभी उसे लगा कोई उसके पास आकर थम गया है। फिर झन्न से चूड़ियों की झंकार उसके पास आकर ठहर गई। शायद मां का हृदय पसीज गया है। वह धड़कता हृदय लिए किन्हीं मधुर बोलों की कल्पना में खो गई। किसी ने सिर पर हाथ रख कर पुकारा-‘आभा! आभा!।
पर यह मां के बोल नहीं लगे। उसने पीड़ित नेत्र उठाकर ऊपर देखा, आकृति कुछ कुछ पहचानी सी लगी। तभी ध्यान आया कि यह तो ठीक उनके सामने रहने वाली पड़ोसन चाची है। जिनसे उसके मां-बाप का कई वर्ष पहले का झगड़ा था और अभी भी बोलना नहीं चल रहा था। वह भी मां-बाप के सिखाने पर न कभी उनके घर जाती थी न बोलती थी। पर आज अचरज से उसके होंठ खुल गए-
‘चाची।’
‘हां आभा। चल उठ मेरे साथ आ। क्या ऐसे जान बूझकर मरना है?’
‘पर अब जीने में क्या रखा है चाची? मर जाने दो। दुनिया तो यही चाहती है।’
‘दुनिया चाहती होगी, पर मैं नहीं चाहती। जल्दी चल देख जोर से पानी आ रहा है।’
‘पर चाची मां बाबूजी से तो तुम्हारी लड़ाई है, वह देखेंगे तो—–तो क्या होगा?’
‘पागल लड़की। उनसे लड़ाई थी पर तुझसे तो नहीं है? फिर जिस मां बाप ने जानबूझकर अपने कलेजे के टुकडे़ को मौत के मुंह में ढकेल दिया है उससे तुझे अब डरने की क्या आवश्यकता है?’
उन्होंने उसे जबरन पकड़कर खड़ा किया फिर सहारा देकर भीतर घसीट ले गई। फिर भीतर से किवाड़ बंद हो गए।
बरांडे में पत्थर के कोयले की अंगीठी जल रही थी। अंगीठी के आसपास तीन चार बोरे बिछे थे। उसी के पास उसे बैठाकर उन्होंने पुकारा।
‘छोटी बहू! जरा शक्कर पत्ती तो ले आ मैं दो कप चाय बना लूं।’ आवाज सुनकर छोटी बहू शक्कर पत्ती ले कर आ गई। पहचानते हुए भी आभा नमस्ते नहीं कह पाई। शर्म से उसका सिर झुकता चला गया। चाची ने भगोने में पानी रख दिया था जो रखते ही सनसनाने लगा था।
‘छोटी बहू! तेरा कोई पुराना धोती ब्लाउज हो तो ले आ। देख तो खून में कैसे सन गए हैं सारे कपड़े। और जरा रूई डिटोल भी दे जा, मैं घाव पोंछ कर दवा लगा दूं।’
छोटी बहू बिना कुछ बोले सामान ले आई। आभा संकोच से गड़ी जा रही थी।
‘ले आभा! पहले उधर गुसलखाने में जाकर कपड़े बदल आ।’
‘चाची! ये———ये———–भाभी के कपड़े मुझे न दो। मेरी अपवित्र देह पर ये———–।’
‘अरे! तू तो बड़ी नादान है। अपवित्र तो इंसान के कर्म होते हैं। जब विचार बदल जाए तो अपवित्रता का दाग स्वतः छूट जाता है। जा उठकर कपड़े बदल ले। गंदे भी तो हो गए हैं।’
‘चाची आठ दिन से यह तन पर है। पास में कुछ था ही नहीं कि बदल लेती।’ वह उठकर कपड़े बदलने चली गई। फिर मुंह हाथ धोकर आग के पास आ बैठी। दो कपों में चाय छनकर तैयार थी। चाय पीकर कप रखे ही थे कि चाची ने गरम डिटोल से पोंछ कर मरहम लगा दिया।
आभा की आंखें बार-बार भींग रही थी।
‘खाना कब से नहीं खाया बेटी?’ रूई का पैड रखते उन्होंने पूछा तो वह अनायास रो पड़ी। फिर आंसू पोंछते हुए बोली।
‘पूरे तीन दिन हो गए। एक दाना मुंह में नहीं गया। बस नलों का पानी पीते चली आई।’
‘रो मत आभा! रोने को तो अभी बहुत समय पड़ा है। सब्जी परांठा रखा है उसे खाकर सो जा, सुबह सुनुंगी तेरी पूरी कहानी। वैसे मैं सुनना ही नहीं चाहती। जो कुछ तेरे साथ गुजरा है वह सभी जान गए हैं। तो भी अगर तेरा दिल न माने तो बताना, नहीं तो जो कुछ तेरे साथ हुआ है उसे सात कब्रों तले दफन कर दे। बस समझ लेना एक तूफान आया था वह गुजर गया और अब पूरी शांति है। कहीं कुछ नहीं है?’
