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अनचाहा सच

कहानी श्रवण कुमार उर्मलिया

फरवरी 2023 गणतंत्र विशेषांक

चैताली सुन्दर थी तथा
गीत संगीत नाटक की अच्छी कलाकार थी।
परन्तु अपने अहं के कारण
क्या वह जीवन में सुखी हो सकी।

मैं अपने सबसे घनिष्ट मित्र के बेटे की शादी में बिलासपुर गया हुआ था। भय और वैभवशाली विवाह कार्यक्रमों के बाद शानदार रिसेप्शन का आयोजन किया गया था। और उसमें नगर के सबसे अच्छे आर्केस्ट्रा का कार्यक्रम भी रखा गया था। इस आर्केस्ट्रा में मैंने चैताली सरकार को वर्षों बाद उसका सबसे प्रिय गीत ‘एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है———’ गाते हुये सुना था। उम्र के उस पड़ाव पर भी उसकी आवाज में वही खनक बरकरार थी जैसी उन दिनों थी जब हम उस छोटी सी जगह में रहते थे और मिड्लि स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के दौरान चैताली अपनी आवाज से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया करती थी। यह देखकर अच्छा लगा था कि उसका गाने का शौक बरकरार था। और यह देखकर और भी अच्छा लगा था कि उम्र उस पर काफी मेहरबान थी। उसे देख कर कहीं से भी नहीं लग रहा था कि उसने उम्र का इतना लम्बा फासला पार कर लिया था।
उसने भी मुझे देख लिया था और उसकी आंखों में एक चमक भी उभरी थी। पर जल्दी ही वह चमक एक फीकी मुस्कान में बदल गई थी। जब उसका गीत खत्म हुआ तो उसकी तारीफ में बनने वाली तालियों के अभिवादन में वह मंच पर रुकी नहीं और नेपथ्य में चली गई थी। मैंने अनुमान लगाया था कि अभी उसमें एक स्वाभाविक अकड़ मौजूद थी। जितना मैं उसे जानता था वह बचपन से ही जिद और अति आत्मविश्वास का शिकार रही है। इसी वजह से एक अनचाहा दर्प या अहंकार उसके अस्तित्व का हिस्सा रहा है। मुझे लगा था शायद वह मुझे मिलने जरूर आयेगी पर उसने ऐसा नहीं किया था हमेशा से ही वह अपने अहम को बहुत महत्व देती रही है, बिना इस बात की चिन्ता किये कि उसके अहम् से उसके आसपास के लोग आहत होते रहे हैं।
मैं उसे करीब से देखने की गर्ज से मैं ही उसे ढूंढता हुआ उसके पास गया था। वह अपने साथी कलाकारों के साथ बैठी हुई चाय की चुस्कियां ले रही थी। मुझे यह देखकर कर कोई आश्चर्य नहीं हुआ था कि उसकी उंगलियों के बीच बड़ी बेवाकी से एक सिगरेट सुलग रही थी। मुझे देखकर वह कुर्सी से उठ कर खड़ी हो पाई थी और थोड़ा झिझकते हुए सिगरेट को दूर फैंक दिया था। मेरे मन में यह बात बड़ी शिद्दत से उभरी थी कि किसी भी चीज को फैंकने या नकारने का उसमें गजब का जज्बा था। वह तो रिश्तों तक को सिगरेट की तरह फैंक दिया करती थी।
वह मेरे बचपन की दोस्त थी, हम दोनों ने वर्षो तक अपने नेटिव प्लेस को साथ-साथ जिया था, एक से हवा पानी में पले बढ़े थे। इतने वर्षो बाद उससे मिल कर मुझे दिली खुशी मिली थी और मैं अतिरिक्त उत्साह से भी भरा हुआ था। सच कहूं तो मैं उसे हग करना चाहता था पर हिम्मत नहीं हुई थी। मैं उसके चेहरे पर गहरी परिचय की लकीरों को ढूंढ रहा था। पर उन लकीरों को गहरे मेकअप ने ढक रखा था। मुझे बहुत पुरानी बात भी याद हो आई थी जब वयःसन्धि की ओर बढ़ती हुई उम्र के उन्माद में मैंने उसे गले लगाना चाहा था और उसने मुझे ‘आवारा—जंगली—जानवर’ कहते हुये बड़ी बेरहमी से परे ढकेल दिया था।
‘अच्छा हुआ कि तुमने मुझे पहचान लिया, चैताली। सुना है तुम बहुत बड़ी आर्टिस्ट बन गई हो और खूब नाम एवं शोहरत कमा रही हो। उस छोटी सी जगह से निकल कर तुम इस मुकाम पर पहुंची हो। मुझे तुम्हारी प्रगति देख कर तुम पर बहुत गर्व हो रहा है। मैं बचपन से ही उसके टैलेंट का कायल रहा हूं और मैंने पूरे मन से यह बात कही थी।
