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अखण्ड भारत की संकल्पना जागृत रहे

स्वाधीनता विशेषांक
अगस्त, 2023

लम्बे संघर्ष के बाद 15 अगस्त 1947 को भारत ब्रिटिश दासता से मुक्त हो गया। परन्तु देश के अप्राकृतिक ढंग से दो टुकड़े कर दिए गए। यह अंग्रेजों की चाल थी। वह भारत में अन्तर्निहित शक्ति को जानते थे वह नहीं चाहते थे कि भारत एक विश्व शक्ति बन सके। इसलिए उन्होंने इस देश की भूमि के हजारों मील लम्बी सीमा के साथ दो टुकड़े कर दिए अब भारत की एक बढ़ी राशि एवं शक्ति अपनी सीमा की सुरक्षा में खर्च हो रही है।
अंग्रेजों ने पाकिस्तान बनवाया ही नहीं, उसे हर तरह से सहायता दी ताकि वह भारत के लिए सिरदर्द बना रहे। पाकिस्तान ने तीन बार भारत पर आक्रमण किया परन्तु उसे मुंह की खानी पड़ी। जीतना तो दूर उल्टे वह अपने ही एक भाग पूर्वी पाकिस्तान को अपने साथ जोड़ कर न रख सका। जब उसने देखा कि वह अमेरिका आदि देशों की सहायता के बाद भी भारत से प्रत्यक्ष युद्ध में मुकाबला नहीं कर सकता तो उसने छद्मयुद्ध का सहारा लेना प्रारंभ कर दिया। वह शस्त्रें से पूरी तरह प्रशिक्षित करके घुसपैठियों को भारत में भेजता है ताकि भारत में आतंक फैले और भारत विकास न कर सके।
हजारों मील लम्बी सीमा की सुरक्षा करना भी अपने आप में एक चुनौती है। कितनी ही मुस्तैदी की पहरेदारी की जाय, कहीं न कहीं चूक रह जाना स्वाभाविक है। प्रशिक्षित आत्मघाती घुसपैठिए कभी मुम्बई, कभी दिल्ली और कभी पठानकोट में विस्फोट करते हैं। इसके कारण भारत के सामने देश की सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बन जाता है। आज प्रशासन का बजट का एक बड़ा भाग इस पर खर्च हो रहा है। यह अप्राकृतिक विभाजन एक नासूर है इसी में रिसते रहेंगे तो हम कभी भी अपने देश को शीर्ष ऊंचाइयों तक नहीं ले जा पाएंगे।
भावनात्मक दृष्टि से यह कहना कि हम विभाजन को समाप्त कर देंगे। आज की परिस्थितियों में व्यावहारिक नहीं दिखाई देता। जब पाकिस्तान बना था उस समय लोगों का यह ख्याल था कि यह विभाजन अधिक दिन टिकने वाला नहीं है। शुरू-शुरू में पंजाब से हिन्दू अपना घर बार छोड़ कर भारत आये तो यह कहा जाता था कि वे शीघ्र ही अपने घर वापस लौट सकेंगे। उस समय के राजनीतिक दल भारतीय जनसंघ भी अपने उद्देश्यों में अखण्ड भारत की संकल्पना रखता था, उनका नारा था देश को अखण्ड करेंगे। परन्तु धीरे-धीरेे लोग यह मानने लगे कि चलो जितना भाग हमारे पास है इसी में उन्नति करें और अपनी संस्कृति, अपने धर्म को समृद्ध करें। योगी अरविन्द नाथ जी ने भी भविष्यवाणी की थी कि यह विभाजन अप्राकृतिक है और देश पुनः अखण्ड होगा।
भारत का विभाजन दो दृष्टियों से गलत है एक तो यह अप्राकृतिक विभाजन है इससे पूर्व भारत एक सुरक्षित भूखण्ड था। तीन ओर से समुद्र इस की सीमा था और उत्तर की ओर से हिमालय इस का प्रहरी था। भारत में प्रवेश के लिए पश्चिम की ओर कुछ दर्रे थे, जैसे दर्रा खैबर, दर्रा टोची, दर्रा गोमल, दर्रा बोलान। यही मात्र भारत के प्रवेश द्वार थे। इस प्रकार चारों ओर से एक किला जैसे बना हुआ था परन्तु आज हजारों मील लम्बी अप्राकृतिक सीमा है जिसे कितनी ही चौकसी करो चूक रह जाना स्वाभाविक है और देश की शक्ति का बड़ा भाग इस की सुरक्षा में लग जाता है।
लेकिन उन लोगों को भी आज यह सोचना पड़ रहा है कि हम कितनी ही इस अप्राकृतिक सीमा की सुरक्षा कर लें, घुसपैठ रोकना कठिन है और हर समय 15 अगस्त हो 26 जनवरी, आतंकी विस्फोट से सुरक्षा के लिए एक बड़ी शक्ति लगानी पड़ती है।
