रानोमाई बेटे के द्वारा तिरस्कृत होने पर
मंदिर में आकर सेवा करने लगी।
बेटे को अपनी गलती कैसे महसूस हुई।
कहानी सनत
ऊंची पहाड़ी पर देवी मां का एक विशाल भव्य मंदिर था। मंदिर पुराना होने के कारण उसकी बहुत ख्याति थी। दूर-दूर से श्रद्धालुगण दर्शन करने को आते थे। उसके परिसर में दो मंजिली लम्बी चौड़ी धर्मशाला थी। जिसमें सब तरह की सुविधाएं थीं। अगल-बगल से कई तरह की दुकानें कतारों में सजी हुई थी। झांकी-मूर्तियों की सुन्दर सजावट थी। पहाड़ी का प्राकृतिक सौन्दर्य भी पर्यटकों को आकृष्ट करता था। प्रतिदिन मेला जैसा वातावरण रहता था। नवरात्रि के विशेष पर्वो में तो यह मेला और भी बढ़ जाता था। मेले की भीड़ को नियंत्रित करने के लिये पुलिस बल तैनात कराया जाता था।
उस समय उन दुकानवालों के सामान तो हाथों हाथ बिक जाते थे। इन्हीं दुकानवालों की गिनती में एक रानोमाई का नाम भी शुमार था। वह लोगों की भीड़ में घूम-घूम कर अपना सामान बेचा करती थी। बेचने के नाम पर केवल एक मामूली सामान होता था उसके पास ‘पानी बाटल’। भीख मांगना गंवारा नहीं था उसे। भूख की ज्वाला तो उसके समय पर खाना-पीना मांगती ही है। और खाना भी कितने दिन तक दे सकता था उसे कोई। एक, दो या तीन दिन। भंडारा तो केवल बाहरी दर्शनार्थियों के लिये अवसर विशेष पर पास के हिसाब से तय था। इसलिए उसने एक बिना पूंजी का धंधा खोज लिया था। प्लास्टिक की बोतलें इकट्ठी कर ली थीं। उनमें नल का पानी भर दिया था और उन्हें बेचने शुरू कर दिये थे।
रानोमाई करीब पांच साल पहले यहां एक आम दर्शनार्थी के रूप में आयी थी। उसके रूई होते बाल बता रहे थे कि वह पैंसठ-छियासठ की दहलीज पर कदम रख चुकी थी। पर उसकी जर्जर होती काया में अभी भी बराबर स्फूर्ति बनी हुई थी। उसके लिये यह अच्छी बात थी कि कभी उस तरह की गंभीर बीमार नहीं पड़ी थी, जिसमें अधिकतर लोग डाक्टर के पास दौड़ा करते हैं। हां कभी-कभी उसे सर्दी बुखार और हाथ पैरों में गठिया की तकलीफें हो जाया करती थी। जिन्हें पारम्परिक औषधियों की चिकित्सा से ठीक कर लेती थी। इतनी उम्र में दूसरों के मुकाबले स्वस्थ ही थी। इसके पीछे एक राज़ भी था।
राज़ क्या था। राज यही था कि रानोमाई बड़ी सुबह उठ जाती थी। ऊषापान करती थी। आसपास थोड़ा टहलती थी। दैनिक क्रिया से निवृत्त होती थी। मंदिर की साफ-सफाई में मदद करती थी। देवी मां की आरती में भाग लेती थी। साथ में ध्यान प्राणायाम करती थी। सकल चिन्ता और दुःख को उसने मां को समर्पित कर दिया था। बड़ी ही कृपा समझती थी स्वयं पर जगत जननी की।
उसके बाद रानोमाई अपने सौदे की तैयारी और बिक्री में लग जाती थी। उससे जो आमदनी होती थी उसी में रेस्टोरेन्ट से जलपान भोजन और दीगर चीजों का प्रबंध कर लेती थी। शाम को फिर आरती आराधना में भागीदारी करती थी। जब रात होती थी, तब मंदिर परिसर में लगे धर्मशाला के एक कोने में चटाई बिछाकर पसर जाती थी। धर्मशाला का वही कोना ही उसका घर था। मंदिर पण्डे पुजारी कर्मचारी और कुछ दुकानदार उसके अपने खास परिजन जैसे बन गये थे। देवी मां की भक्तन होने के कारण उस अनाथ और सयानी बूढ़ीमाई को सबने रहने की स्वीकृति दे दी थी। जीवन का कटु अनुभव रखती थी। सबसे अच्छा व्यवहार करती थी। सबको स्नेह सम्मान देती थी। इन्हीं गुणों के बल पर वह सबका मन जीत लेती थी।