वह किसी का उधार नहीं रखती थी इसलिये उसने तुरंत ही कर्ज उतार दिया था, ‘सुना है तुम भी बहुत बड़े आदमी बन गये हो और पैसे वालों के समाज में शामिल हो गये हो? अच्छा हुआ कि पढ़ लिख कर तुमने यह रास्ता चुना। आर्ट और कल्चर से तो बचपन से ही तुम्हारा दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था इसलिये उस क्षेत्र में कुछ कर पाना तुम्हारे वश में नहीं था।’ कहकर उसने अपने शातिर तरीके से मुझे आहत करने का प्रयास किया था।
किसी को आहत करने का या नजरअंदाज करने का उसका अंदाज बरकरार था। उसके इस अंदाज को याद करता हुआ मैं विगत की स्मृतियों में खो गया था।
उस छोटी सी जगह में हमारी जिंदगी बड़ी सरल और सहज हुआ करती थी। आबादी इतनी कम थी कि सभी परिवार आपस में परिचित थे और एक दूसरे के सुख दुःख में बराबर के भागीदार भी हुआ करते थे। वहां कहीं भी इतनी भागम भाग नजर नहीं आती थी। दिन भी बड़े सुस्त से हुआ करते थे जैसे कोई आलसी नौ दिन चले अढ़ाई कोस की गति से चल रहा हो। ऐसा लगता था जैसे सूरज के पास भी पर्याप्त समय हो और उसे निकलने या ढलने की कोई हड़बड़ी न हो।
हमारे स्कूल में यूं तो कई लड़कियां थीं पर चैताली ही सभी के आकर्षण का केन्द्र हुआ करती थी। वह सुंदर भी थी और बहुत अच्छा गाती थी, पर मिड्लि स्कूल तक आते-आते उसे खुद को भी अहसास होने लगा था कि वह सुंदर है। इतना ही नहीं बल्कि उसे इस बात पर भी घमंड हो गया था कि वह बहुत अच्छा गाती है। रूप और गुण के साथ मॉडेस्टी और विनम्रता ही शोभा पाते हैं यह तथ्य तब तक हम बच्चों के मन में उजागर नहीं हुये थे। हम अहं और नम्रता के बीच के फर्क को नहीं समझते थे। पर चैताली की समझ और सोच उसकी उम्र को पार कर गई थी। भावना और संवेदना जैसे उसके व्यक्तित्व का हिस्सा ही नहीं थे। वह बदतमीजी की हद तक आत्मकेन्द्रित थी और स्वार्थपरता की हद तक अपने अहं का पोषण करने वाली थी।
अपनी पांच बहनों में वह दूसरे नंबर पर थी और अपनी बड़ी बहन से तेज तर्रार थी। उसकी बड़ी बहन सीधी सादी और पारिवारिक किस्म की थी। वह घर के कामों, अपनी पढ़ाई और अपने छोटे भाई बहनों को संभालने में व्यस्त रहती थी। चैताली को न घर के कामों से मतलब था न छोटी बहनों से। इन सब मामलों में उसे निकम्मी कहा जा सकता था। फिर भी मां-बाप उसे ही ज्यादा पसंद करते थे। माता-पिता उसे घर का बेटा ही समझते थे और बाहरी कामों जैसे घर का राशन पानी लाना, सब्जी भाजी खरीदना इत्यादि का जिम्मा चैताली पर ही डालते थे। वह हमेशा सत्यापित करती थी कि वह उन कामों में बहुत सिद्धहस्त है।
चैताली के माता-पिता काफी उदार थे और अपनी बेटियों पर कोई बंधन नहीं लगाते थे। वे शायद समझ गये थे कि चैताली पर बंधनों का कोई असर नहीं होगा। क्योंकि उसके तेवर बगावती थे। उनकी बाकी बच्चियां वैसे ही आज्ञाकारी स्वभाव की थी। मां-बाप की उदारता को सम्मान देने के लिये उनकी बड़ी बेटी ने पड़ोस के परिवार में अपने लिये एक भाई ढूंढ लिया था और भाई-बहन के रिश्ते को प्रगाढ़ता देने के लिये राखी का सहारा लेने लगी थी।
