कहानी चित्रलेखा अग्रवाल
मई, 2023
भारत दर्शन विशेषांक
मध्यम वर्ग की एक महिला को पति की मृत्यु होने के बाद
अपने चार बच्चों के साथ घर छोड़ना पड़ा। उसने अपने बच्चों को
पालन ही नहीं किया, अपितु अच्छी शिक्षा भी दिलवाई कैसे?
एक सामान्य नारी की प्रेरक गाथा।
मां मैं स्कूल कब जाऊंगी? दीदी और छोटू का एडमिशन करा दिया तूने। मेरा कब करायेगी बता? मनभरी ने पूछा।
कमला ने पत्थर की लकीर सा अपना दो टूक निर्णय सुना दिया-‘जब तेरी दीदी का ब्याह हो जाएगा तू तब स्कूल जाएगी। अभी तो तुझे मुझे और सुक्कू भैया को कई बरस तक दीदी की शादी के लिए पचास गुल्लक रुपये जोड़ने हैं।’
मनभरी ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी-‘पर अम्मा मैं नन्हीं मुन्नी हूं। मुझे बस पढ़ना और खेलना आता और भाता है। मुझे कोई काम भी नहीं आता! मां! मेरा यह रद्दी सा नाम मनभरी क्यों है? तूने और दादी ने दीदी की तरह का अच्छा सा नाम क्यों नहीं धरा मेरा? और सुन जब तू दीदी की शादी के लिए पचास गुल्लक खरीदने जाएगी तब मेरी पढ़ाई के लिए भी एक्यानवीं गुल्लक ला देना।’
मनभरी के प्रश्नों का उत्तर देकर कमला ने उसे दिलासा दी-‘कल से मेरे संग कोठियों पर काम करने चलना। काम तुझे मैं सिखाऊंगी। तेरा नाम पंडित जी ने तेरे नामकरन के दिन धरा था। तेरी दीदी के जन्म के बाद से घर में लड़कियों की लाइन लग गई थी। तुम तक आते-आते पूरे घर का मन लड़कियों से भर गया था। इसीलिये पंडित जी के सुझाने से तू मनभरी नाम से बाजने लगी। तब तेरी दादी ने भगवान जी के अगाड़ी हाथ जोड़ लिए थे, के हे प्रभू क्षमा करो। मांगी एक थी। तूने पूरी फौज बक्स दी लल्लियों की, हमारे कुनबे को।’
कमला के पति की मृत्यु के बाद सास कुन्ती ने पाई-पाई करके जोड़े दस हजार की नकद रकम पकड़ा कर कांपते स्वर और डबडबायी आंखों से कमला को मुंह अंधेरे ही घर की देहरी लंघाते हुए कहा था-‘तू जेठ देवरों की द्रौपदी बनने से पहले निकल ले। जहां तेरे सींग समायें चली जा। पलट के इस घर को देखियो भी मत! इतनी बड़ी दुनिया में तुझे ठौर-ठिकाना मिल जायेगा। मेरी मरी का मुंह देखे जो सोचा तक भी इधर का।’
उसे घर निकला देकर कुन्ती ने अक्लमंदी का ही काम किया। वह कैसे? वह ऐसे कि दोनों विधुर जेठों और दो अविवाहित देवरों ने कमला का घर में जीना दूभर कर दिया था। कुन्ती किस-किस से मोर्चा लेती। यहां तक कि कुंती के अपने ही जाये चारों बेटे उसे अपनी राह का कांटा मानकर उसे सदैव के लिए मामा के घर भेजने का ध्रुव निर्णय लेने पर आमदा हो गये थे।
सगी भाभी की त्यौरियां चढ़ने का अनुमान करके मां के घर भी न जा सकी कमला। और फिर सौतेली मां को कभी फूटी आंखें भी नहीं सुहायी थी वह। अतः कमला अपनी चारों संतानों को सीने से लगाकर शहर में मौसेरी बहन सुमन के कुचकुलियां जैसे घर में आ गयी।