आभा फटी-फटी आंखों से उनका मुंह देख रही थी, उसे लग रहा था कि सच में तूफान गुजर चुका है और उसके चारों ओर शांति है। आगे क्या होगा वह सोचना भी नहीं चाह रही थी। उसके आगे बहू ने सब्जी परांठे रख दिए थे जिन्हें देखकर उसकी भूखी आंतें मचलती चली गई थी और वह उन पर जैसे टूट पड़ी थी। फिर चाची के कमरे में एक चारपाई पर जो वह गिरी तो उसे कुछ होश ही नहीं रहा।
सुबह जब किसी ने उसके सिर पर हाथ फेरकर पुकारा तब उसकी नींद खुली। देखा चाची उसके सिरहाने झुकी हुई थी।
‘आभा! उठ बेटी! देख कितना दिन चढ़ आया है। चाय बन गई है। हाथ मुंह धोकर चाय पी लो।’
वह हड़बड़ा कर उठ बैठी। आंगन की ओर दृष्टि गई तो देखा सूरज ऊपर चढ़ आया था। कमरे तक आकर उसके पैर ठिठक गए। देखा चाची के दोनों बेटे हाथ सेंक रहे हैं। वहीं उसी जगह रात को वह बैठी थी। छोटे बेटे के दोनों तथा बड़े बेटे का एक बच्चा अंगीठी के पास बैठे डबलरोटी चाय में डुबो-डुबो कर खा रहे थे। शर्म के कारण उसके पांव आगे नहीं बढ़े।
‘अरे! जा ना! रुक क्यों गई।’
चाची के आदेश पर वह मुंह नीचा किए निकल गई। हाथ मुंह धोकर जब लौटी वह दोनों वहां नहीं थे। कमरे में चले गए थे। चाची ने डबलरोटी के चार टुकड़े और एक कप चाय उसके आगे रख दी।
‘चाची आप?’
