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अमर शहीद खुदीराम बोस

महान क्रांतिकारी

< अमर शहीद खुदीराम बोस >
– पूर्णिमा मित्र
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जिसने मात्र 18 वर्ष की आयु में क्रूर, अन्यायी और शक्तिशाली अंग्रेजों से लोहा लेते हुए भारत माता के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।

मुजफ्रफरपुर जेल में 1908 के दस अगस्त को एक 18 वर्षीय कैदी से डिप्टी जेलर ने पूछा ‘खुदीराम फांसी से चढ़ने से पहले तुम्हें कोई मनपसंद चीज खानी है तो मैं ला दूंगा।’
हंसमुख स्वभाव के खुदीराम ने कहा, ‘बाबा मुझे आम बहुत पसंद है।’
बंगाली डिप्टी जेलर ने रुंधे कंठ से कहा, ‘हां, बेटा। अभी लाकर देता हूं।’ कहकर थोड़ी देर बाद खुदीराम को कुछ आम पकड़ा कर चले गये।
रात को भारी मन से जब वे खुदीराम बोस से मिलने आये तो उन्होंने देखा कि आम जस के तस पड़े हैं। उन्होंने उस क्रांतिकारी से पूछा, ‘बेटा खुदीराम तूने आम नहीं खाये?’
खुदीराम ने मासूमियत से कहा, ‘बाबा कल जिसे फांसी होने वाली है, उसे आम खाने को कैसे सूझ सकती है?’
डिप्टी जेलर ने भारी मन से कहा, ‘ठीक है, यह आम मैं रख लेता हूं।’ जैसे ही उन्होंने आम उठाये तो आम पिचक गये। जेलर साहब भौंचक्के रह गये। खुदीराम ने इस सफाई से आम चूस कर उन्हें वापिस फुला कर रखा था कि डिप्टी जेलर भी धोखा खा गये। यह देखकर किशोरावस्था की दहलीज पार करते खुदीराम खिलखिलाकर हंस पड़े। डिप्टी जेलर की आंखें डबडबा आयी। वे छह साल की उम्र में अनाथ हुये खुदीराम को बहुत स्नेह करते थे।
बालक खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर, 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जनपद के हबीबपुर गांव में हुआ था। खुदीराम किशोर अवस्था में पढ़ाई छोड़कर देश को आजाद कराने के लिए, क्रांतिकारी संगठन का सदस्य बन गये। इस वजह से उन्हें अपनी मां स्वरूपा दीदी अपरूप देवी का घर छोड़ना पड़ा।
लेकिन उन्हें एक और महिला ने अपने छोटे भाई की तरह रखा। यहां तक उन्होंने खुदीराम की रिहाई के लिए वकीलों की फीस भी दी। मुजफ्रफरपुर जहां खुदीराम को फांसी दी गयी थी। वे वहां जाकर उनसे मिली भी थी।
नवीं कक्षा के बाद देश को स्वतंत्र करवाने की धुन उन पर ऐसी सवार हुयी कि वे गुप्त क्रांतिकारी संगठन में भर्ती हो गये। वहां वे रनफुट की सहायता से दौड़ने और रिवाल्वर चलाना सीखने लगे।
1902 और 1903 में ट्टषि अरविंद और सिस्टर निवेदिता मेदिनीपुर जिले में आये। वहां वे क्रांतिकारियों से मिले। उन्होंने उन्हें ब्रिटिश सत्ता को भारत से उखाड़ने को प्रेेरित किया। फिर क्या था किशोर खुदीराम भी क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे। एक मेले में ब्रिटिश विरोधी पर्चे बांटते समय वे पहली बार किशोर अवस्था में जेल गये। लेकिन उनका मनोबल नहीं टूटा।
लार्ड कर्जन ने जब बंगाल का विभाजन किया, तो उसके विरोध में लोग सड़कों पर उतरे। अनेक भारतीयों को तत्कालीन कलकत्ता के मजिस्टेªट किंग्ज फोर्ड ने क्रूर दण्ड दिया था। इससे किंग्ज फोर्ड को पदोन्नति मिली और वह मुजफ्रफरपुर में सत्र न्यायाधीश के पद पर नियुक्त हुआ। किशोर खुदीराम की अदम्य देशभक्ति देखकर आखिरकार उन्हें व प्रफुल्ल चाकी को क्रूर अत्याचारी जज किंग्ज फोर्ड की हत्या करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी।
30 अप्रैल को किंग्ज फोर्ड की बग्घी जहां से गुजरने वाली थी। वे वहां छुपकर बैठ गये। जैसे ही——————–

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