सुमन का स्वयं का ‘राजा सागर’ सा विशाल परिवार था। उसका पति गोपाल गली-गली जाकर ठेले पर सब्जियां बेचता था। पर उस अकेले की कमाई से घर की पूरी नहीं पड़ती थी, अतः सुमन कालोनी की कोठियों में चौका बर्तन और झाड़ू पोंछे का काम करती थी। सुमन ने अपने बड़े दिल का परिचय देते हुए अपने डेढ़ हाथ के घर में कमला को रहने के लिए जगह दे दी।
एक रात दोनों बहनें जब सोने को लेटी थी तो कमला की व्यथा कथा सुनकर सुमन नौ-नौ आंसू रोने लगी और अपने पति का मन उसने कमला को बता दिया, ‘कम्मो तेरे जीजा कह रहे थे के इस बुदक्के से घर में कम्मो को महीना डेढ़ महीना टिका ले। बस उसे भी कोठियों का काम पकड़वा दे। तब तो उसकी गुजर हो जायेगी। कन्हैया की अम्मा का कमरा खाली पड़ा है। कम्मो बाल बच्चों के समेत उसी में किराये पर रह लेगी।’
कमला को पास की पांच कोठियों का काम मिल गया। कन्हैया ने अपनी अम्मा वाला मल्टीपरपज कमरा नुमा मकान उसे पन्द्रह सौ रुपये के किराये पर दे दिया। उसी में उसे खाना बनाना, नहाना, सोना और रहना था। कन्हैया की अम्मा के घर में आकर कमला और बच्चों को अक्सर गांव के बड़े दालानों वाले घर की याद हरी हो जाती। पर सास ने तो उधर देखने तक को बरज दिया था और अपने मरे की कसम तक दे डाली थी।
शौचालय की सुविधा कमला को फिलहाल सुमन ने अपने शौचालय में दे दी। पर रात-विरात में उन्हें बड़ी परेशानी होती थी। पांच नंबर की कोठी वाली मेमसाब के देवर बी-डी-ओ थे। अतः उन मेमसाब के देवर ने कमला के कमरे के बराबर वाली खाली जगह पर उसके लिये इज्जत घर सरकारी सहायता से बनवा दिया था। तब कमला और सुमन दोनों जाकर पांच नंबर की कोठी वाली मेमसाब का और उनके देवर का बहुत सा धन्यवाद कर आई और उन्हें आशीषा भी।
सुमन की सलाह पर कमला ने अपनी बड़ी बेटी तुलसी और छोटे-बेटे सुनील को सरकारी स्कूल में पढ़ने भेज दिया। बड़े बेटे सुकून को इंटर का प्राइवेट फार्म भरवा दिया और उसे आटे की चक्की पर काम में लगा दिया। मनभरी को कमला अपने साथ कोठियों के काम पर ले जाने लगी।
सुमन ने कमला को पांच कोठियों का काम दिला ही दिया था। सास कुंती के दस हजार रुपये कमला ने सुमन के पास संदूक की तली में रखवा दिये। सुमन कालोनी में बरसों से काम कर रही थी। अतः उसके विश्वास पर कमला को खर्चे पानी के लिये नकद आधे महीने का वेतन अग्रिम दे दिया था मेमसाबों ने।
तुलसी रूपमती और विदुषी थी। कमला का घर निकाला करते वक्त कुंती ने तुलसी के लिये उसे चेता दिया था। ‘बारहवीं करके रूप की फुलझड़ी के हाथ पीले करके निरछू हो जइयो। कभी बाद को पछताती फिरे।’ सास की बात को कमला ने गांठ बांधकर पांच बरस की एफ डी करके हृदय के बैंक में रख ली थी।