जैसे जैसे हमारी उम्र बढ़ रही थी वैसे-वैसे हमारे मन में अभिलाषाओं का आकाश ऊंचा हो रहा था। अचानक मेरे मन में ऐसे भाव आने लगे थे कि चैताली मुझे बहुत अच्छी लगती है। मेरा मन सपनों में खोने लगा था। जिनमें मैं चैताली के साथ आसपास के जंगलों में भटक रहा होता था या किसी जलाशय के किनारे उसके साथ बैठा हुआ पानी की छाती पर पत्थर कुदा रहा होता था। स्कूल हो या खेल का मैदान, मैं उसके आसपास ही भटकता रहता था। पर उसको मुझसे तभी मतलब होता था जब होमवर्क की कापी मांगनी होती थी। मैं उसे अपना सब कुछ समझता था पर उसके लिये मैं होमवर्क का साधन मात्र था। होमवर्क में उसकी मदद करने के बाद मुझे दिली खुशी होती थी। पर न जाने चैताली किस मिट्टी की बनी हुई थी। अपने हावभाव और भावभंगिमा से मुझे वह कुछ इस तरह का अहसास देती थी जैसे मुझसे कह रही हो, ‘होमवर्क में मेरी मदद कर तुम मुझ पर कोई अहसान नहीं कर रहे हो। बल्कि मेरा अहसान मानो कि मैं तुमसे मदद ले रही हूं। तुम और किसी लायक भी तो नहीं हो।’
यह वही समय था जब लोग चैताली के भीतर छिपी गायन कला को सराहने लगे थे। समझ पाना मुश्किल था कि हर समय शैतान लड़कों की संगत करने वाली, सभी के साथ तरह-तरह की शरारत करने वाली और अपनी बदजुबानी से लोगों को आहत करने वाली उस चैताली में ईश्वर ने इतनी प्रतिभा भर दी थी। वह फिल्मी गीत तो गाती ही थी, लोक संगीत के गायन में भी दखल रखने लगी थी।
उसकी तवज्जोह पाने के लिये मैं उसकी तारीफें करता, ‘तुम सचमुच बहुत अच्छा गाती हो, चैताली। मैं तुम्हारे गाये गीतों को बार-बार सुनना चाहता हूं। मुझे एक बार वह गीत गाकर सुनाओ न-‘दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे, गजब भयो रामा जुल्म भयो रे——।’
वह बिना झिझके, बिना कोई लिहाज किये मुझे झिड़क देती, ‘चला है मुझे सर्टिफिकेट देने कि मैं अच्छा गाती हूं। जैसे मैं जानती नहीं। और मुझसे गीत सुनेगा? जा पहले मुंह धोकर आ।’
शायद वह मेरी पागलपन ही था कि मैं उसकी बातों का कभी भी बुरा नहीं मान पाता था। पर उसकी हरकतें जरूर नागवार गुजरती थी। वह कब क्या करेगी, उस पर या तो उसका कोई नियंत्रण नहीं रह गया था ऐसा वह जानबूझ कर करने लगी थी। हमारे मुहल्ले में कोलियरी के मैनेजर रहते थे जो बैचलर थे। एक दिन मैंने देखा कि चैताली उस मैनेजर के नौकर के द्वारा बनाई गई कॉफी पी रही थी। उन दिनों कॉफी बड़े लोगों का पेय समझी जाती थी। इस तरह वह चाय से ऊपर उठ कर कॉफी पीकर खुद को महिमामंडित करने लगी थी। मैंने उसे उस सीधे सादे नौकर को अपने लटके-झटके दिखा कर कॉफी की मुफ्रतखोरी करते हुये देख लिया था, इस बात से उसे जरा भी फर्क नहीं पड़ा था। उसका परिवार बड़ा था और उसके पिता की आय पर सिर्फ रूखी रोटी और दाल का ही प्रबंध हो सकता था। वह रूखी सूखी खा कर जिंदगी जीने वालों में से नहीं थी। अपने जीवन को वह किसी भी सुख सुविधा से वंचित करने के पक्ष में नहीं लगती थी। उसे जो कुछ चाहिए उसे किसी भी प्रकार से अपने लिये उपलब्ध कराने में न उसे शर्म आती थी न झिझक होती थी।
मिठाई की दुकान की बगल से गुजरती तो उसकी एक मुस्कान पर दुकानदार मुफ्रत में पाव किलो मिठाई बांध दिया करता था। धनी घरों के लड़के उस पर पैसे खर्च करने को तैयार रहते थे जिनसे वह अपने लिये बेहतरीन कपड़े और सौंदर्य प्रसाधन की सामग्री का प्रबंध करवाती रहती थी।
गरीबी और गुरबत के बीच जहां हम जिंदगी को उसके कई रूपों में जीते थे वहीं चैताली जैसी दया, क्षमा, करुणा और ममता से विहीन आत्मरति में डूबी हुई लड़की की विभिन्न रूपों में डूबी हुई जिंदगी का प्रवाह भी देख रहे थे।

मेरे सामने जीवन का लक्ष्य स्पष्ट था इसलिए हाईस्कूल में पहुंचते ही मैं पूरी तरह से अपनी पढ़ाई को समर्पित हो गया था। चैताली को पढ़ाई से ज्यादा मतलब नहीं हुआ करता था फिर भी उसके आकर्षण और उसकी रिझाने की कला से प्रेरित होकर मास्टर लोग उसे अगली कक्षाओं में सरकाते रहते थे। कई मामलों में नारी सुलभ गुणों के कारण चैताली बहुत ज्यादा मैच्चोर हो गई थी और सामने वाले के मनोभावों को पढ़ने की कला उसमें आ गई थी। इसलिए उसका स्वार्थ कहीं हारता नहीं था।