रानोमाई की दिनचर्या में किसी का कोई दखल नहीं था न दबाव। यहां उसे एक आत्मिक सन्तुष्टि मिल रही थी। उसका समय धार्मिक भावना की तरंगों के साथ कट रहा था। मृत्यु से भी उसे डर नहीं लगता था। वह जानती थी यदि इस पावन तीर्थस्थल में अकस्मात मृत्यु हो भी जाये तो उसकी आत्मा को बड़ा सुकून मिलेगा। उसने पिछले घटनाक्रम की सब बातों को भुला दिया था। ऐसा अहसास करती थी मानो उसके साथ कुछ भी घटना घटी ही नहीं हो और उस मतलब की दुनिया से अलग एक अनोखे आनन्द की दुनिया में रम गयी हो।
किसी शहर से मां के दर्शन के लिये प्रेमचंद्र भी पहुंचा था। उसने पूजा अर्चना की। मत्था टेका। मंदिर से बाहर निकला। इस बूढ़ीमाई से पानी बोतल खरीदी। इसके एवज में बीस रुपये थमाये। रानोमाई ने उसे पन्द्रह रुपये वापस कर दिये। तब वह तीर्थयात्री बोला, ‘माई, आप मुझे पन्द्रह रुपये क्यों वापस लौटा रही हो? मेरा मतलब यहां की दुकानों में तो पानी बोतल बीस रुपये में मिलती है।’
‘बेटा, मेरी पानी बोतल बिना सील पैक की है। किसी कंपनी की नहीं है। लेकिन है बहुत खास। इसमें इसी तीर्थ का शुद्ध और पवित्र जल भरा हुआ है। जिसे मैं सिर्फ पांच रुपये में बेच रही हूं। मन में आस्था और विश्वास है, तब ले सकते हो बेटा। कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं करूंगी बेटा। मैं तो यही पानी बोतल सभी आने-जाने वाले को हर दिन बेचा करती हूं। किसी ने अब तक कोई शिकायत नहीं की है।’ रानोमाई ने स्पष्ट कहा।
उसका बार-बार ‘बेटा’ सम्बोधन प्रेमचन्द्र को अच्छा लगा। उसकी साफगोई से बहुत प्रभावित हुआ। यह बूढ़ी माई सच कह रही है। बोला, ‘माई, इसमें शक अथवा अविश्वास करने की बात नहीं है। यह तो मां का प्रसिद्ध पावन तीर्थ है। यहां पर हर वस्तु का महत्व है। फूल, तिनका, घास, पत्थर, मिट्टी, जल, सूर्य की धूप और प्रसाद सभी अनमोल हैं। मुझे क्षमा करें। दरअसल मेरा कहने का आशय यह था कि आप पानी बोतल को बहुत ही सस्ते में दे रही हैं। यह बहुत प्रसन्नता की बात है।’
‘हां, बेटा, मैं इसे एकदम सस्ता बेचती हूं और एक प्रकार से दर्शनार्थियों की सेवा करती हूं, तुम बेहिचक देवी मां का नाम लेकर पी लो कुछ नहीं होगा।’ उसने हंसकर कहा। फिर पानी बोतल पानी बोतल’ बोलती हुई आगे मुड़ गयी।
प्रेमचन्द्र उस बूढ़ी माई की सहज सरल बातों में पता नहीं कैसा जादू सा आकर्षण महसूस कर रहा था। उसकी भी एक मां थी। जो बहुत पहले उसके बचपन मेें भगवान को प्यारी हो गयी थी। बस उसे अपनी मां का चेहरा हल्का सा याद आ जाता है। अनाथ आश्रम में पलकर बड़ा हुआ था वह तो। उसे ठीक से मां का स्नेह मिला ही नहीं था। आज भी तरसता है वह मां के एक स्नेह के लिये। भाग्य वालों की माएं उनके पास रहती है। परन्तु उस जैसे अभागों की माएं पता नहीं क्यों बहुत जल्दी ऊपर चली जाती हैं।