मनभरी को कमला निहार मुंह काम पर ले जाने लगी। वहीं पर मनभरी भी मां के साथ चाय ब्रेड सुड़क लेती थी। कभी-कभी मनभरी को मेमसाबों के बच्चों के बचे मक्खन लगे टोस्ट भी मिल जाते थे। कमला मनभरी को काम की ए-बी-सी-डी सिखाने के लिये अपने मांजे बर्तन उससे धुलवाती थी। मनभरी को पानी से खेलना अच्छा लगता था। वह घंटों तक दूध जैसी पानी की धार बनाकर पानी को हलवाइयों की तरह से एक गिलास से दूसरे गिलास में उछालती रहती थी। और ऊंची लय में गाती जाती-‘मेरे गिलास शीशे से चमकें, देख लो मेमसाब अपना मुंह चाहे जिधर से।’
पांच नंबर की कोठी वाली मेमसाब की रसोई का सिंक यशोदा मैया की छींके से भी ऊंचा था। इसलिए कमला ने उनकी बालकनी से टुटेला स्टूल मनभरी को दे दिया था। कमला मनभरी को उसी टुटेले स्टूल पर खड़ा कर देती थी। तब मनभरी पानी उछालने का खेल किये बिना ही मिनटों में लबालब भरे सिंक के बर्तन धो डालती थी।
धीरे-धीरे मनभरी इकल्ली ही टुटेले स्टूल पर चढ़कर बर्तन मांजने और धोने लगी। एक बार वह सिंक पर एक पैर टिकाकर सिंक पर आधी झुक गयी और बर्तन धोने लगी। वापस स्टूल पर पैर टिकाने के चक्कर में वह गिर पड़ी। उसके हाथ पैर चोटिल हो गए। तब मेमसाब ने कमला को खूब खरी खोटी सुनाई थी और मनभरी की मरहम पट्टी भी करी। गिलास भर खूब गरम मीठा दूध हल्दी डालकर पिलाया आैर मिठाई भी खिलाई थी। इतने दिनों बाद मनभरी को दूध पीने को मिला था। दादी तो रात में सबों को भर-भर गिलास घर की भैंसिया का दूध रोज देती थी। तब उसे दूध जरा भी नहीं भाता था। दवाई सा खराब लगता था। पर दादी के डर से गिलास भर दूध मनभरी आंखें बंद करके गटागट पी जाती थी। कमला बेबस अपराधिनी सी मनभरी के पास खड़ी हो गई थी। तब मेमसाब ने कमला को डांट की दूसरी खुराक पिलाई-‘लाप्यूला की एक भी प्लेट टूट जाती तो तेरी तनख्वाह से पैसे काट लेती।’ कमला ने तभी से महंगी वाली क्रॉकरी मनभरी से मंजवानी धुलवानी बंद कर दी।
कमला ने मनभरी को अब सूखे के काम पर लगा दिया। उससे लंबी चौड़ी कोठियों में केवल झाड़ू लगवाती। मनभरी लाख फ्रॉक को चारों तरफ से समेटकर, कच्छे में उरस कर झाड़ू लगाती पर न जाने कैसे पीछे से उसकी उरसी फ्राक भी खुलकर पीछे-पीछे झाड़ू लगाती चलती। और धूल में अट जाती। मां से जिद करके मनभरी फिर पोंछा भी लगाने लगती। रगड़-रगड़ कर फर्श को आईने सा चमकाती। पर न जाने कैसे उसकी अच्छी तरह से उरसी फ्रॉक कच्छे की गिरफ्रत से मुक्त होकर पोंछे के गंदे पानी में लिथड़-लिथड़ जाती थी।