चैताली ने गर्ल्स हाई स्कूल ज्वाइन किया था और वहां जाते ही छा गई थी। गायन कला तो उसका सबसे बड़ा प्लस पाइंट था ही, वह स्कूल के नाटकों में, वाद-विवाद प्रतियोगिता में और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगी थी। उसकी आदतों को देखते हुये मैं उससे दूर-दूर ही रहने लगा था। पर मेरे मन के किसी नर्म-नाजुक कोने में वह आबाद थी और जब तब मेरे मन को मथने लगती थी। उसके प्रति मेरी कोमल भावनाएं मुझे बाध्य करने लगती थीं कि मैं उसे मिलूं, उससे बातें करूं और मुझे उसका लंबा साथ मिले। पर उसकी नजरों में मैं एक पढ़ाकू निकम्मा था क्योंकि मैं उसके लिये पैसे खर्च नहीं कर सकता था।
मेरे पास उसके लिये सिर्फ भावनाएं थीं, संवेदनाएं थीं पर वह तो खुद इन मानवोचित गुणों से शून्य थी, वह इनका मूल्य क्या समझती। फिर भी जब कभी वह मुझे अकेले में मिलती तो मैं खुद को व्यक्त करने से रोक नहीं पाता था, ‘सुनो चैताली मैं चाहता हूं कि तुम अपनी पढ़ाई में कन्सन्ट्रेट करो। यह समय बहुत महत्वपूर्ण है, इसका भरपूर उपयोग करो। एक दिन तुम अपने घर परिवार का नाम रोशन करोगी।’
उसकी तो मनःस्थिति ही ऐसी हो गई थी कि वह अपने शुभचिंतकों या चाहने वालों के प्रति जहर ही उगलेगी। मेरी बात सुनकर वह मुझसे कहती, ‘गौरव, तुम क्यों बार-बार मुझसे अपनी बेइज्जती करवाना चाहते हो। मुझे ज्ञान देने का अधिकार तुम्हें किसने दे दिया? यार, अपना ज्ञान अपने पास रखो न और मेरा पीछा छोड़ दो! जाओ न, तुम अपने घर परिवार का नाम रोशन करो न।’
समय तेजी से भाग रहा था। शायद यह समय की साजिश रही हो या समय ने मेरी खंडहर होती हुई उम्मीदों पर मरहम लगाया हो, चैताली के प्रति मेरा मोह भंग होने लगा था। उसका सबसे बड़ा फायदा हुआ कि मैंने अच्छे नंबरों से हाई स्कूल की परीक्षा पास कर ली थी।
मैंने जबलपुर में कालेज ज्वाइन किया तो जीवन में संभावनाओं के नये द्वार खुलने लगे थे। बड़ी जगह में हमारी सोच को भी विस्तार मिलने लगता है और जीवन के प्रति नजरिया बदलने लगता है। छोटी जगह का संकुचित मन झिझक से मुक्त होने लगता है और हममें बातें करने का सलीका आ जाता है। मैंने महसूस किया था कि मेरे भीतर का सेन्स ऑफ ह्यूमर विकसित होने लगा था। कुछ हद तक मैं मुंहफट भी हो गया था और किसी को जवाब देने की पहले जो हिचक हुआ करती थी, वह दूर हो गई थी।
हालांकि चैताली को मैं मन से डिलीट नहीं कर पाया था क्योंकि वह असंभव था, फिर भी उसे मैंने मन के किसी कोने में दफन कर दिया था। छुट्टियों में जब कभी मैं घर आता तो अपने साथ ढेर सी साहित्य की किताबें लाता। मेरे लिये पढ़ना एक पैशन बन गया था। उससे फुर्सत मिलती तो खुद को आसपास फैले प्रकृति की बाहों में सौंप देता। न मुझे चैताली की जुस्तजू होती न उससे मिलने की आरजू। एक प्रकार से जान-बूझकर नहीं बल्कि अनजाने में ही वह अवॉयड होने लगी थी।
मेरी पढ़ाई ने मुझे एक ऐसी वरिष्ठता दे दी थी जिसके कारण लोग मुझसे मिलना चाहते थे, मुझसे बातें करना चाहते थे। कोल माइन्स में माइनिंग की डिग्री लेकर नये-नये टेªनी आते रहते थे जिनसे मेरी दोस्ती हो जाती थी। और उनके साथ बातें करने का, समय बिताने का जरिया मिल जाता था। इस तरह घर पर मेरी छुट्टियां देखते ही देखते बीत जाती थी और मैं कालेज लौट आया करता था। देखते-देखते मेरे कालेज का तीसरा वर्ष कब पूरा हो गया था, मुझे पता ही न चला।