दूसरे यह बात तो स्पष्ट है कि भारत का मजहब के आधार पर भी विभाजन अप्राकृतिक है। पाकिस्तान अगर मजहब के आधार पर बना तो उसके दो टुकड़े क्यों हो गए। बंगला देश अलग कैसे बन गया। फिर पाकिस्तान में भी मुसलमानों के भीतर के सम्प्रदाय-शिया और सुुनी में पाकिस्तान में खून खराब क्यों हो रहा है। विश्व में कितने मुस्लिम देश है वह सब अलग-अलग देश अपने अलग-अलग हित के लिए क्यों खड़े हैं।
फिर भारत कभी भी एक सम्प्रदाय या पंथ का अनुयायी नहीं रहा। आज यह जो हिन्दू नाम दिया गया है यह तो विदेशियों द्वारा दिया गया है क्योंकि भारत पर आक्रमणकारी पश्चिम दिशा से आए और उन्हें सब से पहले सिन्धु नदी से वास्ता पड़ता था इसलिए सिन्धु के किनारे रहने वाले लोगों के लिए उन्होंने हिन्दू नाम दिया क्योंकि फारसी में स को ह बोला जाता है जैसे वे सप्ताह को हफ्रता बोलते हैं। इस प्रकार सिन्धु के किनारे और पार रहने वाले लोगों की पहचान हिन्दू हो गई। हिन्दू नाम को स्थापित किया अंग्रेजी ने।
उनकी कूटनीति थी उन्होंने जनगणना में घोषित किया कि आपको अपना धर्म लिखवाना है कि आप हिन्दू है या मुसलिम, ईसाई या सिक्ख। इस प्रकार मुसलमानों और ईसाइयों की तर्ज पर हमारी पहचान हिन्दू रूप में बनी। यह अंग्रेजों की चाल थी और उस समय इस का विरोध न हो सका। शायद जिस प्रकार अग्रेजों के राज्य का सूर्य उस समय प्रचण्ड था यह संभव भी न था क्योंकि उस समय तो एक ही लक्ष्य था कैसे ब्रिटिश राज्य से मुक्ति पाई जाय।
अतः आज नाम इतना रूढ़ हो गया है कि इससे शीघ्र मुक्ति पाना कठिन होगा। लेकिन प्रयास तो करते रहना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि ‘हिन्दूइजम इज ए वे आफ लाइफ।’ यह धर्म को उपासना पद्धति से अलग किया जाना चाहिए। मंदिर जाने वाला हिन्दू हैं और मस्जिद जाने वाला मुसलमान, यह कहना अधूरापन है क्योंकि जो मंदिर नहीं जाते वह भी तो हिन्दू हैं।
अब बात अप्राकृतिक विभाजन को दूर करने की तो यह प्रत्यक्ष दृष्टि से समाप्त नहीं किया जा सकता। लेकिन यह असंभव है ऐसा भी मान कर नहीं चलना चाहिए। संसार परिवर्तन शील है। संसार की परिस्थितियां बदलती रहती है। जर्मनी की दीवार यदि एक अन्तराल के बाद ढह गई तो इजरायल ने वर्षो बाद पुनः अपना स्थान प्राप्त किया। तो भारत पाक एक क्यों नहीं हो सकते। यह सत्य है कि आज शक्ति के द्वारा नहीं हो सकता। शक्ति के प्रयोग से तो विनाश ही होता है। संस्कृति मेल कराती है। हमारी संस्कृति में इतनी शक्ति है कि वह यदि अपने उदात रूप में विचार करने लग जाय तो विरोधियों के बड़े-बड़े दिग्गज भी साथ खड़े हो जाएंगे।
मुझे यह कहने में भी संकोच नहीं कि आज हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। हम अपनी संस्कृति की सही जानकारी भी नहीं रखते। आज हम मैकाले द्वारा बनाई गई शिक्षा प्रणाली मे ंपारंगत होकर भोगवादी पाश्चात्य संस्कृति के पुजारी हो रहे हैं।
सब बातें निराशाजनक नहीं, अतः सही संस्कृति को अपनाने की जरूरत है। ऐसा भी नहीं है आज भी राजनेताओं में, धर्म संस्कृति के आचार्यो में ऐसे अनेक हैं जो निस्वार्थ होकर अपनी संस्कृति के लिए समर्पित हैं। अतः मेरा कहना तो यही है कि हम योगी अरविन्द की उस उद्घोषणा को मन में जगाए रखें कि भारत एक दिन पुनः अखण्ड होगा। कैसे होगा इस ऊहा-पोह में न पडं़े। अपनी सन्तानों में भी यह भाव जगाए रखें कि भारत युगों-युगों से एक अखण्ड देश रहा है। यदि यह अलख जगी रहेगी तो एक दिन अवश्य पुनः देश एक हो जाएगा।