प्रेमचंद को अभी झांकी मूर्तियों को देखते घूमते मुश्किल से दो घंटे भी नहीं हुए थे कि ‘पानी बोतल पानी बोतल’ की आवाज उसके कानों में दोबारा सुनायी पड़ी। इस बूढ़ी माई की उपस्थिति को देखकर उसने एक पानी बोतल और खरीद ली।
अब वह देवी मां का अन्तिम दर्शन भी कर चुका था। घर के लिये पर्याप्त मात्र में फल और प्रसाद भी ले लिये थे। दुकानों से स्मृति बतौर कुछ वस्तुएं माला लाकेट वगैरह की खरीदारी भी कर ली थी। यहां से सीधे घर रवाना होने का मन बना रहा था। यह भी सोच रहा था, जाते-जाते इस बूढ़ी माई से पूछता चले कि वे कहां की है। उनकी बोली और पहनावे से भी नहीं लगता कि वे इस इलाके की पहाड़ी महिला है। कही बाहर की ही लगती है। शायद अकेली है। नहीं तो उनके घर के लोग अब तक नजर आ जाते।
‘आप कहां की हैं माई?’ उसने धीरे से पूछा।
रानोमाई ने बात को पहले टाला। तुरन्त कुछ नहीं बताया। वे जान रही थी कि उसे बताने पर उसके पिछले जख्म के दर्द फूट पड़ेंगे। मन आकाश पर दुःख की घटा छा जायेगी और बरस पड़ेगी। कुछ क्षण बाद उसे लगा-चलो, हवा का इतना आग्रह है तब हवा की मुराद पूरी कर ही दी जाय। फिर इस घटा के बोझ से आकाश भी तो छंटकर साफ हो जायेगा।
‘बेटा, इसके पीछे मेरी एक कहानी है।’ प्रेम चन्द्र के दोबारा पूछने पर रानोमाई ने सचमुच रो दिया। आंखों में आंसू की बूंदें छलछला आयीं।
‘बूढ़ीमाई, कहानी तो हर व्यक्ति के पीछे होती है। हम घर गृहस्थी वालों का जीवन कहानियों का ही जीवन है। कहानी के साथ जीवन चलता है और जीवन के साथ कहानी। पर इन कहानियों में दुःख-सुख का लेखा जोखा न हो तो सुनने वाला भी उससे प्रेरित नहीं होता। शायद कोई गहरी चोट आपके अपनों से मिली है। तभी आपको याद करते ही रोना आ रहा है।’
‘हां अपनों की चोट ही तो व्यक्ति को अधिक रुलाती है। मैं एक शहर की हूं। घर में बेटा बहू और नाती पोते हैं। बेटा को श्रम करके कालेज तक पढ़वाया। नौकरी पर लगवाया। धूमधाम से ब्याह करवाया। बहू बड़े घर की थी। बेटा को अपने चंगुल में रखती थी। बेटा भी वैसा ही करता था जैसा उसकी बीवी कहती थी।’
रानोमाई आगे बोली, ‘एक दिन मेरे बर्तन धोने के दौरान हाथ से चाय पीने वाला एक कांच का गिलास फूट गया। वह गिलास कोई बहुत कीमती नहीं था। मैंने कहा बहू, गिलास अचानक मेरे हाथ से छूटकर फूट गया। खराब मत मानना। दूसरा गिलास खरीद कर दे दूंगी। वैसे भी पुराना हो गया था। बहू यह सुनकर बिगड़ गयी। मुझे खूब खरी-खोटी सुनायी। मैं चुप लगा गयी। और एक दिन की बात है, बहू बेटा बच्चों को लेकर कहीं गये हुए थे। मैं काफी देर से राह ताक रही थी। कोई नहीं दिखा तो मैंने स्वयं थाली में खाना निकाला और खाने लगी। इतने में सब लोग घर आ गये। एकाएक बेटा मुझ पर झल्लाया। मेरी थाली का खाना फैंक दिया। मैं हतप्रभ रह गयी। मुझसे कौन बहुत बड़ी गलती हो गयी? उस दिन बेटे की भी बात सुन ली। फर्श पर बिखरे चावल के एक-एक दाने को उठा दिया। उस रात पानी पीकर सो गयी। फिर बात-बात पर बहू बेटा मुझसे झगड़ा करते। दुःख तकलीफ देते। नफरत करते।’
‘माई, फिर क्या हुआ?’