हमेशा से मेरा मानना रहा है कि शिक्षा सिर्फ हमारी सोच को नियंत्रित ही नहीं करती है बल्कि उसे दिशा भी प्रदान करती है। हर इंसान जन्म से निरंकुश और उच्छृंखल सोच वाला होता है। यदि शिक्षा इन अवगुणों को समाप्त नहीं कर पाती तो यह मान लेना चाहिये कि शिक्षा प्रभावहीन रही है। चैताली ने ग्रैजुएशन कर लिया था पर उसकी आदतों से लगता था कि उसकी मानसिक संरचना के सामने शिक्षा भी विवश होकर हार मान बैठी थी। समय के साथ न तो उसकी सोच में ही कोई बदलाव आया था न उसकी ग्रीड ही खत्म हुई थी।
कोलियरी में हाल ही में एक इंजीनियर ने ज्वाइन किया था जो देखने से ही कुटिल लगता था। पर उसमें सबसे बड़ा गुण था कि उसकी अच्छी खासी तनख्वाह थी। ऊपर से वह बैचलर भी था। जब मेरा उससे परिचय हुआ और प्रगाढ़ता बढ़ी तो धीरे धीरे उसकी अन्य खूबियां भी उजागर होने लगी। वह कनिंग था, शार्प था और कुशाग्र बुद्धि का मालिक था। वह सिगरेट का चेन स्मोकर था, सुरा का सेवन करने में हिचकता नहीं था और वह बहुत वाक्पटु भी था और मुंहफट भी। पहनने का उसे भी शौक था और वास्तव में मेरा उससे परिचय साहित्यिक और पुस्तकों के आदान प्रदान से ही हुआ था।
हर विषय का उसे अच्छा ज्ञान था। वह धर्म पर बहस कर सकता था पर स्वभाव से नास्तिक था। वह सोशल और बहिर्मुखी होने का अभिनय कर सकता था पर वह लोगों को एक सीमा तक ही अपने भीतर झांकने देता था। कभी-कभी वह बहुत ही खुले दिल का लगता था और कभी-कभी रहस्यमय लगने लगता था।
यह बात मुझे बहुत बाद में मालूम हुई थी कि उसके व्यक्तित्व में जो विरोधाभासों का चार्म था उसे महिलाएं रेजिस्ट नहीं कर पाती थीं। अगली बार जब मैं छुट्टियाें में घर आया तो मैंने पाया था कि चैताली उस इंजीनियर के चार्म का शिकार हो चुकी थी। कौन किसका शिकार हुआ था वह बहस का मुद्दा था। जितना मैं चैताली को जानता था, यदि वह इंजीनियर विवेक राठौर के प्रति आकर्षित होती तो उसका ईगो हर्ट होता, उसका अहं धाराशायी होता। यह उसके स्वभाव को गवारा ही नहीं था कि वह किसी के प्रभाव में आये। वह तो दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करने में विश्वास रखती थी। उसके लिये सिर्फ मेरा उसके प्रति आकर्षित होना मान्य नहीं था। बाकी अन्य सभी के लिये वह सहिष्णु थी।
मुझे लगने लगा था कि चैताली अवश्य बेचारे विवेक का शोषण करेगी। और वह गरीब व्यर्थ में मारा जाएगा। उसके साथ अपनी मित्रता के चलते मैंने उसे आगाह भी किया था, ‘भाई विवेक, जरा इससे सावधान रहना। उसमें बहुत सारे गुण हैं जिनसे हम सब यहां के निवासी बहुत प्यार करते हैं। पर उसमें कुछ अवगुण भी हैं जो उसके सारे गुणों पर भारी हैं।’
सुनकर विवेक लापरवाही से हंसा था, ‘गौरव भाई निश्चिंत रहो। मुझे उसके गुणों से ही मतलब है। मैं खुद कालेज में नाटकों में भाग लिया करता था जो मेरा शौक बन गया है। और अब जब यहां मुझे लंबे समय तक रहना है, मैं अपने शौक को आगे बढ़ाना चाहता हूं। मैंने सुना है कि यहां बंगाली समाज के द्वारा दुर्गापूजा और काली पूजा के समय बहुत से सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। मैं उसी परम्परा को आगे बढ़ाना चाहता हूं।’
मेरे लिये समझ पाना मुश्किल था कि उसके इरादों में कितनी सच्चाई है। लेकिन मैं यह अवश्य मानता था कि सच चाहे अधूरा हो या अनचाहा हो वह सच ही होता है। किसी भी हाल में सच की तासीर नहीं बदलती।