हम लोग तो ले चुकी। तुम खाओ। यह केतली में चाय और है ले लेना। तब तक मैं दो लोटा पानी डाल आऊं। ठंडा हो रहा है।’
आभा, चुपचाप चाय पीती रही और भविष्य के विषय में सोचती रही। चाची के प्रति हृदय कृतज्ञता से भरता जा रहा था। कितनी मानवता है उनमें। इस घर के किसी व्यक्ति की आंखों में उसने घृणा की छाया नहीं देखी थी। जबकि उसके अपने मां-बाप ने उसे ठोकर मारकर फिर उसी नरक में धकेल दिया। यदि चाची उसे आश्रय न देती तो वह कहां जाती। फिर उसी नर्क में न? मां-बाप के प्रति उसका हृदय कसैला हो उठा, साथ ही नेत्र भी छलक आए। तभी चाची नहा कर लौट आई।
‘अरे! तू फिर दुखी हो उठी। मैंने कहा न तू कुछ चिंता न कर। जो कुछ पिछला है उसे भूल जा और नए जीवन की सोच बेटी।’
‘चाची! जो जीवन अब तक मैं जी आई हूं। उसमें नयेपन के लिए कुछ रह नहीं गया है। जीवन में चारों ओर अंधेरा है, जो मेरी भूल ने स्वतः तैयार किया है। अब तो जीवन भर घृणा तथा ठोकरों के सिवा कुछ नहीं मिलना है मुझे। मुझे स्वयं अपने इस अपवित्र तन से घृणा हो गई है।
घर से निकली थी कि मनोज से शादी करके अपना एक छोटा सा संसार बसाऊंगी परन्तु उस कमीने ने मुझे ठग कर बर्बाद कर दिया। मां-बाप ने भी जन्म भर को मुझे ठुकरा दिया। शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाई कि अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊं। सोचती हूं यदि आप शरण न देती तो आज फिर उसी राह पर होती। चाची! तुम्हारा यह एहसास मैं भी न भूल सकूंगी। अब तक एक आप ही ऐसी हैं जिसने एक गिरी हुई कुलटा से घृणा नहीं की।’
‘आभा! घृणा तो तब करती जब तू उस आचरण को न छोड़ती। तू क्या कोई जानबूझकर गिरने गई थी। यह उम्र ऐसी ही होती है इसमें तेरा दोष कम है, मां बाप का अधिक है, जो आंखें मूंदे रहे। फिर तू केवल मनोज के लिए गई थी उसने ही तो धोखा दिया है तुझे। उसकी सजा तो उसे ईश्वर देगा। परन्तु अपना मन छोटा न कर। तेरे चारों ओर अंधेरा ही नहीं है, उजाला भी है। तुझे नौकरी की अभी आवश्यकता नहीं है। पहले यह बता तू बालिग कब हो रही है? मतलब अठारह वर्ष की हो गई?’
‘अभी चार माह की देर है चाची।’
‘तो ठीक है। चार माह अधिक नहीं है। मैं गांव जा रही हूं तुझे भी वहीं रखूंगी। एक बात ध्यान से सुन लो। निर्णय तुम्हारे हाथ में है।’
‘छोटी बहू! तुम भी आ जाओ और अशोक किशोर तुम दोनों भी।’
उनके आदेश के अनुसार वह तीनों भी आकर बैठ गए। आभा ने सिर झुका लिया था। चाची इत्मीनान से हाथ सेंकती बोली।
‘तुझे तो मालूम ही है आभा। तीन वर्ष पूर्व मेरी बड़ी बहू इसी मुन्ने को जन्म देते समय नहीं रही थी। तब से अशोक ने अपने बाबूजी और मेरे कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। ढेरों संबंध यह ठुकरा चुका। मेरे पास दर्जनों पत्र तथा फोटो रखे हैं लड़कियों के। परन्तु यह अपनी पत्नी को भूल नहीं पाया, अभी इसकी आयु कुल 28 वर्ष तो है ही। यह आजकल देहली में रेलवे में बाबू है। मुन्ना को देखने आया है। छुट्टियों में आता रहता है। कल इसने अपनी आंखों से तेरी दुर्दशा देखी है तभी से इसका हृदय तेरे प्रति अपार वेदना से भर गया है। इसी के कहने से मैं कल तुझे लेने गई थी और कह रही हूं कि अगर तू चाहे तो यह तुझे अपनाने को तैयार है। इसे पत्नी चाहिए और साथ ही मुन्ने के लिए मां।’