‘बेटा, मुझसे जब बर्दाश्त नहीं होता था, तब मैं पड़ोसियों की बहुओं के यहां चली जाती थी। कुछ दिन वहां रहती थी। इससे मेरे बहू बेटे को लगता था मुहल्ले में उनकी नाक कट रही है। और एक दिन तो अति हो गया।’
‘क्या?’
‘मेरे बेटे ने मुझे उस दिन घर से निकल जाने को विवश कर दिया। मैं सोच रही थी-इस बेटे की परवरिश में मुझसे चूक कहां पर हो गयी। फिर लगा-जब खुद का बेटा मुझे घर में रहने देना नहीं चाहता, तब पराये घर की बहू क्या चाहेगी। क्या उम्मीद करूं इनसे। इससे अच्छा तो यही होगा कि उनकी नजरों से कहीं दूर चली जाऊं। रोज-रोज की चिक-चिक और प्रताड़ना का झंझट खत्म। बहुत रोयी। मैंने अपने हठी मन को समझाया। टेªन में बैठ गयी और मांगती खाती यहां देवी मां की शरण में चली आयी। यहां पर मैं मां की भक्ति करती हूं। पानी बोतल बेचकर जीती-खाती हूं। मेरे मन ने इस तीर्थ में खुशी और शान्ति पा ली है।’
‘ओह माई ताज्जुब है। आपके बहू बेटे का हृदय पत्थर का निकला। सौतेला बेटा भी ऐसा व्यवहार करने के पहले सौ बार सोचता है। व्यक्ति कितना भी लिख पढ़ ले उन्नति कर ले। यदि उसे घर में मां-बाप का सम्मान करना नहीं आया। उन्हें सुख देना नहीं आया तो फिर वह एक नया पैसा का भी व्यक्ति नहीं है। आपकी आप बीती सुनकर मुझे भी दुख लगा।
प्रेमचन्द्र रानोमाई की सोच की गहराई तक जाना चाहता था, ‘अच्छा यह बताइये, इस मंदिर में आकर हम जैसे कई श्रद्धालु कई प्रकार की मन्नतें मांगते हैं। नौकरी, सफलता, संतान, बेटा, बेटी का ब्याह, धन दौलत और गाड़ी बंगला वगैरह। आप देवी मां से क्या मांगती है?’
मैं देवी मां से वैसा कुछ नहीं मांगती जो तुम बता रहे हो। मैं उसकी भक्ति मांगती हूं। और—–और अपने बहू बेटा नाती पोतों के लिये खुशी मांगती हूं। वे घर में बहुत सुख शान्तिनपूर्वक रहें। अच्छे भले से रहें, सुरक्षित रहे। सदैव प्रार्थना करती हूं कि उन्हें कष्ट कभी मत हो। उनकी दिनों दिन उन्नति रहे।’ रानोमाई बोली।
‘एक बात कहूं माई’ प्रेमचन्द्र बोला ‘जिन कलयुगी बहू बेटा ने आपको इतने कष्ट दिये उन्हीं बहू बेटा के लिये आप रोज देवी मां से खुशी और प्रगति मांगती है।’
‘बेटा, क्योंकि मैं मां हूं न!’
रानोमाई आगे बोली, ‘उस बेटे को तो कोख से मैंने जना है। जिस दिन मैं मां बनी। इस ब्रह्माण्ड को तो उसी दिन जीत लिया था। पूरी धरती का सुख मेरे आंचल में समा गया था। कोई भी बेटा कितना भी बड़ा हो जाय, एक मां की नजर में वह एक छोटा बच्चा ही होता है। मेरा बच्चा मेरा रक्त है। मेरे कलेजे का टुकड़ा है। तुम ही बताओ एक मां भला अपने बच्चे के लिये गलत कैसे सोच सकती है?’