स्त्री पुरुष संबंधों की हद बेशक सामाजिक नियंत्रण रेखा तय करती हो पर उससे ऊपर होेेेेेेता है। आत्मनियंत्रण का नैसर्गिक सॉफ्रटवेयर या औजार। लेकिन जो परिस्थितियां होती है उनका भी इन मामलों में एक बड़ा रोल होता है। चैताली और विवेक के बीच नजदीकियां बढ़ रही थीं। उस वर्ष विवेक ने अनिल बर्वे द्वारा लिखित उपन्यास ‘थैंक यू मिस्टर ग्लॉड’ के नाट्य रूपांतर के मंचन का प्रोग्राम तय किया था। विवेक के घर में नाटक की रिहर्सल हो रही थी जहां शाम को अच्छा खासा मजमा जमा हो जाता और देर रात तक रिहर्सल का दौर चलता रहता। बीच-बीच में चाय नाश्ते का दौर भी चलता रहता था। मैं भी एक दो बार रिहर्सल देखने गया। वहां विवेक और चैताली आपस में सटकर बैठे हुये स्क्रिप्ट पर बहस कर रहे होते। कई बार विवेक व्यस्तता का प्रदर्शन करते हुये अपने मुंह में सिगरेट दबाता तो चैताली प्रोफेशनल स्मोकर की तरह माचिस की तीली जलाकर उस सिगरेट को सुलगा देती। उन दोनों की नजदीकी देख कर ऐसा आभास होता जैसे उस सिगरेट की तरह वे दोनों भी जल रहे हों।
मैं उपस्थित होता तो मुझे देख कर चैताली और भी ज्यादा विवेक से इंटीमेट होने की कोशिश करती और भी ज्यादा अंतरंग या घनिष्ठ होने का दिखावा करती। शायद वह इस तरह की हरकतों से मुझे जलाने की कोशिश कर रही होती। ऐसे अवसरों पर मैं उसकी तरफ देखकर व्यंग्य से मुस्करा देता था। उसे यह जलाने के लिये कि उसकी हरकतें कितनी हास्यास्पद हैं। चैताली को, वास्तव में उसके और विवेक के बीच पनप रही अंतरंगता के प्रदर्शन की आवश्यकता ही नहीं थी। वह सब स्पष्ट था और सामने दिख रहा था। सिर्फ मुझे ही नहीं बल्कि नाटक के उन सभी कलाकारों को भी सभी कुछ साफ-साफ दिख रहा था, समझ में आ रहा था।
विवेक अक्सर चैताली के घर भी जाता रहता था और कई बार वहीं खाना भी खाता था। चैताली के माता-पिता उसकी बड़ी आवभगत करते। रिश्तों के भ्रम में ही अक्सर रिश्तों की असलियत को छिपाया जाता है। अपने माता-पिता के सामने भी चैताली विवेक के साथ इस तरह सटकर बैठती जैसे भाई बहन बैठे हों। देखने वालों को शायद यही अहसास दिलाने की कोशिश होती। लेकिन न लोग बाग इतने नासमझ थे न चैताली के माता-पिता। बल्कि चैताली के माता पिता के लिये तो विवेक एक ब्लैंक चैक जैसा था जो उनकी चैताली जैसी बिगडै़ल बेटी का जीवन सुनिश्चित कर सकता था।
विवेक के पास स्कूटर था और निश्चित रूप से चैताली और विवेक को अत्यधिक करीब लाने में उसकी अहम् भूमिका थी। दोनों अक्सर पास के नगर चले जाते जहां चैताली शॉपिंग करती और दोनों लंच या डिनर लेते। यदि लड़की चटोरी हो तो उसके दिल का रास्ता एकदम साफ हो जाता है। विवेक भी शायद इस तथ्य को जान चुका था और उसने अपनी दरियादिली का द्वार खोल दिया था। ऐसा लगने लगा था जैसे दोनों की नजदीकियों ने सामाजिक नियंत्रण या आत्म-नियंत्रण की सीमाओं का अतिक्रमण करना प्रारंभ कर दिया था।
‘थैंक न्यू मिस्टर ग्लॉड’ नाटक इतना सफल होगा इसकी किसी को भी उम्मीद नहीं थी। चैताली के अभिनय ने सभी को भाव विभोर कर दिया था। इस सफलता से विवेक राठौर जरा भी विचलित नहीं था लेकिन चैताली का घमंड सातवें आसमान पर पहुंच चुका था। उन दोनों को लेकर लोग नये समीकरणों की जुगाली करने लगे थे। और इन समीकरणों को सबसे ज्यादा हवा दे रहे थे चैताली के माता पिता। वे अपनी बेटी की तारीफ तो करते ही, साथ में विवेक का नाम जोड़ते हुये उसकी तारीफों के पुल भी बांधते। जिस माता पिता की इतनी कन्या संतानें हों उन्हें बहुत हिसाबी किताबी होना पड़ता है। हर संभावना में वे अपनी बेटियों का भविष्य सुनिश्चित करने की जुगत भिड़ाने लगते हैं।