तब मां मनभरी की फ्राक को आगे पीछे दोनों तरफ से पिनों से ऊंचा कर देती थी। कई बार पीनें खुलकर उसके पेट और कमर में डॉक्टर की सुई की तरह भक्क से चुभ जाती थी। मनभरी अक्सर पोंछे को कसकर नहीं निचोड़ पाती थी। तब फर्श पर रपटन हो जाती थी। उस रपटन पर मनभरी मेमसाब की धरोहर की तरह से स्केटिंग वाले स्टाइल से जानबूझ कर रपट जाती थी। जब वह धरोहर के टॉयरूम में पोंछा लगाती थी तो धरोहर के महंगे खिलौनों से अपने गीले और मैंले हाथों से खेलने लग जाती थी। यह तो अच्छा होता था कि धरोहर जब अपने स्कूल गई हुई होती थी। नहीं तो धरोहर मनभरी को अपने खिलौने छूने तो क्या उनकी तरफ देखने तक भी नहीं देती। धरोहर मनभरी को मनभर की, टनभर की, कहकर चिढ़ाती रहती थी।
पिनों से फ्रॉक तो ऊंची करके पोंछा लगाने से मनभरी के मैदा से चिट्टे घुटने काली कलूटे बैगन लूटे हो गये थे। मनभरी घुटनों को उजला बनाने की जुगत में घुटनों को झाम्बे से रगड़-रगड़ कर छील लेती थी।
धरोहर की दादी मां ने धरोहर को उसके जन्म दिवस पर बड़े मन से अपने हाथों से बनाकर राजस्थानी घाघरा चुनरी पहनी कपड़े की प्यारी सी गुडि़या उपहार में दी। पर धरोहर ने उसे जन्मदिन के महंगे उपहारों से अलग कर एक तरफ रख दिया। धरोहर की दादी मां का मन बुझ गया। धरोहर के मम्मी-पापा ने भी धरोहर को दादी मां के उपहार की अपेक्षा करने पर टोका तक नहीं। दादी मां को गुडि़या की अनदेखी सहन नहीं हुई। उन्होंने उस गुडि़या को मनभरी को दे दिया। धरोहर और उसके मम्मी-पापा ने इसका कोई नोटिस भी नहीं लिया। मनभरी ने धरोहर के महंगे सॉफ्रट टॉयज को मुंह चिढ़ाती गुडि़या को अपने फ्रॉक में छुपा लिया कि उसके पास गुडि़या को देखकर धरोहर कहीं गुडि़या को वापस न मांग ले। धरोहर ने तो जैसे दादी मां की गुडि़या से छुटकारा पा लिया। मनभरी ने धीरे से दादी मां को ‘थैंक्यू दादी मां’ कहा।
रात को मनभरी गुडि़या को सीने से लगाकर सोई। तब नीलपरी हाथ में किताब उसके पास लेकर आई और बोली-‘मनभरी लाइब्रेरी वाली मैडम ने ‘अलबेली तुम अच्छी हो’ नामक पुस्तक तीन दिनों के लिए मुझे इशू की है। हम दोनों मिलकर पढ़ेंगे।’
तब उसने और नील परी ने ‘अलबेली तुम अच्छी हो’ पुस्तक को पढ़ी। उसमें फूलों और तितलियों के चित्र देखें। फिर दोनों धरोहर की दादी मां वाली गुडि़या से खूब देर तक खेलती रही। चलते-चलते नील परी ने मनभरी को बताया-‘मनभरी मैं तेरे घर के सामने वाले ‘लाल गेट’ वाले स्कूल में ही तो पढ़ती हूं—-बाय मनभरी।’ फिर नीलपरी अपने घर नीले आकाश में उड़ गई। तीन रातें नीलपरी मनभरी के पास आती रही तब दोनों ‘अलबेली तुम अच्छी हो’ पढ़ती और गुडि़या के साथ खेलती फिर नील परी आसमान में चली जाती।
शाम को कोठियों का काम निपटा कर कमला जब लौटती तो मेमसाबों से लौकी, तुरई के बक्कल, फूल गोभी के डंठल, परवल टेंडों के छीलन को, और भिंडी की टोपी और पूंछ लेकर सब घर बांध लाती। कमला को शाम के साग सब्जी में एक धेला तक भी नहीं खर्च न पड़ता था कभी भी। वह उन सब को मिलाकर एक आध आलू डालकर, पानी मिलाकर ढेर सारी काम की रसीली सब्जी बना देती थी। कमला के बच्चों ने उसी अकेली सब्जी के अनेकों पर्यायवाची नाम रख दिए थे। सुकून कटाक्ष करता-‘मां तू हमें रोज छप्पन भोग खिलाती है।’ तुलसी बड़बड़ाती-‘मंदिर में अन्नकूट’ साल में एक बार बनता है पर हमारी ‘मदर द ग्रेेट’ अन्नपूर्णा की अवतार है। रोज हम सबको ‘अन्नकूट के प्रसाद’ से रोटी परोसती है।