‘आप धन्य है माई। आप भी इस मंदिर की माई की तरह निर्मल और निश्छल मन की हैं। आप बहुत बड़ी दिल वाली हैं। आपका दिल कितना कोमल है। आप जैसी मां कहीं ढूंढने से शायद ही मिले। अन्यों से अलग एक अनोखी मां हैं आप। जिसका ममत्व आज भी तपन पाकर पिघलने लग गया। आपकी ममता का कोई जवाब नहीं। चलिये माई मेरे साथ, मैं आपको अपने घर में रखूंगा। कोई कष्ट नहीं मिलेगा मेरे पास।’ प्रेमचन्द्र उसकी बातोें से इतना प्रभावित हुआ कि ऐसा बहुत साहस के साथ बोल दिया।
‘नहीं बेटा, मैं कहीं जाने वाली नहीं हूं। तुम्हारी भावना को समझती हूं। तुमने मुझे अपना समझा।’
प्रेमचन्द्र ने उसे फिर ठीक से पहचानने का प्रयास करते हुए कहा, ‘तो आप कहीं नरेन्द्र की मां—-?’
‘हां, तुमने सही पहचाना। मैं उसी की मां हूं।’
‘अहा माई। मुझे तो यह जानकर बहुत ही खुशी हो रही है कि आप नरेन्द्र की मां हैं। मैं भी उसी शहर का हूं। वह मेरा परिचित है। उन्होंने आपके साथ बहुत ही गलत व्यवहार किया।’
प्रेमचन्द्र इतना बोलकर वहां से चला गया। जाहिर सी बात थी कि उसने अपने शहर में आकर नरेन्द्र को उसकी मां से देवी मां के मंदिर में मिलने की बात बता दी।
एक दिन नरेन्द्र अपनी भूल का अहसास करते हुए मां को लिवाने देवी मां के मंदिर तक पहुंच गया।
तब लोगों ने कहा, ‘तुम तो अपनी मां पर अधिकार उसी दिन खो चुके हो लल्लू, जिस दिन इसे घर से निकल जाने को विवश कर दिये थे।’
‘मैं मां को लेकर सामाजिक निन्दा झेला हूं।’ नरेन्द्र ने सफाई दी।
‘पांच साल बीत गये, तब अभी तुम्हें होश आ रहा है? वह भी किसी के बताने पर? अच्छा होता कि तुमने खुद से मां की खोजबीन की होती। हाथ पैर चलाये होते तब पता चलता कि मां के निकट नहीं होने का कष्ट क्या हेाता है। अब तुम किस बात के इसके बेटे? असली बेटे तो यहां के लोग हुए। जो इसके शुरु के दुःख की घड़ी में बेटा होने का धर्म निभाये। इसके रहने की जगह मुहैया करायी। कपड़े लत्ते दिये। खाने पीने को पूछा। अब यहां से इसे तुम नहीं ले जा सकते। तुम जा सकते हो।’ एक व्यक्ति ने कड़े शब्दों में कहा।
‘भाइयो, एक बार रानोमाई की राय भी तो जान लें। हो सकता है ये अपने बेटे के साथ जाना चाहें।’ ‘बताइये रानोमाई आपका इस पर क्या विचार है।’ एक दूसरे व्यक्ति का कहना था।
‘बेटा नरेन्द्र, मैं तो देवी मां की भक्तिन हो चुकी हूं। मेरा मन भक्ति में रम गया है। मेरी उपासना अभी लम्बी चलेगी। इसे बीच में छोड़ देने पर मुझे बड़ा दोष लगेगा। मेरी उपासना का एक फल तुम लोगों के लिए भी है। मेरी ममता ने तुम्हें माफी दे दी है। लेकिन मैं वापस शहर जाने में बिल्कुल असमर्थ हूं। हां तुम मुझे यहां देखने आ जा सकते हो।’
रानोमाई ने नरेन्द्र को साफ समझा दिया। दूसरे लोगों को भी अवगत करा दिया। और इसके बाद वह वही पानी बोतल पानी बोतल की जानी पहचानी सी आवाज लगाती हुई भीड़ में गुम हो गई।
उस मां के निर्मल और निश्छल मन की ममता और निष्काम भक्ति को बेटे नरेन्द्र ने भी आज अपनी आंखों से देख लिया था। उसकी महानता पर मुग्ध सभी लोग उसे जाते देखते रह गये थे।