विन्टर की लम्बी छुट्टियां थीं और मैं उन सभी घटनाक्रमों का साझी बन रहा था। या यूं कहूं कि उन घटनाक्रमों का गवाह बनने को बाध्य था। उस छोटी सी जगह में बात बहुत तेजी से फैलती थी और इसका फायदा उठाया था चैताली के माता पिता ने। अचानक ही लोग इस बात को लेकर चर्चे करने लगे थे कि चैताली के माता पिता ने विवेक से चैताली की शादी की बात चलाई है, मेरा विश्वास है कि इस अफवाह को प्रसारित करने से पहले चैताली के माता पिता ने चैताली से अवश्य बात की होगी। अपने अहं में डूबी हुई रूप गर्विता चैताली ने अवश्य अपने माता पिता को आश्वस्त किया होगा कि उसने विवेक शीशे में ढाल लिया हैै। और मेरा मानना था कि ऐसा आश्वासन कोई लड़की तभी दे सकती थी जिसके प्रस्तावित लड़के से ऐसे संबंध स्थापित हो गये हों जो सामाजिक मान्यताओं के लिहाज से वर्जित माने जाते हैं। चैताली और विवेक विवाह का जो बाजार गर्म था उसके मद्देनजर कोई भी अंदाज लगा सकता था कि दोनों तन मन से एक दूसरे के हो चुके थे, बस उस रिश्ते को सामाजिक मान्यता देने की बात थी।
लेकिन दोनों के वैवाहिक बंधन में एक अड़चन थी। चैताली अपने माता पिता की दूसरे नंबर की बेटी थी। उनकी बड़ी बेटी अनब्याही बैठी थी। और पहले उसकी शादी होनी जरूरी थी वर्ना उसके अविवाहित रहते यदि चैताली की शादी कर दी जाती तो लोग तरह-तरह की बातें बनाते। ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी? कहीं कोई और बात तो नहीं थी? इसीलिये कहते हैं कि लड़की को इतनी छूट नहीं देनी चाहिए, पैर फिसलते देर नहीं लगती। इत्यादि इत्यादि।
जीवन से अनुचित फायदे उठाने के लिये हमें उसूलों को तोड़ना होता है, सिद्धांतों को ताक पर रख देना होता है। ऐसे समझौते तक करने पड़ते हैं, समाज जिसकी इजाजत नहीं देता है। चैताली की बड़ी बहन शिप्रा ने अपना एक भाई बना रखा था। आज सोचता हूं तो चैताली के माता-पिता की सोच पर शर्म आती है। कैसे उन्होंने शिप्रा को अपने मुंह बोले भाई से शादी के लिये राजी किया होगा? जब उन्होंने शिप्रा से उस बाबत बात की होती तो जरूर वह विस्मय युक्त घृणा से अपने पूज्य माता-पिता का मुंह ताकती रह गई होगी। मैं जानता था कि वह शान्त स्वभाव की खुद को नैतिक बंधनों के दायरे में रखने वाली लड़की थी। खुद उसे चैताली की आदतें पसंद नहीं थी पर उनके माता-पिता ने चैताली को इतना सर पर चढ़ा रखा था कि वह अपनी छोटी बहन को किसी बात के लिये मना भी करती थी तो भी चैताली सुनती नहीं थी।
अवश्य शिप्रा के माता-पिता ने उस पर उस अनुचित रिश्ते को स्वीकार करने के लिय दबाव डाला होगा, उसका मनोवैज्ञानिक शोषण किया होगा और चैताली के पक्ष में यह तर्क भी दिया होगा कि वह तेरी छोटी बहन है। उसका घर बस रहा है तो तुझे भी खुश होना चाहिए न? आखिर वह तेरी छोटी बहन है। तू उससे बड़ी है और पहले तेरी शादी होनी जरूरी है। जानता हूं कि ऐसे स्वार्थी माता-पिता शिप्रा को अपनी बात मनवाने के लिये ऐसे तर्क भी दे सकते थे-‘भाई बहन से ज्यादा घनिष्ट रिश्ता पति पत्नी का होता है। तेरा मुंहबोला भाई अच्छी नौकरी में है। तेरा जीवन संवर जायेगा।’
शिप्रा की अपने मुंहबोले भाई से शादी उसका त्याग था, अपने आप से समझौता था या उसकी छोटी बहन चैताली के लिये उसकी बलि दी गई थी, कह पाना मुश्किल है। पर यह बात तो तय थी कि उसकी शादी से उसकी छोटी बहन चैताली की शादी का रास्ता खुल गया था।
चैताली इतराती हुई फिर रही थी। एक दिन मैं उद्देश्य पूर्वक उससे मिला और उससे कहा, ‘तुम बहुत समझदार निकली, चैताली। तुम्हें मालूम था कि घर की मुर्गी दाल बराबर होती है इसलिये तुमने मुर्गमुसल्लम को रिझा लिया। तुम्हें बहुत-बहुत बधाई हो।’
मेरे मजाक के एवज में आदत के मुताबिक उसने अपना जहर उगला, ‘तुम्हें जलन हो रही है न। मैं जानती थी कि तुम जलकुकड़े हो। पर यहां कौन तुम जैसों की परवाह करता है। ‘भाड़ में जाओ’ मुहावरे का मतलब तो जानते हो न?’
