लेख विजय सिंह माली
ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रणिपात करना चाहिए, प्रश्न पूछने चाहिए और सेवा करनी चाहिए।
प्रणिपात अर्थात् विनयशीलता होनी चाहिए। विनम्रता होनी चाहिए।
भाषा-भूषा आचार विचार और व्यवहार में विनम्रता होनी चाहिए।
अप्रैल 2023
शिक्षा विशेषांक
शिक्षा का केन्द्र बिन्दु विद्यार्थी होता है। जो ज्ञान प्राप्ति की इच्छा रखता है, जो जिज्ञासु है वही विद्यार्थी है। जो अपने और जगत के कल्याण के लिए ज्ञान प्राप्त करना चाहता है उसे ही विद्यार्थी कहते हैं। विद्या प्राप्ति के लिए साधना करनी पड़ती है। सुख और आराम में रहकर विद्या प्राप्त नहीं की जा सकती। कहा भी गया है-
सुखार्थी चेत् त्यजेत् विद्यां विद्यार्थी चेत् त्यजेत सुखम्।
सुखार्थिन कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम्।।
अर्थात् सुख की कामना करने वाले को विद्या प्राप्ति छोड़ देना चाहिए। अगर विद्या प्राप्ति की कामना है तो सुख की कामना छोड़ देनी चाहिए। सुखार्थी को विद्या और विद्यार्थी को सुख कैसे प्राप्त हो सकता है?
विद्यार्थी सुख शैया पर नहीं सोता, मिष्ठान या भांति-भांति के भोजन नहीं करता, मनोरंजन के पीछे समय बर्बाद नहीं करता, यही उपदेश उसे दिया जाता है। ज्ञान प्राप्ति के लिए धन की नहीं अपितु कुछ विशेष गुणों की आवश्यकता होती है जिनके कारण उसे ज्ञान प्राप्ति की पात्रता प्राप्त होती है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है-
श्रद्धावान लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
श्रद्धा अर्थात् ज्ञान में श्रद्धा, अपने आप में श्रद्धा और ज्ञान देने वाले में श्रद्धा होनी चाहिए। तत्परता अर्थात् नित्य सिद्धता अर्थात ज्ञान प्राप्ति के लिए कुछ भी करने के लिए हमेशा तैयार रहना, तत्पर रहना। इंन्द्रिय संयम अर्थात् मौज शौक का संपूर्ण त्याग। यह ज्ञान प्राप्ति की सबसे बड़ी पात्रता है।
श्रीमद्भगवत्गीता में कहा गया है-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्ेन्न सेवया।
अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रणिपात करना चाहिए, प्रश्न पूछने चाहिए और सेवा करनी चाहिए। प्रणिपात अर्थात् विनयशीलता होनी चाहिए। विनम्रता होनी चाहिए। भाषा-भूषा आचार विचार और व्यवहार में विनम्रता होनी चाहिए। विनम्र होने से ही ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है। परिप्रश्न का अर्थ है उत्सुकता। जानने के लिए किए गए प्रश्न ही परिप्रश्न है। भारतीय परंपरा में जिज्ञासा अर्थात् जानने की इच्छा उसके लिए पूछे गए प्रश्न ही ज्ञान सरिता के प्रभाव का उद्गम है। साथ ही साथ सेवा भी ज्ञान प्राप्ति के लिए आवश्यक है। ज्ञान देने वाले के प्रति नम्रता के साथ-साथ उसकी सेवा भी जरूरी है।
नम्रता मन का भाव है, जिज्ञासा बुद्धि का गुण है और सेवा शरीर का कार्य है। इस प्रकार विद्यार्थी शरीर, मन, बुद्धि, तीनों से ही ज्ञान प्राप्त करने के लिए लायक बनता है। विद्यार्थी के व्यवहार के लिए एक सुभाषित कहा गया है-
काकचेष्टा बको ध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च।
अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंच लक्षणम्।।
अर्थात् ज्ञान प्राप्ति की पात्रता रखने वाले विद्यार्थी के पांच लक्षण हैं-
1- वह कौए की तरह तत्पर होना चाहिए। उसकी दृष्टि से कुछ भी नहीं छूटना चाहिए।
2- वह मछली पकड़ने के लिए एकाग्र बगुले की तरह एकाग्रचित्त हो।
3- उसकी निद्रा श्वान जैसी हो अर्थात् जरा सी आहट में वह जग जाए।
4- वह कम खाने वाला हो।
5- वह घर की मोहमाया में नहीं फंसे।