आभा की आंखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गई। उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उसके मुख पर कई भाव आए तथा गए फिर वह दोनों हथेलियों से मुंह ढक कर फूट-फूटकर रो पड़ी। चाची तब तक चुप रही वे सब भी चुपचाप बैठे रहे। जब मन का गुब्बार निकल गया तब आभा बोली।
‘चाची! मेरा यह पतित तन आपके मंदिर के योग्य नहीं है। जिस घर में ऐसे देवता रहते हों वहां मैं छल नहीं कर सकती——–मैं—————–मैं इस घर के लायक नहीं हूं।’
‘आभा! देवता ही तो पतितों का उद्धार करते हैं। मैं चाहता हूं कि आज के बाद तुम वह सब भूल जाओ जो अब तक हो चुका है। मैं कभी फिर तुमसे तुम्हारा भूत नहीं सुनना चाहूंगा।
यदि तुम जीवन की कीमत समझती हो तो जो मां ने कहा है वही तुम्हें करना है। अपने लिए सोचना अब तुम्हारा नहीं हमारा काम है। मैं तुम्हें बचपन से जानता हूं जो कुछ हुआ है बचपन की भूल समझ कर भूल जाओ। सयानी तो तुम अब हुई हो। वहीं नए कदम तुम्हें अब उठाने हैं। सोचने के लिए अभी पूरे चार माह पड़े हैं। मैं अभी इसी समय तुम से शादी कर सकता था परन्तु अभी तुम अवस्यक हो इससे चार माह तक टालना पड़ रहा है। वैसे उन्होंने तुम्हें उन्होंने जान के नरक में ढकेल ही दिया है।
‘सच में आभा! तुम बहुत अच्छे भाग्यवाली हो। इतनी लड़कियों को नापसंद करने वाले भाई साहब ने तुम्हें अपनाने का फैसला किया है। भाई साहब आरंभ से महान हैं। मेरी भाभी भी एक गरीब घर की लड़की थी।’
किशोर ने भी भाई का समर्थन किया।
‘जल्दी नहीं है आभा। न जबरदस्ती है, यदि तू विवाह नहीं करना चाहती तो हमारी ओर से स्वतंत्र है। पर यह मत समझना कि मैं तुझे निराश्रित छोड़ दूंगी। नहीं ऐसा नहीं होगा जब तक तू अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जायेगी मैं तुझे मां के समान ही सहायता दूंगी।’
तभी उसने आगे बढ़कर चाची के पैरों पर सिर रख दिया और फिर अवरूद्ध कंठ से बोली।
‘चाची! इस पवित्र मंदिर को छोड़कर संसार का कोई प्राणी भी जाना नहीं चाहेगा। जहां ऐसे पवित्र उद्धारक देवता हों वहां की सेवा चाकरी से ही मुक्ति मिलती हो तब इतने बड़े वरदान को कोई कैसे ठुकरा सकता है। पता नहीं मेरे कौन से जन्मों का सुफल है जो इस देव मंदिर में मेरे पतित चरण पड़ते ही पाप रहित हो गए। ऐसे मुंह मांगे वरदान कोे कोई कैसे अपनी झोली पसार कर नहीं लेगा।’
चाची ने उसे उठाकर हृदय से लगा लिया। उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोली-
‘आज रात की गाड़ी ही से अशोक अपने को गांव छोड़ आएगा। मुन्ना भी तब तक तुझसे हिल मिल जायेगा। वहीं गांव में सगाई भी कर दूंगी।
तभी छोटी बहू एक तश्तरी में प्रसाद के दो पेड़े उठा लाई-
‘लो मां, दोनों का मुंह मीठा तो करा दो।’
‘बस! दो ही पेड़े? मैं क्या कड़ुवा मुंह लिए ही रहूंगा? किशोर बोला।
उसकी बात पर सब हंस दिए। तभी अशोक ने आधा पेड़ा तोड़कर उसके मुंह में रख दिया और आधा अपने मुंह में रखकर खाने लगा।
आभा ने भी तीन टुकड़े करके आगे बढ़ा दिए। उसके नेत्र लाज से झुक गए थे, पीड़ित व्यथित मुख पर जीवन की स्निग्ध मुस्कान बिखर पड़ी थी।