मनभरी भी कमला को उलाहना देती-‘विटामिन्स तो छिलकों में ही तो होते हैं! पर मम्मी, सॉरी मॉम, कोठियों के विटामिन घर उठा लाती हैं। मनभरी कोठियों में छिलकों में भरपूर विटामिन्स होने का गुणगान सुनती रहती थी और मेमसाब के बच्चों की तरह से मां को मॉम कहना सीख गई थी। छोटू स्कूल में नए-नए मुहावरे सीखता था और बिना चूके मां के खाने पर फिट कर देता था-‘मां, आम के आम और गुठलियों के दाम, खरे कर लेती हैं।’
यदि उसी समय सुमन के बच्चे भी आ जाते तो मौसी के खाने पर वह भी कमेंट जरूर देते-‘गड्ड की डिश खाओ, पेट अपना बड़बड़ाओ।’ ‘गड़बड़झाला, गड़बड़छाला मौसी ने पकाया गड़बड़झाला, कटहल का बक्कल पकाया, डालकर तीखा मिर्च मसाला।’ खुद कमला का हृदय भी बच्चों की ओर देखकर भर आता-‘सासू मां खेत से ताजी सब्जियां लाती थी। मैं सिलबट्टे पर ताजे मसाले पीसकर सब्जियां बनाती थी। सब उंगलियां चाटते रह जाते थे।’ तब कमला शीघ्र ही उधर से ध्यान हटाकर रोटियां सेंकने लगती थी।
जब मनभरी बर्तन और झाड़ू, पोंछे के काम में पक्की पकोडि़यां हो गई तो कमला ने उसे दो कोठियों के काम का स्वतंत्र प्रभार दे दिया और स्वयं तीन और कोठियां पकड़ ली। कमला और मनभरी दिन भर इस कोठी से उस कोठी तक धरती और चन्द्रमा की तरह कोल्हू के बैल सी चक्कर काटती रहने लगीं।
कमला को जब महीने के आखिरी में अपना और मनभरी का वेतन मिलता तब वह मनभरी को पचास-पचास के दो करारे नोट दे देती कहती-‘एक नोट से अपने लिए तितली वाली चप्पले ले आ। तवे पर तपती सी धरती पर पैरों में आग बलती होगी। ‘कभी कहती-फूलों वाली फिरोक ला दूंगी।’ पर मनभरी पचास के एक नोट से अपनी जरूरत का कभी कुछ मंगा लेती और कभी कुछ और। और दूसरा पचास का करारा नोट मनभरी अपनी इक्यावणवीं गुल्लक में पोस्ट कर देती।
इधर कमला ने पाई-पाई जोड़ कर पचास की पचास गुल्लकों को मुंह तलक भरकर तुलसी की शादी के लिए दो लाख रुपये जोड़ लिए। तुलसी ने प्रथम श्रेणी में सम्मान सहित इंटर पास कर लिया। तुलसी ने हर गर्मियों की छुट्टियों में सिलाई सीख कर सिलाई में डिप्लोमा प्राप्त कर लिया था। गांव छोड़ते समय दादी की दी गई हिदायत को उसने गांठ में बांध लिया था-‘बिटिया हुनरमंद बनना। वक्त बेवक्त हुनर ही काम आता है।’