ऐसी लड़की से मैं क्या कहता? वह तो आत्ममुग्धता के समंदर में नख से लेकर शिख तक डूबी हुई थी। ऐसे लोगों के लिये हमेशा उम्मीद के रास्ते खुले रहते हैं। जो रोशनी की दिशा में बढ़ते हैं। पर चैताली तो रोशनी की विपरीत दिशा में चल रही थी। इसीलिये उसे लेकर मैं थोड़ा चिंतित रहता था। क्योंकि रोशनी की विपरीत दिशा में तो सिर्फ परछाइयां होती हैं।

मैं विवेक से मिलकर भी इस बात का खुलासा करना चाहता था। यदि चैताली से उसकी शादी में उसकी भी रजामंदी थी तो मैं उसके मुंह से सुनना चाहता था। पर उसकी माता जी की बीमारी का समाचार उसे मिला तो वह अचानक अपने नेटिव प्लेस चला गया था।
जीवन में सिर्फ अपनी जिद, अहं और आत्ममुग्धता के बल पर किसी बात को पत्थर की लकीर समझ लेना वैसा ही है जैसे कोई अपने आप को छलावे के हवाले कर दे। मैं मानता रहा हूं कि जीवन छलावों से भरा होता है पर यह भी जानता रहा हूं कि जीवन की सच्चाइयां उन छलावों पर भारी पड़ती हैं। विवेक वापस लौटा तो उसकी शादी हो चुकी थी। उसकी मां के गिरते स्वास्थ्य के चलते आनन-फानन में उसकी शादी कर दी गई थी। उस शादी से कई लोगों के सपने टूटे थे हालांकि वे सपने उन्होंने खुद देखे थे, उन्हें किसी ने दिखाये नहीं थे।
चैताली बहुत छटपटाई थी, बौखलाई थी और अपने फ्रस्टेªशन के चलते विवेक के साथ गाली गलौज पर उतर आई थी। वही चैताली की असलियत थी जिसे देखकर विवेक हैरान था। अपने माता-पिता को अपने इशारों पर नचाने वाली चैताली विवेक की माता जी की अहमियत को क्या समझती। हमेशा दूसरों को क्रूरता पूर्वक आहत करने वाली चैताली खुद आहत थी और कोई उसके साथ नहीं था। मेरे लिये उसको समझा पाना तो मुश्किल था कि अपने दुःखों और परेशानियों का कारण वह खुद थी। पर यह भी सच था कि मैं उसे उस हालत में देख नहीं सकता था। उससे मिलकर मैंने अपनी संवेदनाएं प्रकट की तो वह गुस्से से बिफरते हुये बोली थी, ‘मुझसे दूर ही रहो गौरव नहीं तो मुझसे पिट जाओगे। वह सब तुम्हारे कारण ही हुआ है। तुम यही तो चाहते थे न? अब खुशी मनाओ, नाचो कूदो। पर तुम अब कभी मुझे दिखना मत।’
मैंने उसकी बात का मान रखा था। नौकरी के कारण मैं पूरे तीस साल तक उससे दूर रहा था। इस दौरान उड़ती उड़ती खबरें मुझ तक आती रहती थीं। वह विवेक के वैवाहिक जीवन को तहस-नहस करने पर तुल गई थी। मजबूरन विवेक वहां से अपना ट्रांसफर कराकर कहीं और चला गया था। चैताली को कोल इंडिया में नौकरी मिल गई थी और वह बिलासपुर शिफ्रट हो गई थी। शायद विवाहित होने का सुख उसमें नहीं था, पर गीत संगीत और नाटकों में उसने खूब नाम कमाया था।
पूरे तीस वर्ष का अंतराल, और इस अंतराल के बाद वह मुझे अपने मित्र के बेटे की शादी में मिली थी और मुझे आहत करने पर तुली हुई थी। उसमें कुछ भी नहीं बदला था। हालांकि उसके जख्मों को कुरेदने का मेरा कोई इरादा नहीं था जबकि मेरे प्रश्न को सुनकर चैताली ने मेरा यही इरादा निरूपित किया था। मैंने सिर्फ सौजन्यतावश ही उससे पूछा था, ‘सुना है कि विवेक राठौर का देहान्त हो चुका है?’
अपनी समस्त घृणा सहित उसने जवाब दिया था, ‘मरेगा नहीं साला? उसने मुझे धोखा दिया था, उसे तो मरना ही था। किसी औरत की वर्जिनिटी मुफ्रत में आती है क्या? हरामी कहीं का! मैं तो चाहती थी कि साला तड़प-तड़प कर मरे, उसमें कीड़े पड़ें। पर यहां भी उसने धोखा दे दिया। नासपीटा हार्ट अटैक से मर गया।’
मेरा मन खराब हो गया था। मैं सोच रहा था कि काश वह मुझे न मिली होती। मेरे मन में चैताली के प्रति घृणा, आक्रोश, चिढ़, बद्दुआएं इत्यादि सब एक साथ उमड़ घुमड़ रहे थे। कोई और गायक मंच पर गा रहा था-‘मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे, मुझे गम देने वाले तू खुशी को तरसे——मेरेे दुश्मन—-।’

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