आज के संदर्भ में इस प्रकार कह सकते हैं कि विद्यार्थी को प्रातः जल्दी उठने की, रात को जल्दी सोने की, नित्य व्यायाम करने की, श्रम करने की, मैदानी खेल खेलने की, पौष्टिक आहार लेने की, शरीर को स्वच्छ करने की आदतें डाल कर अपना शरीर स्वस्थ और बलवान बनाना चाहिए। टीवी, मोबाइल, मोटर साइकिल या अन्य वाहन, होटल, नए-नए कपड़े, गहने, मित्रें के साथ गपशप, मस्ती, व्यसन, तामसी भोजन को छोड़ कर अपना मन सद्गुण युक्त, बलवान और ज्ञान प्राप्ति के अनुकूल बनाना चाहिए। ओमकार उच्चारण, मंत्र पठन, ध्यान, आसन, प्राणायाम आदि का अभ्यास कर प्राणशक्ति बढ़ानी चाहिए। मन को एकाग्र और नियंत्रित करना चाहिए। नित्य स्वाध्याय, नित्यसेवा और आदर युक्त व्यवहार से चित्त को शुद्ध बनाना चाहिए। इन सब का पालन करने वाले विद्यार्थी को विद्या प्राप्त होती है और उत्तम फल प्राप्त होता है, वही आदर्श विद्यार्थी है।
आदर्श शिक्षक के गुण
भारतीय शैक्षिक चिंतन में शिक्षक का स्थान बहुत ही आदरणीय पूज्य और श्रेष्ठ माना गया है। सभी प्रकार के सत्तावान, बलशाली, शौर्यवान और धनवान व्यक्तियों से भी शिक्षक का स्थान ऊंचा है। शिक्षक को आचार्य, अध्यापक, उपाध्याय व गुरु आदि नामों से संबोधित किया जाता है। दैनंदिन जीवन में शिक्षक का आचार्य नाम स्थापित है। आचार्य की व्याख्या इस प्रकार की गई है-
आचिनोति हि शास्त्रर्थ आचारे स्थापयत्युत।
स्वयंमाचरते यस्तु स आचार्यः प्रचक्षते।
जो शास्त्रें के अर्थ को अच्छी तरह से जानता है, जो इन अर्थो को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी आचरण में लाता है और छात्रें से भी आचरण करवाता है उसे आचार्य कहा जाता है।
आदर्श शिक्षक सबसे पहले आचार्य होना चाहिए। अपने आचरण से विद्यार्थी को जीवन निर्माण की प्रेरणा और मार्गदर्शन देता है वही आचार्य है। आचार्य शासन भी करता है अर्थात् विद्यार्थी को आचार सिखाने के साथ-साथ उनका पालन भी करवाता है। आचार्य का सबसे बड़ा गुण है उसकी विद्या प्रीति। जिसे पढ़ने में, स्वाध्याय करने में और ज्ञान चर्चा करने में आनन्द आता है वही आचार्य है। आचार्य का दूसरा गुण है उसका ज्ञानवान होना। स्वाध्याय, अध्ययन और चिंतन आदि से ही मनुष्य ज्ञानवान हो सकता है। बुद्धि को तेजस्वी और निर्मल बनाने के लिए जो अपना आहार-विहार, ध्यान, साधना अशिथिल रखते हैं वही आचार्य ज्ञानवान होते हैं। ज्ञानवान होने के साथ-साथ आचार्य का श्रद्धावान होना भी जरूरी है। अपने आप में, ज्ञान में और विद्यार्थी में श्रद्धा होती है, तभी वह विद्यादान का कार्य उत्तम पद्धति से देे सकता है।
आचार्य को विद्या प्रीति के साथ विद्यार्थी प्रीति भी होनी चाहिए। आचार्य को विद्यार्थी अपने मानस संतान और अपने दहेज संतान से भी अधिक प्रिय लगते हों, विद्यार्थी अपने आराध्य देवता लगते हों, तभी वह उत्तम आचार्य है। आचार्य को विद्यार्थी प्रिय होना चाहिए लेकिन लाड करने के लिए नहीं। उसका चरित्र निर्माण और उसके कल्याण की चिंता करने वाला होना चाहिए। आचार्य कभी भी विद्या का सौदा नहीं करता। पद, पैसा, मान, प्रतिष्ठा के लिए कभी कुपात्र को विद्यादान नहीं करता। योग्य विद्यार्थी को ही आगे बढ़ाता है। आचार्य को भय, लालच, खुशामद या निंदा का स्पर्श भी नहीं होता है। आचार्य धर्म का आचरण करने वाला होता है। आचार्य सभ्य, गौरवशील, सुसंस्कृत व्यवहार करने वाला होता है। उसके व्यवहार में हल्कापन, ओछापन नहीं होता है। वह कभी संतुलन नहीं खोता। मन के आवेगों पर नियंत्रण रखता है। धर्म को समझता है, कर्तव्य समझता है, सन्मार्ग पर चलता है। वह विद्यार्थी के साथ-साथ समाज का मार्गदर्शन करने को भी अपना कर्तव्य समझता है। आचार्य हमेशा प्रसन्न रहता है। शारीरिक रूप से स्वस्थ रहता है। रोगी, संशय ग्रस्त, पूर्वाग्रहों से युक्त, चिड़चिड़ा, लालची, प्रमादी नहीं होता है। ऐसा आचार्य ही आदर्श शि्ाक्षक है, वहीं समाज का भूषण है।