अपने सिलाई के हुनर से तुलसी ने साडि़यों में फाल लगाकर और सुमन मौसी की मशीन पर उसने कॉलोनी की सिलाई करके अच्छी रकम जोड़ ली थी। रात को समय मिलने पर कमला तुलसी के सिले कपड़ों पर तुरपन, बटन-हुक कर देती थी। तुलसी के जुड़े पैसों से कमला ने तुलसी को शादी में देने के लिए सिलाई मशीन भी खरीद दी। सुकून ने दिन में चक्की पर काम करके और रात में पढ़ाई करके एम-कॉम कर लिया। कमला ने खाते पीते घर का सरकारी नौकरी वाला लड़का तुलसी के लिए तलाश लिया। शादी अक्षय तृतीया के दिन होनी तय हो गई।
तुलसी की शादी में मनभरी ने जीजा जी के जूते चुराये। जूता छुटाई देने में जीजा जी ने आनाकानी की तो उसने जीजा जी को चेतावनी दे दी-‘पाई चीज पराई पैसा दे छुटाई।’ जीजा जी ने उसे ‘जूता छुटाई’ के पूरे दो सौ का करारा नोट दिया। दो सौ के नोट पर मनभरी ने जीजा जी को एक ही जूता दिया। दूसरे जूते के लिए उसने जीजा जी से एक और नोट की फरमाइश की। जीजा जी ने हंसते हुए अपनी जेब से दो सौ का एक और नया नोट निकाला और मनभरी पर न्यौछावर कर के उसे दे दिया। दूसरा नोट हाथ में आते ही मनभरी ने दूसरा जूता भी जीजा जी को पहनने को दे दिया। दोनों नोट मनभरी झट से अपनी पढ़ाई वाली गुल्लक में डाल आई। आकर उसने कमला से पूछा-‘मां—दीदी के दूल्हे के जूते मैंने चुराए। पर मेरे दुल्हे के जूते कौन चुराएगा?’ फेरों पर बैठी तुलसी वहीं से बोल पड़ी-‘तेरे दूल्हे के जूते मैं चुराऊंगी और कौन चुराएगा?’ दोनों बहनों का वार्तालाप सुनकर दुल्हे सहित सब बराती भी हंस पड़े। कमला ने बात घुमा दी-‘जूते छोटी साली चुराती है। बड़ी बहन मां बराबर होती है, तू मनभरी के दुल्हे को ‘छन्न सुनाई’ का नेग देना।’
अब तुलसी के कानों में पंडित जी के मंत्र और फेरों के वचन नहीं वरन बार-बार मां कमला की बात बड़ी बहन मां बराबर मंत्र और वचन बनकर कानों में गूंजने लगे।
तुलसी की विदाई पर कमला की आंखों में सावन भादो बरसने लगे। पर मनभरी की आंखों में जैसे सूखा पड़ गया। उसने बूंद भर भी आंसू नहीं टपकाया। उसके मन में खुशियों के अनार छूट रहे थे-‘दीदी के विदा होते ही मैं लाल गेट वाले स्कूल जाऊंगी। नील परी भी तो लाल गेट वाले स्कूल में पढ़ती है। दूर नीले आसमान से उतरकर नील परी लाल गेट स्कूल आती है। मेरे तो घर के सामने हैं। ‘लाल गेट स्कूल’ स्कूल की घंटी की आवाज सुनकर मैं मां के साथ कोठियों पर काम को जाती हूं। पर अब मैं मां से कहूंगी कि मुझे लाल गेट स्कूल छोड़ते हुए कोठियों के काम पर जाया करें। मैं भी अपना बैग और बच्चों की तरह से मां को थमा दिया करूंगी। पानी की बोतल और लंच भी। मां से रिबन की फूलों वाली दो चोटियां गुंथवाया करूंगी। अभी तो मां जल्दी के मारे रबर बैंड से मेरी पेनीटेल बना देती है।