प्राचीन काल में
भारत किस संविधाान से चलता था


आज हमारी शासन व्यवस्था का आधार हमारा संविधान है। कोई भी समस्या आती है, कहीं भी गतिरोध आता है। कहीं दो स्वार्थो में टकराव होता है तो न्याय के लिए कसौटी संविधान को माना जाता है। उसकी धाराओं को उद्धृत कर हर गतिरोध का सही हल खोजा जाता है।
जब संविधान नहीं बना था। देश तो पहले से चला आ रहा है। समाज तो युगों से एक साथ शांति पूर्वक रहता आ रहा है तो उस समय कौन सा कानून था, कौन सी कसौटी थी जिसके आधार पर समाज व्यवस्था से चलता था।
मुझे यह कहते हुए तनिक भी असमजंस नहीं होता कि उस समय भी नियम थे, परम्पराएं थी, कुछ लिखित थी तथा कुछ का निर्णय बड़ो के विवेक पर निर्भर करता था। इनको यदि एक व्यापक नाम देना हो तो कह सकते हैं कि उस समय समाज को सुचारू रूप से व्यवस्थित रखने के लिए जो प्रमुख कसौटी थी उसका नाम धर्म था।
आज तो सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि धर्म की परिभाषा ही भ्रमित कर दी गई है। धर्म को उपासना पद्धति के पर्याय के रूप में जाना जाता है। हिन्दू धर्म, मुसलिम धर्म, ईसाई धर्म आदि। धर्म के इस भ्रामक अर्थ से ही समाज में कई समस्याओं की ओर देखने तथा उसके निवारण का दृष्टिकोण ही भ्रमित हो गया है। वस्तुतः धर्म का उपासना पद्धति में इतना ही संबंध है कि उपासना पद्धति में, मंदिर में जाने से मन में सात्विक भाव पैदा होते हैं। परन्तु धर्म का वास्तविक अर्थ तो अधिक व्यापक है। धर्म जीवन की अवधारणाओं में कर्तव्य का बोध कराता है। विभिन्न मर्यादाओं में कैसा आचरण करना है। इस को इंगित करता है पति के क्या कर्तव्य है, वह पति धर्म है ऐसे ही पत्नी धर्म, गुरु धर्म, शिष्य धर्म, राज धर्म, प्रजा धर्म, पुत्र धर्म आदि अलग-अलग संबंधों में व्यक्ति के कर्तव्य की अवधारणा है। अर्थात समाज में रहते हुए जो भी कर्तव्य हैं, जो नियम, मर्यादाएं अथवा परम्पराएं हैं उन्हीं को धर्म की संज्ञा दी गई है।
वस्तुतः मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। व्यक्ति अपनी हर आवश्यकता के लिए समाज पर निर्भर होता है। पैदा होते ही उसे मां की ममता की आवश्यकता है। बालपन में वह गुरु से ज्ञान लेता है आदि आदि।
इस प्रकार समाज में आचरण करते हुए जो सही नियम विकसित हुए हैं उन्हीं को धर्म की संज्ञा दी गई है। दूसरे शब्दों में इसे संस्कृति भी कहा जा सकता है। यही धर्म हमारे जीवन के विकास का आधार है। इसीलिए शास्त्रें में कहा गया है धर्मो रक्षति रक्षितः। अर्थात् आप धर्म की रक्षा करें अर्थात् धर्मानुसार आचरण करें। धर्म आप की रक्षा करेगा। जिस प्रकार सड़क पर सुव्यवस्थित चलने के लिए कुछ यातायात नियम बनाए जाते हैं इसी प्रकार समाज को व्यवस्थित विकास के लिए जो नियम समय के साथ विकसित होते हैं वह धर्म कहलाते हैं।
समाज युगों-युगों से उन्हीं धर्म अर्थात कर्तव्य के नियमों के आधार पर चलता आया है और विकसित होता रहा है। समाज का घटक व्यक्ति क्योंकि एक निरन्तर आगे बढ़ने के प्रयास करने वाली इकाई है। इसलिए समाज की परिस्थितियों में हर समय बदल होता रहता है इसलिए कुछ नियम समय के साथ बदलते रहते हैं। कसौटी यही रहती है कि व्यक्ति को विकास के लिए पूरी छूट रहे परन्तु उस की स्वतंत्र सोच के कारण शेष समाज में अव्यवस्था न फैले। अर्थात समाज की मर्यादाओं के भीतर रहते हुए ही व्यक्ति विकास करे। दोनों के संतुलित विकास के कारण धर्म के नियमों में भी समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं। इसीलिए हमारी सामाजिक रीति नीतियों को लिपिबद्ध करने वाली स्मृतियों में भी समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है। याज्ञवलक्य स्मृति, मनुस्मृति आदि स्मृतियां समाज के उतरोतर विकास की उदबोधक हैं।
आप किसी बात पर भी रूढ़ नहीं हो सकते हैं। आपको शाश्वत सत्यों और परिस्थितिजन्य सत्यों दोनों का विचार रख कर सामाजिक मर्यादाएं बनानी होगी। जो धर्म रूढ़ हो गए। उन्होंने समय के अनुसार आए परिवर्तनों के अनुसार सामाजिक नियमों में बदलाव नहीं किए। वह प्रगति नहीं कर सके।

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