तुलसी की विदाई बेला पर घरातियों ने कमला को सलाह दी-‘कम्मो हाथों-हाथ पटला बदलवा दें। ‘लौटा फेरी’ लगे हाथ विदा के सथों-साथ कर दें।’ गौना कराएगी तो दस हजार के लपेटे में आ जाएगी। विदा के टीके पर ही ‘लौटा फेरी’ का भी एक सौ एक से टीका करके हाथ जोड़ लियो। कुंती वाले दस हजार रुपये विदा-वाद अलग से गौना करने को सुमन की संदूक की तली में ही पड़े रहने दिए थे कमला ने।
हाथों-हाथ, लौटा फेरी कानों में पड़ते ही तुलसी कमला के कानों में धीमे से परन्तु दृढ़ता से बोली, ‘मां तू अभी विदा का टीका कर दे बस। विदा बाद मैं और येे मनभरी का एडमीशन कराने सामने के ‘लाल गेट वाले स्कूल’ में जाएंगे।’
कमला ने शंका व्यक्त की-‘दामाद जी मानेंगे?’ तुलसी ने मां को दिलासा दी-‘मां मुझे गौर फिराई में पर्स भर रुपए मिले हैं।’
तुलसी का पति मुस्कुराते हुए बोला-‘मम्मी जी छन्न सुनाई के नेग में रुपयों से मेरी चारों जेबें भारी हो रही हैं।’ मनभरी एक्यावनवीं गुल्लक उठा लाई। इठलाते हुए बोली-‘दीदी, जीजा जी मुंह तलक भरी, गुल्लक मनभरी तेरी।’
तुलसी, उसका पति और मनभरी तीनों घर के सामने के ‘लाल गेट स्कूल’ पहुंचे। तुलसी मनभरी का फार्म भरने लगी तो मनभरी बोली-‘फार्म में मेरा नाम अलबेली लिखना दीदी। दादी वाला मनभरी नहीं।’
तुलसी ने नए बैग में नई किताबें और कॉपियां दिलवा दीं। पूरे साल की फीस और वार्षिक देय भी जमा करा दिए। तुलसी का पति भी पीछे नहीं रहा। घर लौटने में बाजार से उसने खाना गरम रखने वाला लंच बॉक्स और पानी को ठंडा रखने वाली बोतल भी दिलवा दी। और दोनों चीजें बैग की अगली वाली दोनों पॉकेट्स में सेट कर दी। खिलौनों की दुकान से कूदने की रस्सी, रिंग, बॉल, रंग बिरंगे गिट्टू साली को दिलवा कर उसने जेबें हल्की कर लीं।
कमला तुलसी की लौटा फेरी की तैयारी में इधर से उधर दौड़ रही थी। पर तुलसी के पति ने एक सौ एक से टीके पर टीका करा के लौटा फेरी करा ली।
तभी तुलसी के ससुर ने कमला को एक पैकेट पकड़ाया। कमला ने पैकेट खोलकर देखा तो उसमें मनभरी और छोटू की स्कूल ड्रेस थी। घरातियों की आंखों में आश्चर्य तिरते देख वे बोले-‘बहन जी हमारे यहां बहू के छोटे भाई बहनों को कपड़े देने का रिवाज है। कल वहां बाजार बंद था। अभी-अभी छोटे बेटे से यहीं के बाजार से मंगवाए हैं।’
‘लौटा फेरी के बाद कमला सास कुुंती वाले दस हजार रुपये तुलसी के पति को पकड़ाने लगी तो तुलसी ने मां को बरज दिया-‘दोनों ताऊओं और दोनों ही चाचाओं ने दादी को मरताऊ कर दिया है। दादी रात दिन इनकी गृहस्थी में खटती रहती है। और कोई उसे दो रोटी तक को नहीं पूछता। अब तू इन पैसों से दादी को अपने पास रखकर उसका इलाज करा। ठीक होने के बाद दादी को फिर से मरने के लिए उन कसाइयों के पास मत भेजना।’
लौटा फेरी के बाजे बजने लगे। तुलसी, उसके पति और बारातियों को घरातियाें ने खुशी-खुशी विदा किया।
दीदी की विदाई पर मनभरी——–सॉरी———–अलबेली की आंखों में खुशी एवं कृतज्ञता के आंसू थे।